सांप्रदायिक हिंसा विधेयक का भविष्य अधर में
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सांप्रदायिक हिंसा विधेयक का भविष्य अधर में

अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाकर किए जाने वाले हमलों से उनकी रक्षा करने के लिए लाए जाने वाले विवादास्पद सांप्रदायिक हिंसा विधेयक का भविष्य अधर में लटकता दिख रहा है और विधि मंत्रालय द्वारा उठायी गयी आपत्तियों के चलते संप्रग दो के शासनकाल में इसके पारित होने की संभावनाएं बेहद क्षीण हो गयी हैं।

नई दिल्ली : अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाकर किए जाने वाले हमलों से उनकी रक्षा करने के लिए लाए जाने वाले विवादास्पद सांप्रदायिक हिंसा विधेयक का भविष्य अधर में लटकता दिख रहा है और विधि मंत्रालय द्वारा उठायी गयी आपत्तियों के चलते संप्रग दो के शासनकाल में इसके पारित होने की संभावनाएं बेहद क्षीण हो गयी हैं। विधि मंत्रालय ने विधेयक के मसौदे को लेकर आपत्तियां जाहिर की हैं तथा गृह मंत्रालय इस पर राज्य सरकारों के साथ और विचार विमर्श की योजना पर काम कर रहा है।
विधेयक के कुछ उपबंधों पर आपत्ति जाहिर करते हुए विधि मंत्रालय ने उस मसौदा विधेयक को गृह मंत्रालय को लौटा दिया जिसमें ‘‘कुल मिलाकर ’’ सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार किए गए ‘‘सांप्रदायिक हिंसा एवं चुनिंदा हिंसा निवारण (न्याय तक पहुंच और क्षतिपूर्ति ) विधेयक 2011 ’’ के प्रावधानों को ही आधार बनाया गया है ।
धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यकों , अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहित किसी समुदाय विशेष को लक्षित कर होने वाली हिंसा को रोकने और नियंत्रित करने की जिम्मेदारी विधेयक में केंद्र और राज्य सरकारों तथा उनके अधिकारियों पर डाली गयी है । उन पर यह दायित्व डाला गया है कि वे निष्पक्ष तरीके से और बिना किसी भेदभाव के इस प्रकार की हिंसा को रोकने के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल करेंगे ।
विधेयक में सांप्रदायिक समरसता, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए राष्ट्रीय प्राधिकरण जैसी इकाई के गठन का भी प्रावधान किया गया है । विधेयक में प्रावधान किया गया है कि केंद्र इस अधिनियम के तहत उसे सौंपे गए दायित्वों का अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए निर्वहन करेगा ।
विधि मंत्रालय के बारे में कहा जा रहा है कि वह राज्यों को प्रदत्त शक्तियों का अतिक्रमण किए बिना विधेयक के प्रावधानों को और मजबूत किए जाने के पक्ष में है । गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने प्रेट्र को बताया, ‘‘ हमें और अधिक विचार विमर्श करना पड़ेगा। राज्य सरकारों के साथ और सलाह मशविरा करने की जरूरत है क्योंकि किसी भी तरह की अशांति के हालात में उनकी ही मुख्य जिम्मेदारी होती है ।’’ गृह मंत्रालय के अधिकारी महसूस करते हैं कि विचार विमर्श की प्रक्रिया में महीनों का समय लग सकता है क्योंकि अधिकतर गैर कांग्रेस शासित राज्य विधेयक के कई प्रावधानों की खुली मुखालफत कर रहे हैं ।
भाजपा ने प्रस्तावित विधेयक का कड़ा विरोध किया है और इसे ‘‘खतरनाक’’ बताते हुए कहा है कि इससे संविधान के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचेगा। पार्टी ने यह सवाल भी उठाया है कि विधेयक में यह पूर्वानुमान कैसे लगाया जा सकता है कि बहुसंख्यक समुदाय ही हमेशा दंगों के लिए जिम्मेदार होता है ।
प्रस्तावित विधेयक का तृणमूल कांग्रेस , समाजवादी पार्टी , बीजू जनता दल , अन्नाद्रमुक और अकाली दल द्वारा भी विरोध किए जाने की आशंका है जो क्रमश: पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश , ओडिशा , तमिलनाडु तथा पंजाब में सत्ता में हैं ।
सूत्रों ने बताया कि विधेयक में मामलों को सुनवाई के लिए संबंधित राज्यों से बाहर स्थानांतरित किए जाने और गवाहों की सुरक्षा के लिए कदम उठाए जाने का भी प्रावधान किया गया है। विधेयक को सबसे पहले 2005 में राज्यसभा में पेश किया गया था और बाद में उसे गृह मामलों संबंधी संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया। समिति ने वर्ष 2006 में अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपी और विधेयक पर विचार तथा इसे पारित करने के लिए राज्यसभा में मार्च 2007, दिसंबर 2008 , फरवरी 2009 , दिसंबर 2009 और फिर से फरवरी 2010 में नोटिस दिए गए। लेकिन इनमें से किसी भी अवसर पर विधेयक को विचार के लिए नहीं लिया जा सका।
इसके बाद सिविल सोसायटी की ओर से सुझाव मिले तथा उनका अध्ययन किया गया। अंतत: एनएसी ने जुलाई 2010 में कहा कि सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए कानून में संशोधन की जरूरत है। इसने मसौदा विधेयक पर काम किया और 25 जुलाई 2011 को गृह मंत्रालय को सौंप दिया। (एजेंसी)

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