Kya Kehta Hai Islam: कयामत के दिन रोज़े-नमाज़ पर भारी पड़ सकते हैं आपके ये बुरे काम
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Kya Kehta Hai Islam: कयामत के दिन रोज़े-नमाज़ पर भारी पड़ सकते हैं आपके ये बुरे काम

Islam Teachings: आपकी इबादतों पर आपके बुरे काम भारी पड़ सकते हैं. अगर आपकी करनी सही नहीं  है तो आपकी सारी इबादतें बेकार हो जाती हैं. 

Kya Kehta Hai Islam: कयामत के दिन रोज़े-नमाज़ पर भारी पड़ सकते हैं आपके ये बुरे काम

Social Responsibility in Islam: इस्लाम में सामाजिक जीवन सही तरीके  से जीने के कई तरीके सिखाए गए हैं. यहां तक कि क़ुरान शरीफ में  साफ-साफ लिखा है कि आपको समाज के जरूरी काम में योगदान देना है. क्योंकि इस दुनिया में आपको अपने परिवार के अलावा पड़ोसियों, रिश्तेदारों , गरीबों और मोहताजों के लिए भी बहुत से हक अदा करने हैं. इसलिए आपकी ज़िम्मेदारी है कि मुशकिल वक़्त में सब्र से काम लें. आपकी ज़िम्मेदारी है कि अगर आपकी जेब में पैसे हैं और आपकी जानकारी में कोई भूखा सो रहा है तो उसकी भूख को मिटाएं. यानी एक ज़िम्मेदारी अपने पालनहार अपने परवरदिगार की इबादत और दूसरी ज़िम्मेदारी अपने समाज के लिए निभानी ही होगी. 

क्या होती है इबादत वाली जिम्मेदारी?

इबादत वाली ज़िम्मेदारी तो बड़ी आसान है. आप ख़ुद इबादत करिए क्योंकि ये आपके और अल्लाह के दरमियान का मामला है, इसमें कोई कोताही हो जाए तो उसकी माफी मुमकिन है, अगर नमाज़ या रोज़े छूट गए हैं तो आप तौबा कर सकते हैं, आप परवरदिगार से माफ़ी मांग सकते हैं. यकीनन वो बड़ा माफ़ करने वाला है.

भूल कर भी न करें ये काम 

लेकिन आपकी दूसरी ज़िम्मेदारी आसान नहीं है. अब मामला आपका और आपने समाजी भाई का है. अगर आपने किसी को धोका दे दिया, अगर आपने किसी का दिल दुखाया. अगर आपने पड़ोसी का हक़ अदा नहीं किया, अगर मां-बाप की ज़िम्मेदारियां अदा नहीं कीं तो अल्लाह तभी माफ़ करेगा जब वो शख़्स माफ़ कर दे जिसका आपने दिल दुखाया है. जिसको आपने धोका दिया है और अगर वो शख़्स मर गया तो फिर क्या होगा. उसे ज़िंदा किया नहीं जा सकता. चूंकि गड़ा मुर्दा उखाड़ा नहीं जा सकता, तो माफ़ी कैसे मिलेगी? अब तो माफ़ी के लिए कयामत के दिन तक इंतजार करना पड़ेगा और अल्लाह जाने उस दिन वो आपको माफ करे या न करे.

सारी इबादतें हो सकती हैं बेकार

आपकी इबादतों पर आपके बुरे काम भारी पड़ सकते हैं. अगर आपकी करनी सही नहीं  है तो  आपकी सारी इबादतें बेकार हो जाती हैं. ये पैग़ाम है क़ुरान का लेकिन अल्लाह जानता है कि हम अपनी रोज की ज़िंदगी में कितने गुनाहों को अंजाम देते हैं. कितनी बुराईयां हमसे जाने और अनजाने में हो जाती हैं. हम कितनों का दिल दुखा देते हैं. किसी को मारना, कत्ल करना या किसी का खून बहाना तो बड़ी बात है. अगर हमने किसी का दिल भी दुखा दिया तो वो हमारे गुनाहों में दर्ज हो जाता है. हम दूसरों को दबाने में लगे हैं. हम दूसरों की दौलतों पर क़ब्ज़ा कैसे किया जाए इसके मंसूबे बना रहे हैं. बदलते ज़माने में रिश्तों के भरम टूट चुके हैं. भाई-भाई का हक़ मार रहा है. बेटा, मां बाप की बात नहीं मान रहा है. एक रिश्तेदार दूसरे रिश्तेदार को जलील और रुस्वा कर रहा है. दूसरे की जमीन हड़पने की कोशिश हो रही है. कोई 10 रुपए के जले कटे नोट को चला कर अपनी चालाकी के क़िस्से सुना रहा है. दुकानदार कम सामान देकर मुनाफा कमा रहे हैं. वो माल में मिलावट कर रहे हैं. ये सब गलत काम नहीं होने चाहिए. 

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