मिसाल एक: ‘उसकी आवाज में गुस्‍सा था, माता-पिता के लिए. वह उसे समझ जो नहीं रहे थे. उसके बार-बार बताने के बाद भी कि लड़का इतना ‘भला’ जो है. लेकिन उसे भी लगता था कि उसका निर्णय सही है. वह अपने निर्णय के साथ रही अगले साल भर. माता-पिता को अपनी बेटी के निर्णय पर भरोसा नहीं था, लेकिन बेटी पर था.’


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मिसाल दो: ‘उसे नौकरी की सख्‍त जररूत थी, लेकिन जो मिल रही थी वह उसके मिजाज, रंगरूप के अनुसार नहीं थी. उसने मिल रही नौकरी से प्‍यार कर लिया, क्‍योंकि उसके पास ‘मन’ की नौकरी के अवसर नहीं थे. आगे चलकर नौकरी इतना ‘बड़ा’ माध्‍यम हो गई कि उसके मन के सारे अरमान पूरे हो गए.


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ऊपर जिन दो व्‍यक्तियों की बात हो रही है, उन दोनों को मैं निजी तौर पर जानता हूं. उनको मुझसे स्‍नेह है, मुझे उनसे स्‍नेह है. यह अनुभव इसलिए साझा कर रहा हूं, क्‍योंकि यह समझना बेहद जरूरी है कि जब ‘मन’ का न हो रहा हो, तो हमें संबंधों, खुद से बेहद मित्रता की जरूरत होती है. जो स्‍वयं से स्‍नेह नहीं कर सकते, जिनका खुद से संवाद नहीं, उनके दूसरों के प्रति स्‍नेह पर भरोसा करना जरा मुश्किल काम है.


लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्‍चन की इस पंक्ति का अमिताभ अक्‍सर जिक्र करते हैं, ‘मन का हो तो अच्‍छा, मन का न हो तो ज्‍यादा अच्‍छा.’ हमें उनकी अनेक फिल्‍मों के संवाद याद हैं, रटे हुए हैं, उनकी फिल्‍मों के सीन दिमाग में बसे हुए हैं, काश! यह बात भी कुछ इसी तरह दिमाग में जम जाती. रगों में दौड़ती रहती, क्‍योंकि दिमाग में चीजों के रहने भर से कुछ नहीं होता, जब तक चीजें रगों में नहीं दौड़तीं उनका असर नहीं होता.


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अब लौटते हैं, पहली मिसाल पर. जब तक उसे घर वाले समझाते रहे कि लड़का ‘भला’ नहीं है. बात उसके गले नहीं उतर रही थी. क्‍योंकि उसे अपने ‘मन’ पर भरोसा था. लेकिन एक दिन उसने महसूस किया कि लड़का उसके चाहे अनुसार ‘भला’ नहीं है.‍ उसमें वह बात नहीं जो उसके लिए लड़ सके. कुल मिलाकर उसने इस बात को समय रहते समझ लिया कि मन का ऐसा मेल नहीं, जैसा चाहा गया था.


उसने ‘डियर जिंदगी’ को लिखा, ‘लड़का असल में लोहे जैसा होना चाहिए. जो दुनिया से उसके लिए ‘लोहा’ ले सके. लड़का सोने जैसा छुईमुई नहीं होना चाहिए.' उस बहादुर स्‍त्री ने कहा है, 'मेरे घर वाले मेरे मन के अनुसार नहीं चल रहे थे, लेकिन मैं कोशिश करती रही कि उनका मुझसे मनभेद न हो जाए. निर्णय तो किसी एक का ही हो सकता है, लेकिन मन तो नहीं बंटना चाहिए.’ ऐसी खूबसूरत बात अनुभव की अंगीठी में ही पक सकती है.


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अब दूसरी मिसाल पर आते हैं. यह बात एक ऐसे युवा कलाकार की है, जिसकी आंखों में सपने तो फि‍ल्‍मकार बनने के थे. लेकिन दुनिया में फि‍ल्‍म डायरेक्‍टर की ऐसी कौन सी कमी थी कि बॉलीवुड उसके लिए बेचैन रहता. लेकिन उसे अपने सपने पर भरोसे से कहीं ज्‍यादा भरोसा था. उसने पत्रकारिता की नौकरी में फिल्‍मी सितारों से होने वाली मुलाकातों से अपने सपने के लिए ऐसी ठोस जमीन तैयार कर ली क‍ि उसे मौका देने वालों में एक होड़ सी लग गई.


मैं नाम से इसलिए परहेज करता हूं कि इससे हम चीजों से संदेश ग्रहण करने की जगह व्‍यक्ति पूजा में जुट जाते हैं. जो कि ट्रैक से भटकाने वाला होता है. हम एक ऐसे समय से गुजर रहे हैं जहां एक इंच संवेदना का सूखा पड़ा हुआ है. करियर में अवसरों की कमी है, मनचाहा काम तो दूर की बात है. 


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हम निजी और प्रोफेशनल दोनों स्‍तर पर संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे में मन के अनुसार न होने को अगर हम जीवन की आस्‍था से जोड़ सकें, भविष्‍य के अनदेखे सौंदर्य से जोड़ सकें, तो जिंदगी की कड़वी खुराकों का आसानी से सामना कर सकते हैं.  


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं) 


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