डियर ज़िंदगी: 'रुकना' कहां है!
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डियर ज़िंदगी: 'रुकना' कहां है!

जो हमें पसंद है वह कहां छूट गया! उन चीजों के लिए हमारे पास समय नहीं है, जिनसे हमें ऊर्जा मिलती है. जो हमारे होने का मूल आधार हैं.

डियर ज़िंदगी: 'रुकना' कहां है!

हम कैसे दिखते हैं, कैसे लग रहे हैं, कैसा हमें होना चाहिए. इन सब चीजों पर अक्सर हमारा ध्यान जाता ही है. कुछ समय पहले भारत में किया गया सामाजिक अध्ययन बताता है कि भारतीयों में यह भावना बहुत तेजी से बढ़ रही है. हम अपनी मूल जरूरत से आगे बढ़ते ही खुद को जरूरतों के ऐसे बाजार में पाते हैं, जिसे बहुत चतुराई से रचा जा रहा है. बाजार हमारे मन में अपने मुनाफे की अमरबेल फैलाता रहता है. एक ऐसी स्थिति जहां मनुष्य की सभी मूल जरूरतें पूरी हो जाती हैं उसके आगे वह ऐसी चीजों की ओर बढ़ता है जो उसे धीरे-धीरे बाजार की ओर से प्रेषित की जाती हैं.

महत्वाकांक्षा एक जरूरी चीज है, हमारे आगे बढ़ने के लिए. लेकिन कितने आगे बढ़ने के लिए, मेरी जरूरतों के पंख कितने और कहां तक होने चाहिए, मुझे कहां तक जाना है, यह बुनियादी सवाल है! कम से कम इस समय भारी उपेक्षा हम सब देख रहे हैं.

मधुर भंडारकर की फिल्म 'कॉर्पोरेट' मुझे बहुत पसंद है. फिल्म जीवन की ऐसी सच्चाइयों की ओर संकेत करती है, जिनको हसरतों की ओट में हम देख नहीं सकते, देखकर भी अनदेखा करते जाते हैं.

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इसके अंतिम कुछ दृश्यों में कमाल का जीवन दर्शन है. नायिका बिपाशा बसु जेल में है. उसके शुभचिंतक उसका साथ छोड़ देते हैं या मार दिए जाते हैं, इस बीच उसका एक पूर्व साथी जिसे कभी बिपाशा ने आगे बढ़ने की होड़ में बहुत पीछे धकेल दिया था, मिलने आता है. वह जितनी साफगोई, सरलता, तटस्थता से अपनी बात कहता है, वह बहुत ही कम फिल्मों में हमें देखने को मिलता है.

वह बिपाशा से जो कुछ कहता है, उसका सारांश यह है कि हमें पता होना चाहिए कि हमें रुकना कहां है! खासकर तब, जब कंपनी हमें खूब दौड़ा रही हो. और हम मजे में दौड़ रहे हों. उस मोड़ पर जहां हम नैतिक और अनैतिक का भेद भूल जाते हैं, उस मोड़ पर जहां सबकुछ सही लगने लगता है, जरूर रुकना चाहिए और सोचना चाहिए कि मैं किसके लिए और क्या कर रहा हूं!

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हमारा पूरा ध्यान सपनों के पीछे भागने, कहीं पीछे नहीं रह जाने पर लगा हुआ है. इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं, क्योंकि बचपन से हमें यही सिखाया गया! जब बबूल बोया ही गया है तो हम आम होने की ख्वाहिश कैसे रख सकते हैं!

समस्या यहीं से शुरू होती है कि हमारा ध्यान सपनों के पीछे लगते हुए कभी भी उस ओर नहीं जाता है, जहां से हमें शक्ति मिलती है. हम पागलों की तरह दौड़ रहे हैं, हमारा ध्यान मन की ओर से बिल्कुल विमुख हो गया है. उसे क्या अच्छा लगता है, कहां उसे सुकून मिलता है, कहां जाकर उसे अपने लिए ऊर्जा मिलती है, इस ओर से हम एकदम अंजान बने रहते हैं.

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हममें से किसी को संगीत पसंद है, किसी को सिनेमा, किताबें पसंद हैं. किसी को यात्रा, चित्रकारी पसंद है. किसी को गप्प पसंद है.

अब जरा यह सोचिए कि यह सब जो हमें पसंद है, वह कहां छूट गया. उन चीजों के लिए हमारे पास समय नहीं है, जिनसे हमें ऊर्जा मिलती है. जो हमारे होने का मूल आधार हैं!

थोड़ा ठहरना होगा, सोचना होगा कि कहीं सपने हमारी 'ऊर्जा' को तो नहीं पीछे छोड़ रहे हैं, जिससे मैं खुद प्रेम करता था.

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कहीं भी किसी के लिए भी किसी भी पेशे में काम करते हुए यह सोचना, निरंतर सोचते रहना बहुत जरूरी है कि मुझे क्या नहीं करना है. कहां जाकर मुझे मना करना है!

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