बच्‍चों का मुश्किल समय आ गया है. फरवरी से देशभर में बच्‍चों की बोर्ड परीक्षा शुरू हो रही है. यह एक ऐसी चुनौती है कि जिसका सामना करने के लिए बच्‍चों को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता. अभिभावक अक्‍सर परीक्षा का जिक्र आते ही उसे अपने दिनों के दवाब से जोड़ लेते हैं. हम इस तरह की बातें सुनते आए हैं कि अच्‍छे नंबर के बिना भविष्‍य की कोई गारंटी नहीं. गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में अच्‍छे नंबर इकलौता सहारा हैं. हम बच्‍चों से अच्‍छे प्रदर्शन की अपेक्षा रखें, इसमें कुछ भी गलत नहीं. केवल यह ध्‍यान रहे कि बच्‍चे अपना सर्वोत्‍तम देने के बाद भी अगर ‘अच्‍छे’ नंबर नहीं ला पाते, तो हमें उनका साथ ऐसे देना है, मानो यह हमारी परीक्षा थी!


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यह कुछ ऐसा है, जैसे घर की कोई कीमती चीज़ पापा से टूटने पर यह कहा जाता है कि ‘हो’ गया, इसमें उनकी गलती नहीं थी. लेकिन अगर यही काम बच्‍चे कर दें तो उनकी कुटाई में हर कोई हाथ साफ कर सकता है.


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क्‍योंकि बच्‍चे छोटे हैं. हम पर‍ निर्भर हैं. उनकी अपनी कोई स्‍वतंत्र सत्‍ता नहीं. इसलिए यह हम उन पर कोई भी आचरण थोपने के लिए स्‍वतंत्र हैं. यह एक किस्‍म की बीमारी है. एक ऐसा विचार हमारे ‘डीएनए’ में पनप गया है, जहां बच्‍चों को हमने नागरिक मानने से लगभग इंकार कर दिया है. हम जानलेवा परीक्षा के मौसम में उन्‍हें ऐसी मानसिक स्‍थि‍ति में अकेला छोड़ देते हैं, जहां वह कोई भी ऐसा कदम उठा सकते हैं, जिसके बाद हमारे पास केवल ‘प्राश्‍यश्चित के आंसू’ ही बचते हैं.


मैं केवल आपसे इतना चाहता हूं कि ‘बच्‍चों को यह हमेशा समझाइए कि आप सफलता में उनके साथ हैं, लेकिन अगर वह असफल हुए तो भी आप उनके साथ दो सौ प्रतिशत होंगे! मैं हर हाल में तुम्‍हारे साथ हूं. यह भरोसा जितना गहरा होगा, परीक्षा बच्‍चों को उतना कम नुकसान पहुंचाएगी.’


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आपने जवाहर नवोदय विद्यालय (जेएनवी) के बारे में सुना होगा. देशभर में उनकी प्रतिष्‍ठा रही है. यहां बच्‍चों के लिए के लिए ऐसा वातावरण था, जिसमें उन्‍हें हर चुनौती के लिए तैयार किया जाता था. अब यहां से परेशान करने वाली खबर यह आ रही है कि 2013 से लेकर 2017 के बीच जेएनवी में 49 बच्‍चों ने आत्‍महत्‍या कर ली. इनमें से आधे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और आदिवासी बच्‍चे थे. राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर केंद्रीय मानव संसाधन विभाग से जवाब मांगा है!


जब तक पूरी जानकारी सामने नहीं आती, इस बारे में कुछ कहना जल्‍दबाजी होगी. लेकिन इतना आसानी से समझा जा सकता है कि अच्‍छे रिजल्‍ट का दवाब सरकारी स्‍कूल, संस्‍थानों पर भी इतना अधिक बढ़ा दिया गया है कि वह बच्‍चे की असफलता को सहन नहीं कर पाते. उसका साथ नहीं दे पा रहे. 


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परीक्षा में नंबर के गणित में दुनिया के एक से एक धुरंधर असफल रहे. दुनिया को रहने, जीने और प्रेम करने लायक बनाने वाले असल में वही रहे, जो जिनके नंबर कम रहे. जो सफल हुए उनने तो ऐसा रास्‍ता चुना, जिसमें उनके अलावा दूसरे के लिए ‘जगह’ ही नहीं थी.


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बच्‍चे केवल स्‍कूल में ही असफल होते हैं! स्‍कूल के सहारे बच्‍चों को मत छोडि़ए. उनका जीवन संवारने की जिम्‍मेदारी हमारी है, स्‍कूल की नहीं. बच्‍चा आपका है, स्‍कूल का नहीं. इसे बहुत अच्‍छी तरह समझना होगा.


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