लय-ताल के मन छूते रूपक
अगर क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर इन पांच तत्वों से मिलकर हमारी देह का निर्माण हुआ है, तो यही पंचभूत नाद बनकर हमारी चेतना में बार-बार घुलते-मिलते हैं. हमारे राग-विराग, संयोग-वियोग, आंसू और मुस्कुराहटों, चुप्पियों और कोलाहल, जीवन की प्रत्येक हलचल में प्रकृति का कण-कण गूंजता है.
मांदल्या मांदली बजाड़ रे घड़िक नाचि भाला रे
तारा हाथ नो चालो रे, मारा पाय नो चालो रे
तल्या तलिरे बजाड़ रे घड़िक नाचि भाला रे
फेफरया फेफरी बजाड़ रे घड़िक नाचि भाला रे
तारा मुहंडे चालो रे, मारा पायनो चालो रे
मांदल्या मांदली बजाड़ रे...
भील नर्तक अपने साथी मांदल वादक से गुहार कर रहा है- तू मांदल बजा, हम थोड़ी देर नाच लेंगे. तेरे हाथ की थाप से मेरे पैरों की ताल मिल जाए. थाली और शहनाई वाले से भी उसकी गुहार है कि तुम अपने साज़ की सुरीली, लय भरी तान छेड़ो हम थोड़ी देर थिरक लेंगे. जाहिर है इस प्रेमिल मुनहार में जीवन के आंतरिक उछाह और आनंद की आकांक्षा झर रही है.
साज़ और शरीर की यह आपसदारी, दरअसल जीवन और संगीत के अनटूटे आदिम रिश्ते का साक्ष्य भी है. यह सिर्फ जनजातीय जीवन और परिवेश की परिधियों तक सिमटी रहने वाली वास्तविकता नहीं है, यह एक सार्वभौम सत्य है जो किसी भी मनुष्य की चेतना में उठने वाले राग भाव की प्रतीति कराता है. अगर यह स्पंदन दुनिया के हर मनुष्य की देह में समान भाव से घटित हो रहा है तो निश्चय ही यह प्रकृति के प्रति उसके अनन्य सहकार या सह-अस्तित्व का ही परिचायक है. तब संगीत को बुनियादी तौर पर भूगोल या समुदाय की सीमाओं में नहीं बांटा जा सकता. आदिवासी या जनजातीय संगीत की परिभाषा भी इसी व्यापक और उदार दृष्टिकोण की दरकार रखती है.
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कल्पना करें हमारे उस आदिपुरुष की जिसने पहली बार किसी ध्वनि को, किसी लहर को अपने भीतर महसूस किया होगा. तब किसी साज़ और कंठ के बिना भी संगीत के किसी सरगम ने उसे रोमांचित किया होगा. मेघों की गमक, दामिनी की दमक, हवा की सरसराहट, झरनों का कलकल और पावस की पुलकन ने जब उसके अस्तित्व को पहली बार छुआ होगा तो इस आदिम अहसास की प्रतिध्वनि का जादुई रोमांच जज्ब करने के लिए वनवासियों की ललक ने नई अंगड़ाई ली होगी. और ऐसा करते हुए उसने अपने आसपास की चीज़ों में ही संगीत के नाद की खोज की होगी. आदिवासियों के वाद्यों में हमारा यही परिवेश अस्तित्वमान है.
अगर क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर इन पांच तत्वों से मिलकर हमारी देह का निर्माण हुआ है, तो यही पंचभूत नाद बनकर हमारी चेतना में बार-बार घुलते-मिलते हैं. हमारे राग-विराग, संयोग-वियोग, आंसू और मुस्कुराहटों, चुप्पियों और कोलाहल, जीवन की प्रत्येक हलचल में प्रकृति का कण-कण गूंजता है. वन-प्रांतरों में रहने वाली जनजातियों ने इसी महाभाव को अपनी कल्पना और सूझ-बूझ से सहज उपलब्ध संसाधनों में अर्जित किया. यही वजह है कि व्याकरण और शास्त्र सम्मतनिर्देशों का दंभ दरकिनार करते हुए आज भी परंपरा के साज़ों की गमक बाकी है. वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे अपनी आस्थाओं में बसाए हुए हैं. घर्षण, मिश्रण और प्रदूषण के इस युग में भी उनके सौंधे सुरों की असलियत पर ग्रहण नहीं लगा है. जनजातीय जीवन में सुषिर, ताल और अवनद्य वाद्यों की एक सुदीर्घ श्रृंखला है जिसमें आदिवासी समाज, संस्कृति और प्रकृति की विविधा को देखा-महसूसा जा सकता है. ये वाद्य लकड़ी, चमड़े और धातुओं से निर्मित होते हैं. जिनमें आदिवासियों का अपना संज्ञान निहित होता है. अवसर और समय के साथ जुड़े क्रियाकलापों के दौरान ये साज़ इस्तेमाल में लाए जाते हैं.
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देखने की बात यह है कि साज़ और शरीर का यह तालमेल आदिवासी और लोकनृत्यों ही नहीं शास्त्रीय नृत्यों में भी समान और परिहार्य है. एक अजीब उत्प्रेरक घटना होती है जब वाद्यों की उठती गमक के साथ नर्तक की देहयकायक ऊर्जा और आनंद से भर उठती है तथा भीतर का रोमांच विभिन आवर्तनों के साथ देह-लीला के सुन्दर रूपक रचने लगता है. कला आलोचक अशोक वाजपेयी नृत्य को देह की अनश्वरता का उत्सव कहते हैं और कथकनृत्य गुरु पं. बिरजू महाराज ने अपने अनुभव के सार को एक सूत्र दिया है, ‘‘नृत्य तो लय की कविता है’’.
विचार की आवृति को लोक तथा आदिवासी नृत्यों के आसपास सीमित रखें तो वाद्य और नर्तकों के रोमिल रिश्ते के साक्ष्य भारत के कई सूबों-अंचलों में मिलते हैं. बड़ी ही दिलचस्प मिसालें हैं. राजस्थान के मरुस्थलों के घुमक्कड़ कालबेलिया जैसे ही बीन की तान और ढोलक की थाप छेड़ते हैं, नर्तकी की देह अचानक नागिन सी बल खाने लगती है. यही नज़ारा पेश करती हैं वहां के भंवई नृत्य की मुद्राएं. जैसे-जैसे ढोलक की थापें दुगुन-चैगुन गति के साथ चरम पर पहुंचती है, भंवई नर्तकी का आवेग जादुई सम्मोहन जगाने लगता है. गुजरात का ‘सिद्धिधमाल’ नृत्य बड़े ड्रम के आकार वाले ताल वाद्यों के बिना संभव नहीं. मंथर चाल से शुरू हुआ नृत्य सिद्धि युवकों के हैरतअंगेज कारनामों के साथ संपन्न होता है. यहां भी साज़ों की लयकारी और उसके साथ पूरे शरीर की जुगलबंदी मन बांध लेती है. गुजरात का ही अपार लोकप्रिय ‘गरबा’ ढोल की ताल के बगैर तो जैसे अधूरा ही है. मालवा का ‘मटकी’ तो उठती-गिरती तालों के साथ थिरकती नृत्यरत देह के रोम हर्षक दृश्य उपस्थित कर देता है.
लोक संस्कृति विशेषज्ञ डॉ. कपिल तिवारी जनजातीय नृत्यों के प्रभाव को प्रकृति की नातेदारी से जोड़ते हैं, ‘बहुत हद तक प्रकृति नियामक है जनजातीय नृत्यों के लालित्य की. सारे आदिवासी नृत्य प्रकृति को ही समारोहित करते हैं. वे मनुष्य के आदिम उल्लास की अभिव्यक्ति और प्रकृति के प्रति अनन्य कृतज्ञता और धन्यवाद है. केवल नृत्य ही वह माध्यम है जिसमें शरीर, मन और हृदय की समग्रता है और उसी से यह कृतज्ञता निवेदित हो सकती हैं.’ यह सच है कि आदिवासी नृत्यों के पूरे रचाव में प्रकृति प्रतिध्वनित होती है. ढोलक, मादल, टिमकी, तुड़बुड़ी,बांसुरी आदि वे साज़ हैं जिनमें जल, थल, वन, पर्वत बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड को नापती स्वर लहरियां हैं. अरण्य में खिले फूल उनका श्रृंगार हैं. धरती की गोद उनका मंच है और खुला आकाश छत. पेड़-पौधे, झील, नदी, सूरज, चांद,तारे, बादल किसी न किसी रूप में उनके आराध्य हैं. डालियों पर आ रही कलियां, कलियों से खिल रहे पुष्पों की महक, वृक्षों पर लग रहे फल, नई आ रहीं कोंपलें, पंछियों की चहक, पशुओं की संगत, पावस की फुहार और बसंत की बहार, प्रकृति और परिवेश की ऐसी कोई क्रिया नहीं जो नृत्य-संगीत का हिस्सा न बनती हो. यह सब व्यापार स्वर-तल-ताल भरी साज़ों की संगत के बिना अधूरा ही है.
मध्यप्रदेश की गोंड जनजाति के ‘करमा’ नृत्य को ही लें. यह कर्म की प्रेरणा देने वाला सुंदर नृत्य है. जिसमें कर्म को देवता मानकर पूजा जाता है. कोई भी ऋतु हो, यह नृत्य अनुष्ठान की पवित्रता के साथ स्त्री-पुरुष मिलकर करते हैं. गोंड जन करमी, कलमी ओर हलदू पेड़ की डाल जंगल से लाते हैं और कपड़ा लपेटकर गांव के एक निश्चित स्थान पर गाड़ते हैं. कर्म वृक्ष की पूजा करने के उपरांत सामुदायिक भोज होता है और फिर सवाल-जवाब के गीत गाकर ढोलक की थाप तथा बांसुरी की तान पर थिरकते युवक-युवती उल्लास से भर उठते हैं.
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गोंड जनजाति का ही एक और अनूठा नृत्य है- ‘‘सैला’’ जिसे शरद ऋतु की चांदनी रातों में किया जाता है. इस नृत्य का आकर्षण है हाथ में सवा हाथ के डंडों का प्रयोग. मान्यता है कि सरगुजा की रानी से अप्रसन्न होकर आदि देव बधेसुर अमरकंटक चले गए तब गोंड वनवासियों ने सैला यानी बांस के डंडे हाथ में लेकर बधेसुर की नृत्यमय आराधना की थी. डिंडोरी जिले के चाड़ा के घने जंगलों में विकास करने वाली आदिम जनजाति बैगा के पास भी नृत्य की अनमोल संपदा है. प्रमुख रूप से ‘परघौनी’ नृत्य आनंद और आंतरिक हर्ष की अभिव्यक्ति का प्रतीक है.
विवाह आदि के अवसर पर बारात की अगवानी परघौनी के साथ की जाती है. लड़के वालों की ओर से आंगन में हाथी बनवाकर नचाया जाता है. मकसद एक अवसर विशेष को आनंद में बदलने से है. बैगाओं के लिए फाग का पर्व भी नृत्य के बिना संभव नहीं. गांव के खुले प्रांगण में फागुन का उत्सव मनाने बैगा जन इकट्ठा होते हैं और बड़े ढोल की थाप पर विभिन्न देह मुद्राएं उकेरते हुए गोल घेरा बनाकर नाचते हैं. ऋतुओं की रंगत के साथ सौहार्द का आत्मीय तालमेल दिखाई देता है.
होली के साथ सहज ही याद आता है झाबुआ-आलिराजपुर इलाकों के भीलों का ‘भगोरिया’. बासंती सरसराहट के साथ उम्र के आंगन में खिलता बसंत भगोरिया की पहचान है. होली के आते ही भीलों के हाट सजने लगते हैं और यहीं पर युवक-युवतियों का मिलन होता है. वे नृत्य करते हुए एक-दूसरे को रिझाते हैं और अपने जीवनसाथी की तलाश कर दाम्पत्य की गुलाबी गांठ बांध देते हैं. नृत्य में यह प्रसंग अत्यंत हृदयग्राही हो उठता है. घुटने तक ऊंची धोती, कुर्ता, सिर पर पगड़ी और कांधे पर तीर-कमान लिए भील युवक, बड़े घेर का घाघरा और ओढ़नी पहने श्रृंगार से लद-कद युवतियों के साथ बड़े ढोल की थाप पर थिरकते हैं. विभिन्न आकृतियों के साथ नृत्य धीमी चाल से तेज़ गति पकड़ता चरम पर पहुंचता है. भगोरिया की लोकप्रियता का घेरा पिछले एक दशक में अपने जनपद की हदें फलांगता सात समंदर पार के लोगों तक भी पहुंचता है.
इधर गोंड जनजाति के ढुलिया समुदह के ‘गुदुमबाजा’ नृत्य ने भी सहसा लोगों का ध्यान खींचा है. परंपरागत जनजातीय नृत्यों में गुदुमबाजा धार्मिक और सामाजिक पर्व-प्रसंगों से जुड़ा है. एक दर्जन से भी ज्यादा ढुलियाजन गले में नगाड़े के आकार का तालवाद्य गुदुम टांगकर चमड़े की एक धड़ी से आघात करते हैं. शहनाई की लोक धुन पर विभिन्न ताल आवर्तन वातावरण की नीरवता को दिव्य संगीत में तब्दील कर देते हैं. कोरकुओं की चर्चा के बगैर मध्यप्रदेश के जनजातीय सांस्कृतिक वैभव को जानना अधूरा उपक्रम होगा. छिंदवाड़ा, बैतूल, हरदा, खंडवा, होशंगाबाद के समीपवर्ती इलाकों में कोरकुओं का वास है. कोरकुओं के पास अपने नृत्य संगीत की संपन्न विरासत है जिसमें उनकी जातीय स्मृतियों, विश्वास और आस्था के आयाम प्रकट होते हैं. पुरुष और स्त्रियां प्रायः बराबरी से नृत्य में शरीक होते हैं. स्त्रियों के हाथ में चिटकोला तथा दूसरे हाथ में रूमाल और पुरुषों के हाथ में घुंघरमाल तथा पंछा होता है. गादली, थापटी, ढांढल, होरोरिया, चिलौरी, आदि कई नृत्यों का प्रचलन है.
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‘थापटी’ नृत्य में महिला-पुरुष गीत गाकर नृत्य विवाह के साथ ही अन्य घरेलू खुशियों के अवसर पर भी सहज आनंद के लिए किया जाता है. ढोलक और बांसुरी नर्तकों के भीतरी उत्साह को प्रेरित करते हैं. कोरकुओं की किशोरियों में ‘चिलौरी’ नृत्य का प्रचलन है जिसमें वे वृत्ताकार नाचती हुई अपनी कामनाओं को अभिव्यक्त करती हैं. ‘ढांढल’ पुरुष प्रधान नृत्य है जिसे ग्रीष्म ऋतु की रातों में किया जाता है. पावस की प्रतीक्षा को नृत्य के आह्नादित अवकाश में बदलते युवक ढांढल यानी आड़ी लकड़ी को कलात्मक आयाम देते हुए लहराकर नृत्यमय आकृतियां उकेरते हैं. कोरकुओं का ही एक अन्य नृत्य ‘ठाठिया’ में दीपावली की खुशियां साकार होती हैं. पुरुष, पशुओं के बालों से बनी रस्सी में कौड़ियों की लंबी-लंबी लड़ियां गूंथकर पहनते हैं. सुषिर वाद्य के बतौर शामिल होते हैं बांसुरी और भैंस का सींग. दरअसल दीपावली के बाद पहले लगने वाले हाट को ठाठिया कहा जाता है. यह हाट भीलों के भगोरिया का स्मरण कराता है. इस हाट से ही पलायन कर कोरकु युवक-युवती भी विवाह रचाते हैं.
साज़ों के आसपास सिमटा शरीर का यह सम्मोहन इस धारणा को पुष्ट करता है कि हमारे ही चित्त के राग-विराग ध्वनियों में बसे हैं. ये आवाज़ें पूरी समष्टि में अलग-अलग रूपायित हैं. इन आवाज़ों ने अपने घर बसा लिए हैं. हमारी देह, हमारा मन जब-जब अपनी ही आवाज़ों से गलबाहें करने को ललकता है, साज़ के इन घरों से सरगम फूटता है. कबीर ने सच ही कहा है, ‘कबीरा यह तन ठाठ तंबूरे का’. जीवन तो आनंद का अनहद है. ध्यान लग जाए तो आत्मा में इन स्वर लहरियों को सुना जा सकता है.
(लेखक मीडियाकर्मी और कला संपादक हैं)