'डियर जिंदगी' को मिल रहे ई-मेल, चिट्ठी और संदेश में इन दिनों माता-पिता एक शिकायत कर रहे हैं. वह कह रहे हैं कि आप कहते हैं, बच्‍चों पर दबाव मत डालिए. उनसे प्रेम से बात कीजिए. उनका ख्‍याल रखिए. उनका जीवन खतरे में है. इससे तो वह एकदम चिंतामुक्‍त हो जाएंगे. आजकल के ज़माने में जब सब तरफ इतनी कड़ी प्रतिस्‍पर्धा है, 'कमजोर' बच्‍चा कैसे टिक पाएगा.


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आपकी प्रतिक्रिया को सलाम! लेकिन इसके साथ समस्‍या यह है कि यह पूरी तरह इमोशनल है. बच्‍चे के प्रति इमोशनल अत्‍याचार है. यह स्‍वाभाविक नहीं, बुनी हुई चिंता है. इसके लिए हमें थोड़ा पीछे जाने की जरूरत है. अतीत की ओर. अपने बचपन, परवरिश की ओर.


हम सब जब स्‍कूल में थे, तो कैसा था हमारा प्रदर्शन. टॉपर कुछ ही रहे होंगे, बहुत सारे सामान्‍य थे. लेकिन हमारे माता-पिता का व्‍यवहार हमारी तरह चिंता से भरा हुआ, बेचैन करने वाला नहीं होता था! वह बहुत हद तक विश्‍वास से भरे हुए रहते थे. उनका भरोसा अनुभव, कठिनाई से गुजरते रहने और जिंदगी के प्रति विश्‍वास से भरे होने के कारण था. उन्‍होंने अपनी जरूरतों को सुख से नहीं जोड़ा था. सुविधा और सुख, दो अलग-अलग चीजें थीं.


डियर जिंदगी: चलिए, माफ किया जाए!


इधर नए ज़माने के माता-पिता यानी हम सब जो आज तीस-चालीस के बीच हैं. बहुत हद तक भटके हुए अभिभावक हैं. हमारा यकीन न तो अपने माता-पिता के 'वैल्‍यू सिस्‍टम' में है, न ही सच्‍चे अर्थ में आधुनिक. मैं जोर देकर कहता हूं, अगर बच्‍चा पढ़ाई में इतना कमजोर है कि बड़ी मुश्किल से पास हो पाता है, तो क्‍या इससे उसके जीवन के अधिकार पर कोई असर पड़ता है. हम उसे ऐसी परिस्थिति की ओर कैसे धकेल सकते हैं, जहां उसे सांस लेने में भी दिक्‍कत का सामना करना पड़े.


कुछ दिन पहले एक वरिष्‍ठ आईपीएस अफसर से मिलना हुआ. वह बच्‍चों, युवाओं के तनाव को स्‍वीकार करने को तैयार ही नहीं थे. असल में वह हमें समय देने तक को तैयार नहीं थे. मेरे दोस्‍त मुझे उनके यहां लगभग जबरन ले गए!


डियर जिंदगी: शोर नहीं संकेत पर जोर!


उन्‍होंने बच्‍चों के तनाव को कुछ इस तरह से लिया, जैसे इसके बिना गुजारा होना संभव नहीं! उन्‍होंने कहा, प्रतिस्‍पर्धा इतनी ज्‍यादा है, आप बताइए, कैसे गुजारा होगा. यह तनाव अनिवार्य है. इससे बचना संभव नहीं.


मैंने कहा, 'आपके पास अधिक सुविधा, बैंक बैलेंस है या आपके पिताजी के पास अधिक था.' उनने कहा, 'जाहिर है, मेरे पास'. मैंने बात को आगे बढ़ाया, 'आप अधिक चिंतित रहते हैं या आपके पिता रहते थे!' उनने कहा, 'मैं ही अधिक चिंतित हूं. पिता इतने बेचैन परेशान कभी नहीं रहे, हमारी शिक्षा के लिए. उन्‍हें हम पर गहरा भरोसा था- बच्‍चा कुछ तो कर ही लेगा!'


डियर जिंदगी: विश्‍वास के भरोसे का टूटना !


मैंने अपनी बात समाप्‍त करते हुए कहा, 'आपने जो जवाब दिए, असल में उसे खुद ही भुला रहे हैं.' उन्‍होंने गर्मजोशी से हाथ बढ़ाते हुए कहा, 'कुछ गड़बड़ी तो हमारी तरफ से हो ही रही है. बैठिए कुछ देर बात करते हैं!' जबरन बातचीत से शुरू हुआ सिलसिला दो घंटे से अधिक के संवाद के साथ समाप्‍त हुआ.


अपने बच्‍चे को हम सबसे बेहतर बनाना चाहते हैं. असल में हम उसे वह बनाना चाहते हैं, जो हम कभी नहीं बन पाए! हम उसे अपनी ख्‍वाहिश पूरी करने के लिए तैयार कर रहे हैं. इस कोशिश में हर बच्‍चा कैसे सफल हो सकता है. इसलिए हमें असफल बच्‍चे के साथ खड़े होना होगा!


डियर जिंदगी: बच्‍चों से मत कहिए, मुझसे बुरा कोई न होगा!


स्‍पष्‍ट करना चाहता हूं कि मैं कड़े परिश्रम, अनुशासन का सौ प्रतिशत समर्थक हूं. लेकिन परिणाम का नहीं. मैं रिजल्‍ट के आधार पर बच्‍चे की क्षमता, योग्‍यता को मानने से स्‍पष्‍ट इंकार करता हूं. मैं केवल प्रयास की पवित्रता पर जोर देता हूं. बच्‍चों को उनका सर्वोत्‍तम देने की प्रेरणा का पक्षधर. उसके बाद परिणाम जैसा भी आए, उनके साथ खड़े होने का निवेदक.


आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!


ईमेल dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com


पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र)
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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