बंगाली आंटी नहीं रहीं! उनका नाम हमें नहीं पता, उन्हें सब प्‍यार से इसी नाम से पुकारते थे. जब यह खबर मिली, उनको ‘गए’ हुए चौबीस घंटे से अधिक हो गए थे. यह खबर हमें देर से मिलने के अनेक कारण थे. अब हम उस कॉलोनी में नहीं रहते. अंकल-आंटी दोनों के लिए मोबाइल रखना, उसे संभालना संभव नहीं. इसलिए, हमें केवल यह पता था कि वह इस समय बेंगलुरू में हैं.


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जब वह अपनी बेटी के पास बेंगलुरू जाने वाली थीं, तो हम उनसे मिलने गए. उन्‍हें हमारे बच्‍चों से बड़ा लाड़, पत्‍नी से अनुराग था. लेकिन वह विश्राम कर रहीं थीं, इसलिए हमें उनसे मिले बिना ही लौटना पड़ा.


यह ‘डियर जिंदगी’ बंगाली आंटी की स्मृति में नहीं है. उनके प्रति उनकी इकलौती बेटी के व्‍यवहार, उनकी समझ से परे सोच के बारे में भी नहीं है. यह है, उन पड़ोसियों के लिए जो संवेदना की सूखती नदी, नीरस रिश्‍तों और खुद के फ्लैट तक सि‍मटती चिंता के बीच एक ऐसी दुनिया के सूत्रधार हैं, जिसमें सबके लिए आशा, सुख, सरोकार है!


डियर जिंदगी: बच्‍चों को रास्‍ता नहीं , पगडंडी बनाने में मदद करें!


यह ‘डियर जिंदगी’ इसलिए है, जिससे मनुष्‍यता का स्‍वाद कड़वी याद के बीच कसैला न हो जाए. ‘एक-दूसरे का साथ’ जैसी बातें केवल किताबों में कैद न रह जाएं. हमें याद रहे कि आत्‍मीयता, स्‍नेह हम सबकी जरूरत है. यह जिक्र जुबान पर कायम रहे, इसलिए अच्‍छी चीजों का जिक्र बार-बार करना चाहिए.


आशुतोष पंत, अनिल जांगिड़, अशोक जांगड़ा और सीमा पंत, पूजा, कविता आंटी के निकटतम पड़ोसी रहे. इन्‍होंने आंटी की देखभाल, अस्‍पताल लाने-ले जाने, डॉक्‍टर से नियमित संपर्क बनाए रखने जैसी जिम्‍मेदारी आत्‍मीयता, स्‍नेह और दायित्‍व के सहजबोध से निभाई.


पड़ोसी से अधिक यह तीन परि‍वार आंटी के स्‍व-घोषित ‘संरक्षक’ थे. जिनने स्‍वयं एक बुजुर्ग दंपति की सेवा का भार एक साल से अधिक समय से अपने ऊपर ले रखा था.


डियर जिंदगी: ‘गंभीर’ परवरिश !


आंटी की इकलौती बेटी बेंगलुरू में रहती हैं. आर्थि‍क रूप से संपन्‍न हैं. आंटी के इंदिरापुरम में दो फ़्लैट की वही वारिस हैं. इसके बाद भी मां से ऐसी बेरुखी मुझे अपने किसी निकट संबंधी, मित्र मंडली में देखने को नहीं मिली. जैसी आंटी की बेटी की ओर से मिली.


इस दौरान जब भी उनकी बेटी को फोन किया गया, उन्‍होंने हमेशा बेरुखी, गहरी उदासी का परिचय दिया. अस्‍सी बरस से अधिक की मां के प्रति एक सक्षम बिटिया का यह रवैया हर किसी को परेशान करने वाला है.


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आंटी की बिटिया को जब पड़ोसियों ने उनकी सेहत के बारे में बताया तो उन्‍होंने कहा, इसमें कोई बड़ी बात नहीं, वहीं उनकी देखभाल कीजिए. जब एयरपोर्ट पर रवाना करने के बाद हालचाल के लिए संपर्क किया गया, तो उन्‍होंने कहा, ‘उनकी तबियत इतनी खराब नहीं थी कि आपने उन्‍हें यहां भेज दिया! वहां भी उन्‍हें आसानी से रखा जा सकता था.’


हमारे आसपास बहुत से लोग हैं, जिनमें मैं भी एक हूं, जो कहते हैं कि बेटि‍यां बेटे के मुकाबले अधिक संवेदनशील, ख्‍याल रखने वाली होती हैं. मैं इस घटना को मिसाल के तौर पर नहीं रखना चाहता, लेकिन ऐसी चीजों से हमें इतना तो समझना होगा कि ख्‍याल रखने को ‘जेंडर’ से जोड़ना ठीक नहीं है!


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एक संपन्‍न, सुशि‍क्षित बेटी के मां के साथ मतभेद हो सकते हैं, लेकिन ऐसा कैसे संभव है कि वह मां के अंतिम समय में उसके पड़ोसियों से इसलिए नाराज हो जाए कि बीमार मां को उसके पास भेज दिया! प्रेम, स्‍नेह और ख्‍याल रखने की चर्चा के बीच यह समझना जरूरी है कि हम जिन बच्‍चों के लिए पागल हुए जा रहे हैं कि उनको हम सिखा क्‍या रहे हैं! वह क्‍या सीख रहे हैं, इससे अधिक जरूरी है कि वह कैसे मनुष्‍य बन रहे हैं. उनके मन में हमारे लिए क्‍या ‘पक’ रहा है. हम उनकी कोमल भावनाओं को कैसे संभाल रहे हैं, इस बारे में बहुत गंभीरता से सोचने की जरूरत है.


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