जब मैं भूटान के लिए निकला, पहली बार देखने को मिली ये बातें
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जब मैं भूटान के लिए निकला, पहली बार देखने को मिली ये बातें

चीन से टेंशन के बाद जब नेपाल भी उसकी राह पर चलने लगा तब भी भूटान हमारे साथ था, लिहाजा एक बार तो इस देश का दीदार करना बनता है. 

जब मैं भूटान के लिए निकला, पहली बार देखने को मिली ये बातें

कोरोना संकट ने कई महीनों तक हमें घरों में कैद रखा, लेकिन अब स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो रही है. देश के कई पर्यटन स्थल खुल गए हैं और कुछ दूसरे देश भी पर्यटकों के स्वागत के लिए तैयार हैं. ऐसे में यदि आप आने वाले वक्त में कहीं जाने की योजना बना रहे हैं, तो पड़ोसी भूटान बेहतर विकल्प रहेगा. इसकी दो प्रमुख वजह हैं. पहली, भूटान प्राकृतिक रूप से काफी समृद्ध है, यहां की हसीन वादियां आपका मन मोह लेंगी और दूसरी, भारत के साथ उसके रिश्ते काफी अच्छे हैं. चीन से टेंशन के बाद जब नेपाल भी उसकी राह पर चलने लगा तब भी भूटान हमारे साथ था, लिहाजा एक बार तो इस देश का दीदार करना बनता है. 

मैं पिछले साल सितंबर में अपने दो दोस्तों के साथ भूटान गया था और यह मेरी सबसे यादगार यात्रा रही. अपने सभी अनुभवों को समेटकर मैंने ‘भूटान डायरी’ तैयार की है, जो निश्चित रूप से आपको भूटान की खूबसूरती का अहसास कराएगी और यह भी बताएगी कि वहां जाने के लिए आपको क्या करना है आदि. 

हमारी भूटान यात्रा की शुरुआत हुई 18 सितंबर, 2019 सुबह 7.55 बजे. जब फ्लाइट ने हमें लेकर बाग डोगरा (पश्चिम बंगाल) के लिए उड़ान भरी. पूरी तरह से पैक फ्लाइट में हमारी सीट बीच में थी. कुछ ही देर में हम जमीन से कई हजार फीट ऊपर बादलों के बीच स्वर्ग जैसा अनुभव कर रहे थे. वैसे हम इस अनुभव को अनुभव ही बनाये रखना चाहते थे, क्योंकि यात्राओं की लिस्ट काफी लंबी है. करीब 30-35 मिनट बाद विमान की एयर होस्टेज में हलचल शुरू हुई, ये हलचल किसी आपदा की नहीं बल्कि कॉफी या चाय की इच्छा रखने वालों के लिए सुकून देनी वाली थी. जायज है हम भी इस फेहरिस्त में शामिल थे, लेकिन इच्छा की पूर्ति के लिए हमें काफी इंतज़ार करना पड़ा, इतना कि यदि कोई टी स्टॉल या होटल होता तो उठकर चले गए होते. अब न तो ये होटल था और न ही हमारे पांव ज़मीं पर थे, इसलिए बस इंतज़ार करते रहे. चाय-कॉफ़ी के लिए भले ही मैराथन इंतज़ार करना पड़ा हो, लेकिन पायलट ने फ्लाइट को तय समय यानी 10.00 बजे बाग डोगरा पहुंचा दिया.

यहां से फुंशलिंग का सफर टैक्सी से पूरा होना था. एयरपोर्ट पर प्रीपेड टैक्सी बूथ से पता चला कि विश्वकर्मा पूजा होने के चलते ड्राइवर नहीं आए हैं, इंतजार करना होगा. कितना? कहना मुश्किल है. हमारा फुंशलिंग समय पर पहुंचना जरूरी था. दरअसल, टैक्सी आपको बाग डोगरा से जयगांव लेकर जाती है और यही टैक्सी स्टैंड पर बोलना होता है. जयगांव और फुंशलिंग... भारत और भूटान को एक गेट जोड़ता है. इधर भारत, उधर भूटान. भारतीयों को फुंशलिंग तक जाने के किसी परमिट की जरूरत नहीं होती, लेकिन यदि आप वहां से आगे जाना चाहते हैं, परमिट अनिवार्य है. परमिट ऑफिस शाम 5 बजे तक ही खुलता है, इसलिए हमें वहां समय से पहुंचना था. 

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एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही टैक्सी वालों ने हमें ऐसे घेर लिया जैसे आगरा में ताजमहल के बाहर लपके घेरते हैं. लपके समझे? मतलब कि अनाधिकृत गाइड, वैसे हर आगरावासी इस शब्द से बखूबी परिचित है. अगर आप इससे परिचित नहीं थे तो चलिए इसी बहाने आपके शब्दकोश में इजाफा हो गया. प्रीपेड टैक्सी स्टैंड से यदि आपको टैक्सी मिल जाती है (जो कि मुश्किल है), तो आप 2510 रुपए (उस समय) में जयगांव पहुंच सकते हैं, जबकि दूसरे टैक्सी वाले 4 से 5 हजार तक मांगते हैं. आपको थोड़ी मोलभाव कला का प्रदर्शन करना होगा, हमारी बात 3500 में तय हुई यानी एक हजार ज्यादा.

बाग डोगरा से जयगांव का सफर लगभग 4 घंटे में खत्म हुआ, हालांकि इन चार घंटों में कई बार यह अहसास हुआ कि हम भारत में कहीं भी चले जाएं पेट में पहुंच चुके खाने को गले तक ले आने वालीं सड़कें हर जगह आपके स्वागत के लिए तैयार हैं. वैसे हमारे पेट में ज्यादा कुछ था भी नहीं इसलिए खास परेशानी नहीं हुई. इतना जरूर है कि जयगांव की सड़कें देखकर यह अंदाजा हो गया कि ममता दीदी के राज में भी हाल खराब हैं. हमारा ड्राइवर हवा से बातें करने में माहिर था, इसलिए हमारा सफर तय समय पर पूरा हो गया. हमारी गाड़ी जैसे ही भारत से भूटान की सीमा में दाखिल हुई एक ही पल में सब कुछ बदल गया. सड़कें, बाजार और लोगों का मिजाज भी. ड्राइवर महोदय भी बदल गए, ट्रैफिक नियम उनके लिए सर्वोपरि हो गए. गेट के दूसरी ओर ऐसा नजारा देखने को मिलेगा हमने सोचा न था. और इससे पहले कि हम ज्यादा कुछ सोच पाते हमारी गाड़ी फुंशलिंग के इमिग्रेशन ऑफिस में दाखिल हो गई. उतरते ही हमने कार को हवाई जहाज बनाने वाले ड्राइवर के मुस्कुराते चेहरे को कैमरे में कैद किया और परमिट प्रक्रिया पूरी करने की ओर बढ़ चले.

इमिग्रेशन ऑफिस में हमारा सामना एक और मुस्कुराते व्यक्ति से हुआ, उसका नाम था थिनले. जैसे कि हमारे यहां हर सरकारी कार्यालयों के बाहर एजेंट की भीड़ होती है, वैसे ही यहां भी थी, लेकिन व्यवहार बिल्कुल जुदा. मुस्कुराता हुआ चेहरा लेकर थिनले हमारे पास पहुंचा और प्रक्रिया की जानकारी देने लगा, हम भारतीयों को इस तरह की बिना मांगी मदद की कीमत पता होती है, इसलिए हम भी उसी मानसिकता के साथ तैयार थे. हमने थिनले से बिना वक्त गंवाए पूछ लिया, क्या इसके लिए कुछ भुगतान करना है? जवाब था, नहीं. अब इससे अच्छा कुछ और हो ही कहां सकता था. वैसे तो हम परमिट के लिए आवश्यक फॉर्म पहले ही भरकर ले गए थे, मगर वहां पता चला कि फॉर्म टूटिस्ट के लिए नहीं बल्कि मजदूरों के लिए है. लेकिन फॉर्म में कहीं ऐसा कोई जिक्र नहीं था, इसलिए बेहतर है कि आप वहीं से फॉर्म लेकर भरें. फॉर्म भरा और जरूरी दस्तावेजों की फोटोकॉपी लगा कर आगे की प्रक्रिया के लिए थिनले को पकड़ा दिया. परमिट के लिए आपको फोटो, पासपोर्ट या वोटर आईडी की कॉपी के साथ होटल बुकिंग कन्फर्मेशन की कॉपी भी लगानी होती है. हम आगे बढ़ते इससे पहले एक छोटा सा वाकया हो गया जिससे हर भूटान जाने वाले का परिचित होना जरूरी है. दरअसल, मेरा एक साथी पासपोर्ट की फोटोकॉपी भूल गया था. लिहाजा मैं उसका पासपोर्ट लेकर फोटोकॉपी कराने इमिग्रेशन ऑफिस से बाहर निकल आया. सामने ही दुकान नजर आई, जिस तक पहुंचने के लिए सड़क पार जाना था. पहले मैंने सोचा कि डिवाइडर पार करके चला जाता हूं, फिर ख्याल त्यागकर ऐसे ही गाड़ियों को रुकने का इशारा करता हुआ उस पार पहुंच गया. भारत में हम ऐसा ही करते हैं. तभी पीछे से एक व्यक्ति ने आवाज दी. पारंपरिक भूटानी पोशाक पहने शख्स ने कहा ‘सर आप ऐसा नहीं कर सकते, पुलिसकर्मी खड़ा है कार्रवाई हो जाएगी. आप जेब्रा क्रासिंग इस्तेमाल करें’. मैंने उसे धन्यवाद कहा और फोटोकॉपी शॉप में चला गया, वापसी पर मैंने पहले बाकी लोगों को गौर से देखा, वे सीधे सड़क पार कर सकते थे, लेकिन उन्होंने कुछ दूर चलकर जेब्रा क्रासिंग इस्तेमाल करने को तवज्जो दी. मैंने भी चुपचाप उनका अनुसरण किया और इमिग्रेशन ऑफिस पहुंच गया. जब मैंने पूरी कहानी अपने साथियों सुनाई तो वे भी दंग रह गए.

थिनले को जरूरी दस्तावेज और पासपोर्ट देने के कुछ देर बाद इमिग्रेशन ऑफिस की महिलाकर्मी ने हमें बुलाया और हमारी जानकारी ऑनलाइन फिल की, जिसका प्रिव्यू हमें नजर आ रहा था. हमारे फिंगर प्रिंट लिए गए और पासपोर्ट पर मोहर लगाकर हमें वापस कर दिया गया. फुंशलिंग आने-जाने के लिए भारतीयों को किसी परमिट की जरूरत नहीं होती, लेकिन यदि आपको किसी दूसरे शहर जाना है तो यह आवश्यक है. इसके अलावा, पुनाखा जाने के लिए आपको अलग से परमिट लेना होता है, क्योंकि यह प्रतिबंधित क्षेत्र है.हमारी लिस्ट में कई शहर थे इसलिये हमें भी दो परमिट लेने पड़े. एक फुंशलिंग और दूसरा थिम्फू से. थिम्फू भूटान की राजधानी है, फुंशलिंग में एक दिन गुजारने के बाद हमें थिम्फू कूच करना था और हमारे आगे के सफर का साथी था थिनले. थिनले ने अपनी कार को टैक्सी में तब्दील कर रखा था. फुंशलिंग में हमारा ठिकाना था एक मशहूर होटल. यहां हमने लोकल मार्केट एक्सप्लोर किया, धार्मिक स्थल के दर्शन किये और कैफे किजोम के स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ़ उठाया. साथ ही हमने भूटानी व्यंजन का स्वाद भी चखा. हमारी तरह शाकाहारी लोगों को भूटान में परेशान होने की ज़रूरत नहीं है, यहां आपको खाने के मामले में परदेश जैसा फील नहीं होगा. हमने होटल के रेस्टोरेंट में गर्मागर्म ‘एमा दातसी’ को बटर नान के साथ बड़े चाव से खाया. ‘एमा दातसी’ चिली और चीज़ से बनती है. यानी चीज़ में डूबी मिर्ची, सुनने में भले ही आपको अजीब लगे,लेकिन टेस्ट बेहद लाजवाब है.

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19 सितंबर की सुबह हमने होटल से चेकआउट किया और थिम्फू के सफर पर निकल पड़े. जैसे-जैसे हमारी कार आगे बढ़ती जा रही थी, भूटान की खूबसूरती हमारी आंखों के सामने आती जा रही थी. समझ नहीं आ रहा था कि कैमरा चलायें या बस खूबसूरती को निखारते रहें. हमारी इस उलझन को थिनले ने दूर किया. जैसे ही उसने पेट्रोल भरवाने के लिए गाड़ी रोकी, हम फटाक से नीचे उतरे और शांत फिजा में कैमरों की क्लिक-क्लिक गूंजने लगी. फुंशलिंग से थिम्फू की दूरी भी करीब 4-5 घंटे की है. इस रास्ते में आपको कई दिलकश नजारे मिलेंगे. यदि आप पानी की बोतल भूल गए हैं या पानी खत्म हो गया है, तो भी घबराने की जरूरत नहीं. रास्ते में कई रेस्टोरेंट तो हैं ही, साथ ही एक-दो वॉटर पॉइंट भी हैं, जहां ड्राइवर अपने आप गाड़ी रोक देगा. क्योंकि पहाड़ों से यहां पहुंचने वाले पानी को होली वॉटर यानी पवित्र पानी कहा जाता है. जो वास्ताव में बेहद स्वच्छ एवं ठंडा होता है. पानी पीकर थिनले भी तरोताजा हो गया और हम भी. हमारी गाड़ी थिम्फू की तरफ बढ़ती जा रही थी, लेकिन मैं ये नहीं कहूंगा कि ‘हवा से बातें कर रही’ थी. क्योंकि थिनले उन ड्राइवरों में से था, जो सभी ट्रैफिक नियमों के पालन करते हैं. भूटानियों की एक बात जो आपको सबसे अच्छी लगेगी वो यह है कि यहां बेवजह हॉर्न नहीं बजाय जाता. पहाड़ी रास्तों पर भी वाहन चालक हॉर्न से दूर रहना ही बेहतर समझते हैं. और हमारे यहां तो बिना हॉर्न के गाड़ी चलती ही नहीं. काफी देर की यात्रा के बाद आखिरकार हम थिम्फू के मुहाने पर पहुंचे. यहां आगुन्तकों का स्वागत करता एक बड़ा सा गेट है, जिसके पास ही राजा-रानी की तस्वीरें भी आपको नजर आजाएंगी. इस गेट से दाखिल होते ही आपको थिम्फू और अन्य भूटानी शहरों के बीच का अंतर समझ आ जाएगा.

कुछ ही देर में हम अपने होटल ‘गोल्डन रूट्स थिम्फू’ पहुंचे और बैग किनारे पटककर बिस्तर पकड़ लिया. लेकिन केवल चंद मिनटों के लिए. यदि आप टैक्सी से फुंशलिंग से थिम्फू आते हैं, तो आपको साइटसीन के लिए ड्राइवर को रोककर रखने की जरूरत नहीं है. ये अपेक्षाकृत महंगा पड़ेगा, आप आधे से ज्यादा थिम्फू पैदल घूम सकते हैं और बुद्धा पॉइंट एवं Tashichho Dzong के दीदार के लिए किसी लोकल टैक्सी को हायर कर सकते हैं. Tashichho Dzong मुख्य शहर से करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर है, और यहीं से भूटानी सरकार शासन करती है. भूटान नरेश निवास भी यही है, हालांकि उसे पहचानना मुश्किल है. मुश्किल इस लिहाज से नहीं कि उसे गुप्त रखा गया है, बल्कि इसलिए कि वह सामान्य इमारतों की तरह ही दिखता है. हमारे यहां तो पार्षदों के घर ही महल जैसे होते हैं तो फिर बड़े नेताओं की तो बात ही अलग है. बुद्धा पॉइंट भी देखने लायक जगह है, भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा के साथ ही यहां से शहर का विहंगम दृश्य नजर आता है.

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थिम्फू के होटलों में आपको एयरकंडीशन की जगह हीटर मिलेंगे, (कम से कम सितंबर महीने में तो यही हाल था), क्योंकि फुंशलिंग के मुकाबले ये शहर ठंडा रहता है. अगर आप नाइटलाइफ के शौकीन हैं, तो थिम्फू आपको पसंद आएगा. हालांकि बाजार बाकी शहरों की तरह 8 बजे ही बंद हो जाते हैं, लेकिन नाइट क्लब, कैरोके बार देर तक खुलते हैं. लिहाजा, कुछ देर होटल के कमरे में सुस्ताने के बाद हम निकल पड़े थिम्फू को करीब से जानने के लिए. थिम्फू में हमारे पास डेढ़ दिन थे, और इतना समय यहां के लिए काफी है. सर्द रात में हमारा पहला पड़ाव था ‘द मोजो पार्क’. भूटानी आवाज और हिन्दुस्तानी बोल का संगम इस कैफे को बेहद खूबसूरत बना देता है. कहने का मतलब है कि यहां आप इंडियन गानों को गुनगुनाते भूटानी सिंगर को सुन सकते हैं. वैसे, सीधे किसी कैफे या नाइट क्लब में जाने से अच्छा है पहले आप मार्केट एक्सप्लोर करें, संभव है आपको कोई दूसरा अच्छा आप्शन मिल जाए. हमने भी यही ज्ञान आजमाया था. दूसरे दिन हमने बुद्धा पॉइंट, सिंपल भूटान, और Tashichho Dzong का दीदार किया. क्लॉक टॉवर शहर के बीचोंबीच एक बाजार है, जहां आप सर्दी में ‘टावर कैफे’ की गर्मागर्म मैगी का स्वाद भी चख सकते हैं.
थिम्फू की आखिरी रात हमने नाइट क्लब वीवासिटी में गुजारी. हालांकि, इससे पहले हम कुछ कैरोके बार भी गए. कैरोके बार का कांसेप्ट वाकई बहुत अच्छा लगा. यहां आप ड्रिंक्स के साथ अपनी सिंगिंग स्किल्स का प्रदर्शन कर सकते हैं. आपके पहुँचते ही वेटर आपको एक किताब पकड़ा देगा, जिसमें बॉलीवुड सहित गानों की लिस्ट और उनके नंबर होंगे. कुछ देर बार वेटर वापस आएगा और आपसे नंबर पूछेगा, आपकी बारी आते ही आपको माइक थमा दिया जाएगा. इसके बाद आपको बस स्क्रीन पर दिखाई देने वाले लिरिक्स पढ़कर म्यूजिक के साथ गाते जाना है. थिम्फू की एक और बात जो हमें सबसे ज्यादा पसंद आई, वो थी ट्रैफिक नियमों का पालन. न केवल वाहन चालक बल्कि पैदल चलने वाले भी इसे लेकर संजीदा दिखे. सच कहूँ तो हमारी आंखें यह देखकर खुली कि खुली रह गईं कि हमारे जेब्रा क्रासिंग पर पहुंचते ही गाड़ियां खुद ब खुद रुक गईं. उस वक्त अहसास हुआ कि पैदल चलने वाला यहां राजा है. और हमारे देश में? पैदल चलने वालों का तो कोई वजूद ही नहीं है, जेब्रा क्रासिंग से भी आपने सही सलामत सड़क पार कर ली, तो आपकी किस्मत. इसके अलावा, लेन सिस्टम भी भूटानी सख्ती से फॉलो करते हैं. भले ही कितनी भी लंबी लाइन हो, कोई वाहन चालक लेन नहीं तोड़ता. इन यादों के साथ थिम्फू में हमारा समय खत्म हुआ और हम थिनले की कार में सवार होकर पुनाखा होते हुए अपनी आखिरी डेस्टिनेशन पारो के लिए निकल चले.

यात्रा के चौथे दिन यानी 21 सितंबर को हम पुनाखा के लिए निकले. पुनाखा भूटान की धार्मिक नगरी और पुरानी राजधानी है. हर शुभ काम यहीं से शुरू होते हैं. थिम्फू से पुनाखा की दूरी करीब 72 किमी है, लेकिन वहां तक पहुंचने में तीन से साढ़े तीन घंटे तक लग जाते हैं, क्योंकि घुमावदार पहाड़ी इलाके में गाड़ी संभलकर चलानी होती है. वैसे यहां तक का सफर बेहद रोमांचक है, घने कोहरे को चीरती गाड़ियां, पहाड़ों से टपकता पानी और बीच-बीच में खुले बादलों के बीच से नजर आती भूटान की सुंदरता. बस ऐसा लगता है समय यहीं थम जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता. खैर बढ़ते हुए हमारा काफिला Dochula Pass पहुंचा, जो थिम्फू और पुनाखा के रास्ते में पड़ता है. भूटानी इतिहास और संस्कृति को दर्शाता यह स्थल, बर्फ और कोहरे के आगोश में छिपा रहता है. यदि आसमान साफ है तो आपको यहां से बेहद खूबसूरत नजारे देखने को मिलेंगे, लेकिन धुंध का भी अपना अलग मजा है. यहां भूटानी आपको परिक्रमा लगाते दिख जाएंगे, इससे समझा जा सकता है कि ये स्थल उनके लिए कितना पवित्र है. लिहाजा इसकी पवित्रता का ख्याल रखें. Dochula Pass के काफी ऊंचाई पर होने के चलते संभव है कि आपको सांस लेने में परेशानी हो. अगर ऐसा होता है तो बेहतर होगा कि आप नीचे ही रुक जाएं.

कुछ देर यहां गुजारने के बाद हम पुनाखा की ओर बढ़ चले. जिन हसीं वादियों से हम रूबरू हुए थे उससे ज्यादा हसीं नज़ारे हमारा इंतजार कर रहे थे. पुनाखा के द्ज़ोंग (किला) के करीब पहुंचते ही सबकुछ ठहरा सा प्रतीत हुआ. नीले पानी वाली नदी के किनारे स्थित द्ज़ोंग अपने आप ही आपका ध्यान आकर्षित कर लेता है. यहां ‘फो चू’ और ‘मो चू’ नामक दो नदियां बहती हैं जिसमें से एक मेल है और दूसरी फीमेल, अब कौन मेल है और कौन फीमेल इसका पता कैसे लगाया जाता है ये कोई भूटानी ही बता सकता है. काफी बड़े इलाके में फैला यह द्ज़ोंग बेहद खूबसूरत है और यहां आपको फोटोग्राफी के कई मौके मिलेंगे. सस्पेंशन ब्रिज इसी का हिस्सा है. तेज बहती नदी से काफी ऊंचाई पर बना यह पुल आपको रोमांचित कर देगा. हालांकि पुल ज्यादा चौड़ा नहीं है, लेकिन इसके बावजूद स्थानीय लोग यहां से मवेशी लेकर भी गुजरते हैं. वैसे उनके पास एक तरफ से दूसरी तरफ जाने का यही एकमात्र रास्ता है. 

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द्ज़ोंग जाते वक्त आपको अपने कपड़ों को लेकर थोड़ा समझौता करना पड़ेगा, खासकर यदि आप शॉर्ट ड्रेसेस पसंद करने वालीं महिला हैं. क्योंकि धार्मिक क्षेत्रों में आपका शरीर ढंका होना चाहिए.
पुनाखा की यादों को समेटने के बाद हम निकल पड़े अपने आखिरी गंतव्य यानी ‘पारो’ की ओर. भूटान की यात्रा टाइगर नेस्ट मोनेस्ट्री के बिना पूरी नहीं हो सकती और इसके लिए आपको पारो आना ही होगा. भूटान में एकमात्र इंटरनेशनल एयरपोर्ट पारो में ही है. पारो पहुँचते-पहुंचते हमें रात हो गई, क्योंकि हमने पुनाखा में कुछ ज्यादा ही समय व्यतीत कर लिया था. यहां हमारा स्वागत मूसलाधार बारिश ने किया. यदि आप ऑनलाइन के बजाए ऑफलाइन बुकिंग कराते हैं तो होटल सस्ते मिल जाते हैं, ये हमारा अनुभव है. बाहर बारिश हो रही थी और अंदर हम अपने होटल के बंद होने का इंतजार कर रहे थे ताकि पारो को और करीब से जाना जा सके. जल्द ही इंद्रदेवता ने हमारी सुनी और हम चहलकदमी करने निकल पड़े. रात के करीब 9 बज रहे थे और पूरा शहर सो चुका था. पारो के बारे में कहा जाता है कि यहां की नाइट लाइफ बहुत अच्छी है, लेकिन हमें ऐसा कुछ नजर नहीं आया. एक बात आप ध्यान रखें कि अधिकांश होटलों में भी डिनर केवल रात आठ बजे तक ही मिलता है,यदि आप इससे लेट हुए तो भूखे पेट ही सोना पड़ेगा. हम अपने पेट की आग को शांत करके निकले थे, इसलिए बेफिक्र थे. हालांकि सब के साथ ऐसा नहीं था, कुछ भारतीय मिले जो खाने की तलाश में यहां -वहां भटक रहे थे. कुछ देर घूमने के बाद हम वापस होटल आ गए.

22 सितंबर को सुबह हमें टाइगर नेस्ट (जिसे Paro Takstang भी कहा जाता है) के लिए निकलना था. इसे भूटान के सबसे पवित्र बौद्ध मठों में से एक माना जाता है. शहर से मठ की चढाई शुरू करने वाली जगह लगभग 12 किलोमीटर दूर है. कोई भी टैक्सी आपको 300 रुपए में टाइगर नेस्ट ले जाएगी, वहां से वापसी के लिए आपको अलग टैक्सी करनी होगी. वैसे यदि आप चाहें तो एक ही ड्राइवर से तय कर लें, ये आपको सस्ता पड़ेगा. हमें दोनों तरफ का खर्चा 500 रुपए पड़ा. हमारी योजना हर हाल में 9 बजे टाइगर नेस्ट पहुंचने की थी, ताकि ज्यादा सूरज चढ़ने से पहले हम चढ़ाई शुरू कर दें पर ऐसा हुआ नहीं. ब्रेकफास्ट में लजीज आलू के पराठे खाने के बाद हम करीब 12 बजे वहां पहुंचे. अगर आप मोनेस्ट्री के अंदर जाना चाहते हैं, तो आपको 500 रुपए प्रति व्यक्ति की दर से टिकट खरीदनी होगी, जो आपको नीचे ही मिलेगी. इतनी ऊपर जाकर बिना मोनेस्ट्री देखे आने का कोई मतलब नहीं, इसलिए हमने टिकट खरीद लीं. साथ ही एक-एक डंडा भी ले लिया, ताकि चढ़ने-उतरने में कुछ सहूलियत हो जाए. डंडा एक तरह से आपको किराये पर मिलता है, जिसे वापसी पर लौटाना होता है. नीचे ही एक छोटा सा बाजार है, जहां से आप भूटान के सोविनियर आदि खरीद सकते हैं. बाजार यात्रा का समय ख़त्म होने तक खुला रहता है, लिहाजा नीचे आने के बाद ही कुछ खरीदें, अन्यथा आपको अतिरिक्त बोझा ढोना पड़ेगा. संभव है कि यहां स्थानीय लोग आपसे सिगरेट देने का अनुरोध करें. दरअसल, भूटान में धूम्रपान पर पाबंदी है, लेकिन पर्यटक अपनी सिगरेट ला सकते हैं. इसलिए भूटानी मांगकर काम चला लेते हैं.
हम खुशनसीब थे कि सूरज को बादलों ने ढंक रखा था, इसलिए देर से चढ़ने में भी ज्यादा परेशानी नहीं हुई. हालांकि इस 10 किलोमीटर के ट्रैक में अपने स्टैमिना की असलियत ज़रूर पता चल गई. फिर भी हमने बिना रुके एक-दूसरे का हौसला बढ़ाते हुए सफर पूरा किया. मोनेस्ट्री के आधे रास्ते में एक कैफे है, जहां अधिकांश लोग सुस्ता लेते हैं. खच्चर भी केवल यही तक आते हैं. हम सुस्ताने वालों को खच्चर नहीं कह रहे, बल्कि कहने का मतलब है कि यदि आप पैदल न चलना चाहें तो खच्चर पर अपने शरीर का बोझ लाद सकते हैं. कैफ़े से आगे का सफर आपको खुद ही तय करना होगा. चढ़ते-चढ़ते आप एक ऐसे स्थान पर पहुंचते हैं जहां से मोनेस्ट्री बस कुछ ही दूर नजर आती है और लगता है कि चलो आ ही गए. लेकिन ये आंखों के भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है. क्योंकि इसके बाद कई सीढ़ियों को पार करना होता है. मोनेस्ट्री के द्वार पर पहुंचते ही आपको सभी सामान (बैग आदि) लगेज रूम में रखने को कहा जाता है, सिवाए वॉलेट और टिकट के. टिकट चेक करने के बाद एक गार्ड आपको कुछ और सीढ़ियां चढ़ने के लिए कहता है. ऊपर पहुंचने पर आपसे कुछ देर इंतजार करने को कहा जाता है. दरअसल, कुछ लोगों को छोटे-छोटे समूहों में बांटा जाता है ताकि मोनेस्ट्री के गाइड या कहें कि बौद्ध भिक्षु आपको मोनेस्ट्री के इतिहास और धार्मिक जुड़ाव से रू-ब-रू करा सकें. जब हम मोनेस्ट्री के एक कक्ष में दाखिल हुए, तो पाया कि भगवान की प्रतिमा के समक्ष बीयर की बोतलें और कुछ चिप्स के पैकेट रखे हैं. भगवान और बीयर-चिप्स, कुछ अटपटा लगा और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने गाइड से पूछ लिया कि आखिर बीयर और चिप्स क्यों? जवाब था, भगवान को इसका भी चढ़ावा चढ़ता है. 

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मोनेस्ट्री में आपको एक खेल खेलने के लिए भी कहा जाता है. खेल कुछ ऐसा है कि बौद्ध भिक्षु द्वारा आपसे अपना ‘लक’ आजमाने के लिए कहा जाता है. इसके लिए आपको पासा फेंकना होता है, ईवन नंबर आया तो आप भाग्यशाली हैं और जीवन में कुछ अच्छा होने वाला है, लेकिन ऑड आया तो भगवान फ़िलहाल आपसे खुश नहीं हैं. हर बार पासे फेंखने पर आपको अपनी श्रद्धा अनुसार कुछ न कुछ दान देना होता है. 

खैर, हमने मोनेस्ट्री के सभी ‘मंदिरों’ के दर्शन किए, भूटान के भगवानों के बारे में जाना और वापसी के लिए निकल पड़े. वैसे, भूटान के धार्मिक इतिहास के बारे में जानने के बाद आपके मन में ये ख्याल जरूर आएगा कि भूटान का अपना कुछ है ही नहीं हर बात का भारत कनेक्शन है. हम जल्द नीचे पहुंचना चाहते थे, क्योंकि हमने शुरुआत करीब साढ़े 11 बजे की थी और देर का मतलब था अंधेरे में उबड़-खाबड़ पहाड़ से नीचे उतरना. थके हारे होने के बावजूद हम किसी तरह 5.30 बजे तक नीचे उतर आये और सीधे होटल पहुंचकर पेट में लात घूंसे मार रहे चूहों को शांत करने का प्रयास किया. होटल का खाना बेहद टेस्टी था, खासकर आलू के परांठे तो लाजवाब थे. वैसे एक-दो अपवाद छोड़ दें तो पूरे भूटान में हमें बेहतरीन खाना मिला.
पारो में यह हमारी आखिरी रात थी, फुंशलिंग से शुरू हुआ सफर फुंशलिंग पर ही जाकर खत्म होना था. वैसे तो हमें पारो से दिल्ली की फ्लाइट लेनी थी, लेकिन ऐन मौके पर हमने ट्रिप को रोमांचक एंड देने के लिए उसमें थोड़ा बदलाव किया. आखिरी रात हमने पारो की सड़कों पर घूमते हुए गुजारी. पूरी रात नहीं 12 बजे तक हम वापस होटल पहुंच चुके थे. वैसे भी भूटान में रात 8 बजे के बाद सबकुछ सुनसान हो जाता है केवल नाइट क्लब आदि को छोड़कर. घूमते-घूमते हमने सुबह फुंशलिंग निकलने के लिए टैक्सी भी तय कर ली, जिसका किराया था 3000 रुपए. भूटान और भारत की करेंसी बराबर हैं, इसलिए किसी तरह कन्फ्यूजन नहीं होता. 500 से लेकर 2000 तक सभी नोट यहां बड़े आराम से चलते हैं.

भूटान में हमारा आखिरी दिन
भूटान के हमारे इस आखिरी सफर का ड्राइवर था पेन. शक्ल-सूरत और सीरत में थिनले से बिलकुल अलग. थिनले जहां नियम-कायदों को मानने वाला था वहीं पेन के ख्यालात अधिकांश भारतीयों की तरह थे यानी नियम तो होते ही टूटने के लिए हैं. वैसे पेन जैसे लोग भूटान में ज्यादा नहीं हैं. वैगन-आर को रेसिंग कार की तरह भगाते हुए पेन ने हमें साढ़े तीन घंटे में फुंशलिंग में हमारे होटलपहुंचा दिया. भूटान में यह हमारी आखिरी शाम थी और हम इसे होटल में बैठे-बैठे गुजारना नहीं चाहते थे. लिहाजा चेक इन किया और लिफ्ट पकड़कर झट से नीचे आ गए. लेकिन इंद्रदेवता को यह मंजूर नहीं था, बारिश इतनी तेज की इंग्लिश का मुहावरा याद आ गया ‘रेनिंग कैट्स एंड डॉग्स’. कहीं जा नहीं सकते थे, तो नीचे के बाजार में लिकर शॉप में ही चले गए. यदि आप पीने के शौकीन हैं तो बीयर के साथ ही भूटानी ब्रीजर और फेमस K5 व्हिस्की का भी आनंद ले सकते हैं. खैर, कुछ देर बाद हम वापस होटल में आ गए, क्योंकि बारिश के रुकने के कोई आसार नहीं थे. अगली सुबह टैक्सी हमें लेने आई और फुंशलिंग के गेट से बाहर निकलते ही गाड़ी गड्ढ़े में हिचकोले खाने लगी, हर तरफ भीड़, ट्रैफिक जाम, अनियंत्रित ड्राइवर और कान फाड़ने वाले हॉर्न. यानी हम भारत में पहुंच चुके थे. इसी के साथ हमारी सुखद भूटान यात्रा का अंत हो गया. बाग डोगरा से हमने दिल्ली की फ्लाइट ली और भागदौड़ भरी जिंदगी में वापस लौट गए.

भारतीय पूरी तरह सुरक्षित
भूटान की सबसे अच्छी बात यह है कि आपको अपनी सुरक्षा के लिए ज्यादा परेशान होनी की जरूरत नहीं है. पर्यटक खासकर भारतीय यहां पूरी तरह सुरक्षित हैं. स्थानीय लोगों को इस बात का खौफ रहता है कि अगर भारतीयों के साथ कुछ हुआ, तो उसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ेगा. वैसे अपने सुरक्षित होने का अहसास हमें भूटान में कई बार हुआ. इस गलतफहमी के चलते कि भूटान में 500 से ऊपर के भारतीय नोट नहीं चलते, हम सारा पैसा 100 के नोट में ले गए थे, अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि 1000 रुपए की गड्डी कितनी मोटी होगी. ऐसे में हम पैसा वॉलेट में रखने के बजाये पॉकेट में रखते और जहां कहीं भी भुगतान करना होता पूरी गड्डी निकालते. लेकिन हमने किसी को भी हमें या हमारे पैसों को घूरते नहीं देखा, यहां तक कि सुनसान गली में खड़े युवाओं के समूह से भी हमें किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई.

ध्यान रखने योग्य बात
एक बात जो मैं आपको बताना चाहूंगा कि कैश ज्यादा लेकर चलें, क्योंकि पहले तो भूटान के छोटे शहरों में आपको एटीएम मुश्किल से मिलेंगे और मिल भी गए तो आपका बैंक प्रति ट्रांजेक्शन अच्छा खासा शुल्क काट लेगा. इसके अलावा, अधिकांश होटल, शॉप्स कैश में लेनदेन को ही तवज्जो देते हैं. लिहाजा परेशानी से बचने के लिए आप पर्याप्त कैश लेकर चलें, भूटान में भारत के सभी नोट चलते हैं. वैसे, यदि आप फुंशलिंग में हैं और कैश की किल्लत हो गई है तो आप आसानी से टहलते हुए जयगांव आ सकते हैं और यहां के किसी एटीएम से पैसा निकाल सकते हैं. चूंकि यह भारत के वेस्ट बंगाल में आता है, इसलिए कोई ट्रांजेक्शन शुल्क नहीं लगेगा.

(डिस्क्लेमर: लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.)

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