बच्‍चों के साथ अभिभावकों की भी परीक्षा शुरू हो चुकी है. बहुत सुलझे, शांत और सौम्‍य माता-पिता भी इन दिनों कई बार अच्‍छे नंबर की तलाश में भटकने लगते हैं. माता-पिता के बीच भी बच्‍चों के नंबर के कारण कई बार बहस से होते हुए नाराजगी तक की स्‍थिति सामने आने लगती है. कहीं मां धीरज के साथ बच्‍चे का साथ देती हैं तो पिता नंबर के पीछे दौड़ने के लिए जोर लगा रहे हैं. तो कहीं ऐसा दिख रहा है कि पिता बच्‍चे को संभाल रहे हैं, लेकिन मां का जोर नंबर के पीछे जरूरत से कहीं ज्‍यादा है.


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‘डियर जिंदगी’ के एक छोटे संवाद सत्र में कुछ दिन पहले भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के एक वैज्ञानिक से मिलना हुआ. बच्‍चों के पालन-पोषण को लेकर उनके विचार काफी हद तक सुलझे हुए हैं. उन्‍होंने बताया कि उनका बेटा दसवीं में है. जहां तक संभव हो उन्‍होंने उसके अध्‍ययन में दखल नहीं देने का नियम बनाया हुआ है. लेकिन इसकी वजह से महीने में कम से कम दो बार उन्‍हें घर पर नाराजगी का सामना करना पड़ता है.


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पत्‍नी का तर्क है कि प्रतिस्‍पर्धा इतनी ज्‍यादा है कि बच्‍चे को हर हाल में अधिक से अधिक नंबर लाना ही चाहिए! वैज्ञानिक मित्र ने कहा कि ऐसे में क्‍या किया जाए. क्‍योंकि वह एक अलग तरीके से बच्‍चे की परवरिश करना चाहते हैं, जबकि उनकी पत्‍नी का तरीका एकदम अलग है. अब जबकि बच्‍चा एक है, तो सारे तरीके उसी पर आजमाने हैं!


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उनसे संवाद के कुछ हिस्‍से साझा कर रहा हूं. परीक्षा के कठिन मौसम में बच्‍चे बहुत अधिक तनाव में हैं. हमें सजग, सतर्क और आत्‍मीयता से अपनी भू‍मिका निभाने की जरूरत है. हमारा कोई भी सपना बच्‍चों के जीवन से बड़ा नहीं!


इस बात को हमेशा याद रखि‍ए ‘बच्‍चे हमसे हैं, लेकिन हमारे लिए नहीं’. भूलकर भी मत कहिए, पेपर खराब हुए तो मुझसे बुरा कोई न होगा. परीक्षा में अच्‍छा नहीं कर पाने का योग्‍यता से कोई सीधा संबध नहीं. यह ऐसा ही है, जैसे लज़ीज खाना पकाने वाले/वाली किसी दिन अचानक खराब बना देते/देती हैं.


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बच्‍चे की क्षमता, योग्‍यता स्‍थाई चीज़ है, जबकि परीक्षा में प्रदर्शन अस्‍थाई पैमाना. जैसे क्रिकेट में कहा जाता है, ‘फॉर्म इज टेंपरेरी, क्‍लास इज़ परमानेंट’. ऐसे ही परीक्षा को आधार बनाकर बच्‍चे के बारे में भविष्‍यवाणी से बचना होगा!
  
बच्‍चे से बार-बार, हर बार कहना होगा, हम असफलता, कम/खराब नंबर आने पर भी उसके साथ खड़े रहेंगे. उसका साथ नहीं छोड़ेंगे. ‘डियर जिंदगी’ में लगभग एक बरस से हम परवरिश के लिए ‘द काइट थेरेपी’ की बात कर रहे हैं. जैसे आसमां में पतंग उड़ाते हुए हम पतंग की डोर अपने हाथ में रखते हैं, लेकिन उसे हवा की दिशा में उड़ने देते हैं. मौसम खराब होते ही उसे उतार लेते हैं. हम पतंग को उसकी मनचाही दिशा में उड़ने, विचरने देते हैं. खतरा देखकर उसे संभालते हैं. जैसे पतंगबाज़ी में हमारी भ‍ूमिका डोर थामने तक होती है, वैसी ही बच्‍चों की परवरिश में होनी चाहिए.


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बच्‍चों को यथासंभव वह साधन देने की कोशिश करिए, जो उनके लिए जरूरी हैं. लेकिन जो न दे पाएं उसके लिए मन खट्टा न हो. ठीक वैसे ही बच्‍चा जितना कर पा रहा है, उसे सरस, सहज भाव से स्‍वीकार करना होगा. उसे और अच्‍छा करने के लिए प्रेरित करने तक ही हमें स्‍वयं को सीमित करना होगा. 


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बच्‍चा अपना सर्वोत्‍तम दे सके, ऐसा वातावरण तैयार करने तक ही हमारी भूमिका है. इसे जितनी आसानी, शीघ्रता से हम समझ सकेंगे, हमारा जीवन उतना ही सुखद, सुंदर और स्‍वस्‍थ होगा. अपेक्षा से अधिक स्‍नेह! इस सूत्रवाक्‍य को कभी नहीं भूलना है.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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