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डा. हेमंत कुमार
बाल श्रम सिर्फ़ हमारे देश की ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की एक बड़ी समस्या है।और पिछले दो दशकों में इसे रोकने की दिशा में पूरे संसार के कई देशों ने अच्छी पहल भी की है। दुनिया भर में विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं इस अभिशाप को खतम करने की दिशा में काम कर रही हैं। हमारे अपने देश भारत में भी 1974 में ही बच्चों की बेहतरी के लिये बाकायदा एक नीति भी बनाई गई। इस नीति में अन्य बातों के अलावा बच्चों को मजदूरी से हटाने के साथ ही खतरनाक या भारी कामों में लगाने से रोकने की बात भी कही गई है। इसके बाद 1986 में बाल श्रम अधिनियम(निषेध एवं नियंत्रण) का निर्माण हुआ। 1987 में इस अधिनियम में कुछ बदलाव किये। अभी हाल में ही मार्च 2010 में भी इस अधिनियम में बच्चों के हित के लिये कुछ बदलाव हुये। इतना ही नहीं 1992 में ही दुनिया के 159 देशों के साथ ही भारतवर्ष ने भी बाल अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा पत्र पर भी दस्तखत किये। इन बाल अधिकारों में भी भीतर वर्ष से कम उम्र के बच्चों से मजदूरी कराए जाने पर प्रतिबन्ध के साथ ही उन्हें ऐसे कामों से दूर रखने की बात कही गई है जो उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन को हानि पहुंचाएं।
इतने नियमों, कानूनों के बनने, सरकारी ,गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रयास किये जाने के बावजूद भी हमारे अपने देश भारत में बाल मजदूरों की संख्या में बहुत कमी नहीं आई है। आपको घरों से लेकर पटाखा, माचिस फ़ैक्ट्रियों जैसे खतरनाक उद्योगों में भी बाल मजदूरों की बड़ी संख्या मिलेगी। 1971 की जनगणना के अनुसार पूरे भारत में बाल मजदूरों की कुल संख्या लगभग 1,0,753985 थी। जिसमें सबसे कम(97) बाल श्रमिक लक्षद्वीप और सबसे ज्यादा(16,27492) आंध्र प्रदेश में थे। सन 2001 यानि तीस वर्षों के बाद भी जनगणना के आंकड़ों पर ध्यान दें तो यह संख्या बढ़ कर 1,26,66,377 यानि सवा करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। मतलब यह कि इन तीस वर्षों में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर होने वाले तमाम प्रयासों, और धन के व्यय के बाद भी बाल मजदूरों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है कमी नहीं हुई।
दुख की बात तो यह है कि जितना ही इस दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं, लोगों को जागरूक किया जा रहा है उतना ही बच्चों को मजदूरी के काम में और ज्यादा लगाया जा रहा है।उनके बचपन को खतम किया जा रहा है। उनके सपनों को कुचला और बिखेरा जा रहा है। हम सभी आज बाल मजदूरी खतम करने,इन बच्चों के लिये कल्याणकारी योजनाएं बनाने, उन्हें भी एक सामान्य जीवन जीने का अवसर प्रदान करने की बातें तो बहुत करते हैं लेकिन शायद बहुत कम लोग ही ये जानते होंगे कि इन बच्चों के सपने कहां टूट और बिखर रहे हैं? वो कौन से काम हैं जिनमें लग जाने पर उनका जीवन नष्ट हो रहा है। इनमें भी कुछ काम ऐसे हैं जहां इन बच्चों का सिर्फ़ शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण होता है। लेकिन कुछ कार्यस्थल ऐसे हैं जिन्हें खतरनाक श्रेणी में रखा गया है। वहां का वातावरण ही इस ढंग का रहता है जिसमें काम करना बच्चों के स्वास्थ्य और जीवन दोनों के लिये खतरनाक है। आइये पहले हम देखते हैं किन सामान्य कामों में बाल श्रमिक लगे हैं।
कृषि या खेती में-हमारे देश के कुल बाल मजदूरों में से 70प्रतिशत से अधिक खेती के काम में लगे हैं। पूरे देश में इनकी संख्या 80-90 लाख होगी। इस काम में कुछ बच्चे तो मजबूरी में अपने मां-बाप की जगह (उनके बीमार हो जाने पर) काम करने जाते। इनसे 10 से 12 घण्टे काम करवा कर भी मजदूरी के रूप में बहुत कम पैसे या अनाज दिया जाता है।
घरेलू नौकर-अगर आप अपने अगल-बगल, मुहल्ले में देखें तो बहुत से परिवारों में काम करने वाले बच्चों की उम्र 14 साल से कम है। घरेलू काम करने वाले बच्चों के साथ मार पीट, उनका भावनात्मक यहां तक कि यौन शोषण भी होता है। उन्हीं की उम्र के अपने बच्चों के सामने उनसे काम करवाकर, डांट कर हम उन्हें एक भयंकर मानसिक प्रताड़ना से गुजारते हैं।
कूड़ा बीनने का काम-आपको रोज सुबह से शाम तक तपती सड़कों पर, चिलचिलाती धूप में कन्धे पर एक बोरा और हाथ में एक छ्ड़ी लिये हुये बहुत से बच्चे दिखते होंगे। इनका काम है पूरे दिन घूम घूम कर कूड़े के ढेर से प्लास्टिक, बोतलें, पालिथिन, और अन्य घरेलू कचरा बीनना। यही इनकी रोजी रोटी है। कचरा बीनने वाले कुल मजदूरों में से 60 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे हैं। सुबह से शाम तक सड़कों पर कूड़ा बीनने और उसे ठेकेदार तक पहुंचाने के एवज में इन्हें मात्र 10-15 या कहीं कहीं 5 रूपये तक मेहनताना मिलता है। इन्हें औसतन 10-15 किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चलना पड़ता है हमारे देश के महानगरों में ऐसे बच्चों की संख्या हजारों में है।
स्कूटर, मोटर वर्कशाप-हमारे मुहल्लों की साइकिल रिपेयरिंग की दूकानों, स्कूटर-मोटर की वर्कशॉप्स में बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की है जिनकी उम्र अभी खेलने और स्कूल जाने की है। यहां इनका दोहरा शोषण होता है। एक तो काम सिखाने के नाम पर कम पैसा देना और साथ ही काम करते समय आम आदमी के साथ ही मलिक की गालियां भी सुननी पड़ती है।जरा सी गलती होने पर मालिक या बड़ा मिस्त्री इन्हें मारने से भी नहीं चूकता।
ढाबे, चाय की दूकानें-आप बाजार में कभी चाय, काफ़ी पीने या खाना खाने तो जाते होंगे। वहां निश्चित रूप से आपका साबका ऐसे बच्चों से जरूर पड़ता होगा—जो आपकी, आपके बच्चों की जूठी प्लेटें, गिलास, बर्तन धोते हैं। आपको खाना सर्व करते हैं और बदले में दो जून का खाना और दस बीस रूपए के साथ ही ढाबा मालिक की गालियां, थप्पड़ भी पाते हैं। इनके चेहरों से गायब हो चुकी मासूमियत की जगह जगह बना चुकी उदासी, सूनापन या फ़िर विद्रोह का भाव भी शायद आपने देखा होगा। महानगरों में ऐसे बालश्रमिकों की भी बड़ी संख्या है।
जूता एवं चमड़ा उद्योग-उत्तर प्रदेश के आगरा और कानपुर शहरों में ये उद्योग बड़ी संख्या में हैं। यहां पर भी आपको हाथों में काला, भूरा रंग पोते हुये, हाथों में हथौड़ी कील लिये पसीने से लथपथ सूनी आंखों वाले सैकड़ों अबोध बच्चे काम करते दिखाई पड़ जाएंगे।
चाय बागान-(पश्चिम बंगाल और असम में) केवल पश्चिम बंगाल के डोआर क्षेत्र में ही लगभग सवा लाख से ज्यादा बाल मजदूर काम करते हैं। इन बागानों में काम करने वाले बच्चों में से 70 प्रतिशत से ज्यादा अनियमित रूप से(बिना रजिस्टर में नाम लिखे) काम करते हैं। कितना दुखद है कि 1947 में इन बागानों में बाल मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों की मात्र 17प्रतिशत थी वहीं आज इनकी संख्या लाखों में पहुंच चुकी है। इनमें भी बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषित और एनिमिक (खून की कमी) हैं।
मिट्टी के बर्तन बनाने का काम-इस उद्योग का प्रमिख केन्द्र उत्तर प्रदेश के खुर्जा शहर में है जहां हजारों बच्चे बहुत कम दर पर मजदूरी कर रहे हैं।
रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों पर पान मसाला बेचना-यह दूकानदारों, अभिभावकों ने बच्चों के माध्यम से काम करवाने का एक नया जरिया निकाला है। आपको देश के हर शहर में चौराहों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर हाथों में पान मसालों की लड़ियां लटकाए ढेरों बच्चे मिल जाएंगे। जो हमारे आपके नशे का सामान बेचते हैं। वो भी तेज ट्रैफ़िक में रोड क्रास करके, चलती ट्रेनों, बसों में चढ़ उतर कर अपनी जान जोखिम में डालते हुये। इतना ही नहीं पान मसाला बेचते बेचते इनमें से बहुत से बच्चे खुद भी ये जहरीला मसाला खाने के आदी हो जाते हैं।
भीख मांगना-आज महानगरों में भिक्षावृत्ति भी आमदनी का एक जरिया बन चुकी है। और इसके लिये भी बाकायदा गैंग बनने लगे हैं, ठेकेदारी होने लगी है। आप जिन ब्च्चों को सड़कों पर विकलांग बनकर, सूरदास बनकर भीख मांगते देखते हैं उनमें सभी जन्मजात विकलांग या अंधे नहीं हैं। बल्कि उन्हें भीख मंगवाकर कमाई करने वाले ठेकेदारों ने इस रूप में पहुंचाया है ताकि वो जनता की सहानुभूति पाकर ज्यादा कमाई कर सकें। और इन बच्चों की कमाई का पूरा फ़ायदा तो गैंग वाला या ठेकेदार उठाता है। इन बच्चों को तो बस दो जून का आधा पेट खाना और गालियां नसीब होती हैं। ये तो कुछ ऐसे धन्धे या काम थे जिनमें बच्चों के स्वास्थ्य या जीवन का खतरा कम है। आइये अब उन कामों पर दृष्टि डालते हैं जिनमें इन मासूमों के जीवन को सीधे–सीधे खतरा बना रहता है, वो भी चौबीसों घण्टे।
रेशम उद्योग-इस व्यवसाय में लगभग साढ़े तीन से चार लाख तक बाल श्रमिक कार्यरत हैं। इन्हें बहुत ही कम मजदूरी पर ज्यादा समय तक काम करना पड़ता है।
हथकरघा एवं बिजली करघा उद्योग-यह उद्योग पूरे देश में कई स्थानों पर हो रहा है। इसमें जरी का काम, कढ़ाई और साड़ी बुनने का काम बच्चों से भी लिया जाता है। इस काम की मजदूरी इन्हें इतनी कम दी जाती है जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। आज से लगभग 15 साल पहले लखनऊ में कुर्तों पर कढ़ाई का काम करने वाले एक व्यवसाई ने बताया था कि बच्चों को प्रति फ़ूल की कढ़ाई का 5 पैसा दिया जाता है। मतलब यह कि दिन भर में यदि बच्चे ने 100 फ़ूलों वाली एक साड़ी की कढ़ाई की तो उसे मजदूरी के सिर्फ़ 5 रूपये मिलेंगे। इस उद्योग में लगे बच्चों की आंखों की रोशनी भी समय से पहले कम होने लगती है।
पटाखा एवं माचिस उद्योग-इनके कारखाने ज्यादातर शिवाकाशी, तमिलनाड़ु में हैं। इसके अलावा भी देश के कई स्थानों पर यह काम होता है। शिवाकाशी क्षेत्र में पटाखों के लगभग 1050 कारखाने और उनकी हजारों इकाइयां हैं। यहां काम करने वाले मजदूरों में से लगभग 50 प्रतिशत से ज्यादा (लगभग चालीस हजार) बच्चे बाल श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं। इन कारखानों में से कम से कम 500 बिना लाइसेंस के गैरकानूनी ढंग से चलाए जाते हैं। इन्हीं क्षेत्रों में लगभग 3989 माचिस बनाने के कारखाने हैं। यहां पर काम करने वाले बच्चों को सांस रोग के साथ ही विस्फ़ोट होने पर मृत्यु का भी खतरा हमेशा बना रहता है। इसी खतरनाक जगहों पर काम करके ये मासूम हमारे आपके घरों की दीपावली को शुभ करते हैं।
कालीन उद्योग-इसके प्रमुख केन्द्र उत्तर प्रदेश के वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही और जम्मू-काशमीर में हैं। इस उद्योग से जुड़े कुल मजदूरों में से 40प्रतिशत से अधिक संख्या बाल श्रमिकों की है। उत्तर प्रदेश में इन बाल मजदूरों की संख्या एक लाख से अधिक होगी। जबकि जम्मू काशमीर में लगभग 80 हजार बच्चे इस काम से जुड़े हैं। यहां पर भी बच्चों का अच्छा खासा शोषण होता है। बहुत सारे बच्चों को काम सिखाने के नाम पर साल साल भर तक बिना कोई मजदूरी दिये ही उनसे काम लिया जाता है। यहां उड़ने वाली धूल और गर्द से बहुत जल्द ही ये ब्च्चे फ़ेफ़ड़ों के रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। 12 से16 घण्टे रोज काम करके भी इन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है।
पीतल उद्योग-पीतल का काम मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर में होता है। इसमें काम करने वाले कुल मजदूरों में से लगभग 40 से 50 प्रतिशत बच्चे हैं।
बीड़ी उद्योग-बीड़ी बनाने का अधिकतर काम उत्तर प्रदेश,कर्नाटक और तमिलनाडु में फ़ैला है।यहां भी भारी संख्या में बच्चे काम कर रहे हैं। इन्हें एक दिन में लगभग 1500 बीड़ियां बनाने पर मात्र 9 रूपये का मेहनताना दिया जाता है।जबकि यहां करने पर इनमें तंबाकू सेवन की गन्दी लत लगने के साथ ही इनके फ़ेफ़ड़ों को भी बहुत नुक्सान पहुंचता है।
भवन निर्माण-जिन मकानों या अपार्टमेण्ट्स में हम एसी की हवा खाते हुये खुद को काफ़ी महफ़ूज महसूस करते हैं क्या उन्हें बनाने वाले हाथों के बारे में कभी आपने विचार किया है? इन भवनों के निर्माण में भी कितने छोटे, सुकोमल हाथों ने अपने सर पर ईंटें, मसाले का तसला लाद कर ऊपर तक पहुंचाया है। यहां तक कि सीढ़ियों, छतों से गिर कर अपंग हो चुके या फ़िर मौत को गले लगा चुके हैं? शायद नहीं सोचा होगा। लेकिन यह भी हमारे जीवन की एक कठोर सच्चाई है। पूरे देश में ऐसे दैनिक मजदूरी करने वाले बच्चों की संख्या भी लाखों में है।
शीशा उद्योग-शीशे का काम मुख्य रूप से फ़िरोज़ाबाद में होता है। शायद कभी कोई महिला सोचती भी नहीं होगी किजो रंग बिरंगी चूड़ियां पहन कर वह अपने हाथों में चार चांद लगाती है उन्हें बनाने में कितने मासूमों ने अपने हाथ जलाए हैं। यहां काम करने वाले बच्चों को 1400 से1800 सेल्शियस तापमान वाली भट्ठियों के पास नंगे पैर खड़े होकर 10-12 घण्टे तक काम करना पड़ता है। कितनों के हाथ पैर झुलस जाते हैं।
खान और पत्थर तोड़ने का काम-इस समय इस उद्योग में काम करने वाले बच्चों के नवीनतम आंकड़े तो नहीं उपलब्ध हैं।लेकिन 1981 के आंकड़ों में इनकी संख्या 27 हजार दर्ज़ है। मध्य प्रदेश और आंध्र परदेश में फ़ैले इस व्यवसाय में बच्चों को खतरनाक ढंग से काम करना पड़ता है। इनके ऊपर पत्थर गिरने से अंग भंग होने और मौत तक का खतरा रहता है। साथ ही कार्यस्थल पर उड़ने वाले पत्थर के बारीक कणों और धूल से बहुत जल्द ही ये सांस सम्बन्धी बीमारियों की गिरफ़्त में आ जाते हैं।
हीरा चमकाने के काम में-गुजरात में हीरा चमकाने का काम करने वाले कुल मजदूरों में से 25 प्रतिशत से ज्यादा बाल श्रमिक काम करते हैं। इनके काम करने का समय भी काफ़ी ज्यादा होता है।
सर्कस में-सर्कस किसी समय हमारे मनोरंजन का एक मुख्य साधन के साथ ही एक बड़ा उद्योग भी था। आज इनकी संख्या कम तो हो गई है लेकिन इनका वजूद तो है ही। सर्कस में बच्चों को बहुत ही छोटी उम्र से भर्ती करके उनसे तमाम तरह के खतरनाक करतब और खेल करवाए जाते हैं। जिसमें उनके गिरने, चोट खाने, गम्भीर रूप से घायल होने के साथ ही मौत का खतरा भी बराबर बना रहता है। इस क्षेत्र में भी बच्चे बहुत बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं। जिनको सर्कस के तीन से चार शो दिखाने के बाद भी खाना कपड़ा और घर भेजने के लिये मात्र एक या दो हजार रूपये महीना मिल पाता है। कभी-कभी सर्कस की माली हालत बिगड़ने पर इन्हें दो जून का खाना भी ठीक से नहीं मिलता।
इन सभी सामान्य और खतरनाक कामों के अलावा भी बच्चों से गैरकानूनी तरीके से पेट्रोल पंपों, ताला बनाने, पत्थर रंगने जैसे बहुत से काम करवाए जाते हैं। और यह हालत तब है जब कि चौदह साल से कम उम्र वाले बच्चों से काम करवाना कानूनन अपराध घोषित किया जा चुका है। साथ ही तमाम सरकारी, गैर सरकारी संगठनों द्वार बाल श्रम को रोकने और उन्हें भी स्कूल जाने वाले बच्चों की मुख्य धारा से जोड़ने की कोशिशें की जा रही हैं। इसके बावजूद आज करोड़ों बच्चों से काम करवाकर हम उनका शारीरिक और भावनात्मक शोषण तो कर ही रहे हैं।साथ ही इनके मासूम चेहरों का भोलापन, उनकी मुस्कान, उनके सपनों को भी छीन रहे हैं। यदि आज भी हमने इस अपराध को रोकने के लिए अपना पूरा जोर नहीं लगाया तो शायद आने वाले कल में हमें इन बाल श्रमिकों के चेहरों पर मुस्कान और भोलेपन की जगहा एक भयंकर विद्रोह और खुरदुरेपन की छाया साफ़ साफ़ देखनी पड़ेगी।
(लेखक वतर्मान में शैक्षिक दूरदर्शन केंद्र,लखनऊ में लेक्चरर प्रोडक्शन पद पर कार्यरत हैं)