बच्‍चे के स्‍कूल की ओर बढ़ते ही हम उसकी ओर बाढ़ के पानी की तरह भविष्‍य के सपने लिए दौड़ने लगते हैं. जब तक उसका मन, अवचेतन सपने बुने, हम उसकी ओर अपने बुने सपने उछाल चुके होते हैं. आहिस्‍ता-आहिस्‍ता वह हमारे दिखाए सपनों पर अपनी इमारत बनाने की कोशिश में हकलाने लगता है.


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हम उसकी हकलाहट को लाड़ करते हुए उसे समझने की जगह जुटे रहने को प्रेरित करते रहते हैं. बड़ा होकर एक दिन जब वह हमसे यह कहने की हिम्‍मत करता है कि उसका दिल इस दुनिया, आपके दिए काम में नहीं लगता. तब तक अक्‍सर बहुत देर हो जाती है.


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ऐसी खबरें अक्‍सर भेष बदलकर सामने आती हैं. उन पर इतनी तरह के रंग होते हैं कि हम समझ नहीं पाते कि इसे भला क्‍या दर्द रहा होगा! जिसने इतनी खुशहाल जिंदगी को इस तरह से अलविदा कह दिया. अरे! उसने यह क्‍या किया. हम ताउम्र इस पर बात करेंगे, लेकिन उसके इस कदम से पहले उसे हमने कितना स्‍नेह, समय दिया. इस पर कभी बात नहीं होती.


अब तो ऐसा लगता है कि मानो जिंदगी का साथ छोड़ने की होड़ में युवा, किशोर, दंपति एक-दूसरे से ही मुकाबला कर रहे हैं.


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हम मन के प्रश्‍नों की ओर से निरंतर अपना मुंह फेर लेते हैं. यही वजह है कि हमारा अपनों से ही संवाद हर दिन कम होता जा रहा है. हमें उनके लिए संवाद के द्वार खोलने ही होंगे, जिनके जिम्‍मे हमारी खुशियों का बांध बना है.


दूसरे का दुख जानने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं. बस अपने अंतर्मन की खिड़कियों से वक्‍त की धूल हटानी होती है. भीतर के अहंकार/ ईगो को किसी अलमारी में रखकर सिटकनी लगानी होगी. अगर आप किसी से सच्‍चा प्रेम करते हैं, तो मन के द्वार को खोलते ही आप सामने वाले के हृदय में प्रवेश कर उसकी बातें जान जाएंगे. हां, इसके लिए आपके दिल में इतनी जगह होनी चाहिए कि दूसरे का प्रेम वहां थोड़ी देर ही सही पर ठहर सके.


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सहज भावना का विस्‍तार कीजिए. बुद्धि की जगह भावना के भाव को पकड़िए. जीवन सुखमय होता जाएगा.


प्रेम, स्‍नेह के रास्‍ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारा भेड़ होते जाना भी है. हम दूसरे को कॉपी करने के चक्‍कर में अपने भीतर भेड़ की आत्‍मा विकसित करते जा रहे हैं.


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बाज़ार की सबसे बड़ी विशेषता होती है, वह सबको अपने रंग में रंग लेता है. बाजार हमारी जरूरत है, लेकिन वहां से गुजरते रहने का अर्थ यह नहीं कि आपका हृदय, चेतना हमेशा खरीदारी में ही जुटी रहे.


बाजार के प्रभाव में हमारी संवेदना, भावना निरंतर शुष्‍क, खुरदरी और बंजर होती जा रही है. 
मैं एक छोटी सी कहानी से अपनी बात खत्‍म करूंगा.


‘एक कमरे में दस भेड़ हैं. खिड़की से पांच कूदकर बाहर चली गईं. अब कमरे में कितनी बचीं.’


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शिक्षक ने बच्‍चों से पूछा. जवाब में कई बच्‍चों ने हाथ उठाए. एक छोटा बच्‍चा जो अक्‍सर चुप रहता था. उसने पहली बार हाथ उठाया. गुरुजी ने उत्‍साह से कहा, 'अरे, वाह! तुमने पहली बार हाथ उठाया. तुम्‍हीं बताओ.'


उसने कहा, ‘कमरे में एक भी भेड़ नहीं बचीं!’


शिक्षक ने डांटते हुए कहा, ‘क्‍या कहते हो, इतना भी नहीं जानते कि दस में पांच जाने पर कितने बचे.’


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बच्‍चे ने कहा, ‘मुझे गिनती नहीं आती. लेकिन मेरे घर में खूब सारी भेड़ हैं. इसलिए मैं भेड़ों को समझता हूं, जानता हूं. वह बुद्धि का उपयोग नहीं करतीं. बस एक-दूसरे के पीछे चलती हैं.’


छोटे बच्‍चे ने जो समझ लिया, हम बूढ़े होकर भी नहीं समझ पाते. पूरी उम्र बिता देते हैं, यह बताने और जानने में कि कमरे में कितनी 'भेड़' बचेंगी!


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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