डियर जिंदगी: शोर नहीं संकेत पर जोर!
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डियर जिंदगी: शोर नहीं संकेत पर जोर!

हम असल में क्‍या चाहते हैं, उस तक बहुत कम पहुंच पाते हैं. अपनी मंजिलों से हम अक्‍सर दूसरों के आकर्षण में भटकते हैं!

डियर जिंदगी: शोर नहीं संकेत पर जोर!

हम किसकी बात सुनते हैं. अपनी/दूसरे/बड़े/प्रभावशाली किसकी! यह सवाल बहुत नजदीक‍ी मोड़ लिए हुए है. हम किसकी सुनते हैं, यह सटीक बता पाना संभव नहीं, क्‍योंकि हमारी इच्‍छा के नीचे दूसरों की अनगिनत ख्‍वाहिशों की परत होती है. हम क्‍या चाहते हैं, इसकी पहचान इसलिए भी सरल नहीं है, क्‍योंकि ख्‍वाहिशों के पीछे थोपी हुई चाहतों की लंबी सूची होती है. समाज की थोपी अपेक्षा का भाव हमारे अंतर्मन पर इतना गहरा होता है कि हम असल में क्‍या चाहते हैं, उस तक बहुत कम पहुंच पाते हैं. अपनी मंजिलों से हम अक्‍सर दूसरों के आकर्षण में भटकते हैं!

हर चीज़ की एक सीमा है. हम धन पर उसकी हैसियत से अधिक जोर देने वाले समाज की ओर बढ़ रहे हैं. हम सब कुछ आर्थिक नजरिए से सोचने के इतने अभ्‍यस्‍त होते जा रहे हैं कि हम अपने से ही बहुत दूर होते जा रहे हैं. अपने सपने तक हम कैसे आसानी से पहुंचें! ‘डियर जिंदगी’ के जीवन संवाद में अक्‍सर युवाओं के इस सवाल से सामना होता है. इस सवाल तक पहुंचने का एक सरल सूत्र है, आप क्‍या चाहते हैं! यह नहीं कि आपकी जरूरत क्‍या है. आपके अभिभावक क्‍या चाहते हैं.

डियर जिंदगी: विश्‍वास के भरोसे का टूटना !

सपनों को बुनते समय हम कामयाबी को इतना अधिक महत्‍व देते हैं कि उसके फेर में अपनी चाहत से भटक जाते हैं. हम उसे चुनते हैं, जिसमें कामयाबी की संभावना अधिक है, या उसे जिसे हम चाहते हैं. यह दोनों एकदम अलग चीज़ें हैं.

अभिभावक बच्‍चों को दिशा बताते समय सबसे बड़ी गलती यही करते हैं कि वह ट्रेंड पर जरूरत से अधिक जोर देते हैं. वह नया करने, साहस दिखाने और संयम रखने की जगह ऐसी चीज़ों के पीछे बच्‍चों को दौड़ाने लगते हैं जो उस समय ट्रेंड में होती हैं. जो माता-पिता ट्रेंड से दूर रहते हैं अक्‍सर वह बच्‍चों में अपने सपने खोजने शुरू कर देते हैं.

डियर जिंदगी: बच्‍चों से मत कहिए, मुझसे बुरा कोई न होगा!

ईशा नायक के पिता शिक्षक हैं. वैज्ञानिक बनना चाहते थे. नहीं बन पाए. अब चाहते हैं कि इकलौती बेटी नासा जाए, परिवार का नाम रोशन करे. पहली नज़र में इसमें आपको सब ठीक लगेगा. लेकिन थोड़ा गहराई से सोचिए. ईशा के पिता वैज्ञानिक बनना चाहते थे, ईशा नहीं. ईशा का सपना वह है, जो ईशा बनना चाहती है. वह नहीं जो उसके पिता बनना चाहते थे.

ईशा और उनके पिता के सपने का अंतर असल में पूरे भारतीय समाज का अंतर है. यही मन, जीवन में बढ़ते तनाव और कुंठा का कारण भी है. बच्‍चे कब माता-पिता के दबाव में अपने सपने छोड़ उनके पूरे करने में जुट जाते हैं, खुद वह भी नहीं जानते!

आमिर खान की बच्‍चों, युवा सपनों पर दो फिल्‍में हैं. दोनों एक-दूसरे की विरोधाभासी हैं. जीवन के अर्थ में. समाज को कुछ देने के अर्थ में.

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‘थ्री इडियट’ और 'दंगल'. ‘थ्री इडियट’ बताती है कि सपनों तक पहुंचने के लिए अपने को जानना बहुत जरूरी है. अपनी पसंद के अनुसार करियर चुनना चाहिए. दूसरी ओर 'दंगल' बताती है कि पिता का चुनाव ही सही है. पिता अपने सपनों के लिए बच्‍चों को बतौर ‘टूल’ (उपकरण) चुनते हैं. उन्‍हें अपने सपनों को पूरा करने के लिए ट्रेनिंग देते हैं, पूरी शक्ति लगा देते हैं.

उदाहरण भले ही सिनेमा से हो, लेकिन इसका जीवन पर गहरा असर होता है. हम कह सकते हैं कि ‘थ्री इडियट’ ने बच्‍चों, युवा मन को जो रोशनी बख्‍शी थी, 'दंगल' उसकी बंद गली है!

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परीक्षा के ऐलान के साथ ही अब रिजल्‍ट और अपेक्षा का ऐसा समय शुरू होने जा रहा है, जहां सपने बुनने का काम बहुत सजगता से करने की जरूरत है. हम बस इतनी कोशिश करें कि हर बच्‍चा अपने सपने की ओर पूरी क्षमता से आगे बढ़े, न कि उस सपने की ओर जो उसके मन, हृदय और आत्‍मा में दूसरों की ओर से झोंका गया है!

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याद रहे, बच्‍चों को ट्रेंड की ओर नहीं धकेलना है. बल्कि उस ओर जाने में मदद करना है, जहां वह बिना किसी डर और अपेक्षा के जाना चाहता हो! हमें बच्‍चे को कामयाबी के शोर की ओर नहीं धकेलना है बल्कि उसे मन, शक्ति और क्षमता के संकेत को जितना संभव हो समझने की कोशिश करनी है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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