महानगर के साथ देश के बड़े शहर जिस एक सामान्‍य समस्‍या से सबसे अधिक जूझ रहे हैं, उसका नाम ‘अकेलापन’ है. यह अकेलापन बेतरतीब, शहरीकरण, बेरोजगारी और रिश्‍तों में हमेशा कुछ खोजने की लालसा से उपजा है. हम दूसरे में हमेशा कुछ खोजते रहते हैं. कुछ पाने की हसरत में हम भूल जाते हैं कि पेड़ में फल आने के पहले उसे कितने धैर्य, प्रेम, आत्‍मीयता से बड़ा किया गया है. हमने अपने चित्‍त, स्‍वभाव से सुकून, शांति, सद्भाव को बड़ी कठोरता से बाहर का रास्‍ता दिखा दिया है. 


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यह अकेलापन दो तरह का है.  


पहला, जिसमें लगता है आपके साथ कोई नहीं. साथ रहते हुए भी कुछ कसक बाकी है. रिश्‍ते में रूखापन, स्‍पंदन, स्‍नेह के साथ स्‍पर्श की कमी मन को अकेला, उदास बनाती जाती है. जो खुद को बहुत अधिक महत्‍वपूर्ण मानते हैं, हमेशा एक किस्‍म के जुनूनी ‘मोड’ में रहते हैं, अपने आज से असंतुष्‍ट, कल की चिंता में घुले रहते हैं. अपने भीतर अकेलापन बुनते चले जाते हैं.  


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दूसरा अकेलापन एकदम ‘भीतरी’ है. यह अधिक खतरनाक है, क्‍योंकि यह हमारे भीतर दोगुनी क्षमता से एकाकी भाव विकसित कर रहा है. कुछ समय पहले आई फिल्‍म ‘रमन राघव’ याद है! 


इसमें पुलिस इंस्‍पेक्‍टर जो इसका मुख्‍य किरदार भी है, पहले से कहीं अधिक दूसरे किस्‍म के अकेलेपन से जूझ रहा है. ‍विक्‍की कौशल ने यह भूमिका अविश्‍वसनीय तरीके से निभाई है. 


रूखा बचपन, घरेलू हिंसा, बच्‍चे के साथ सहज व्‍यवहार की कमी उसे इस कदर अकेला कर देती हैं कि उसका मन रात-दिन का अंतर भूल जाता है. उसके भीतर कोमलता का ‘क’ नहीं बचता. उसकी रगों में हिंसा, खून, हवस दौड़ने लगती है.


विक्‍की कौशल का किरदार इसमें हत्‍यारे की भूमिका निभाने वाले नवाजुद्दीन जितना ही खतरनाक है. दर्शक का मन, चेतना नवाजुद्दीन में उलझे रहते हैं, जबकि असली हत्‍यारा तो विक्‍की है.  


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आप इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि पहले वाले अकेलेपन से नवाज का किरदार उपजा है, तो दूसरे वाले अकेलेपन से विक्‍की कौशल का किरदार शक्ति पाता है. 


इनसे बाहर निकलने का रास्‍ता खोजना ही बचाव का इकलौता उपाय है. मानसिक बीमारी को जैसे-जैसे हम सामान्‍य मानते जाएंगे, हम उसको ठीक करने की दिशा में बढ़ते जाएंगे. अभी तो हालत यह है कि अगर आप किसी को सलाह दें कि उसे मनोचिकित्‍सक की जरूरत है तो वह, उसके घरवाले आप पर टूट पड़ेंगे. आप मेरे बेटा\बेटी को पागल समझ रहे हैं! आपकी हिम्‍मत कैसे हुई! 


हम मानसिक बीमारी को जब तक ‘असामान्‍य’ मानते रहेंगे, उसका इलाज नहीं कर पाएंगे. पहले इसको असामान्‍य से सामान्‍य मानना शुरू करना होगा. असामान्‍य व्‍यवहार से हम चीजों को सामान्‍य नहीं कर सकते!  


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अमेरिका के वॉशिंगटन में डॉक्‍टर रॉबर्ट जार मानसिक बीमारियों पर एक अनूठा प्रयोग कर रहे हैं. वह कहते हैं, मैं यह दावा तो नहीं करता कि कुदरत स्‍वयं ही बीमारियों को ठीक कर सकती है, लेकिन इतना तय है कि अगर उसकी सही तरीके से मदद ली जाए तो डिप्रेशन, निराशा से आसानी से बाहर निकला जा सकता है. 


रॉबर्ट बताते हैं कि पेड़-पौधों, प्रकृति के पास समय गुजारने से स्ट्रेस हार्मोन (कॉर्टिसोल हार्मोन) का स्‍तर घटता है. ब्‍लड प्रेशर घटता है. दिल की धकड़न नियंत्रित होती है. हरियाली के बीच समय बिताने से मिजाज (मूड) सुधरता है. अवसाद, चिंता, जिंदगी बेकार होने की भावना से मुक्ति मिलने की संभावाना कई गुना बढ़ जाती है. 


इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायरनमेंटल पब्‍लिक हेल्‍थ, 2017 में प्रकाशित रिपोर्ट में भी इन निष्‍कर्षों की पुष्टि की गई थी. यह रिपोर्ट मनुष्‍य, प्रकृति के 64 अध्‍ययनों के विश्‍लेषण पर आधारित है. 


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इनके प्रयोग, निष्‍कर्ष में यह भी जोड़ लीजिए कि प्रकृति के सौंदर्य के बीच रहने से शरीर में अलग-अलग कारण से आई सूजन, उत्‍तेजना घटती है. इसके साथ ही ऊंचे, घने पर्वत, हरियाली के बीच मन में उदारता, दूसरों की सहायता की भावना भी सरलता से विकसित होती है. 


तो आइए, सबसे पहले आसपास हमें जो भी मानसिक रूप से अस्‍वस्‍थ‍ दिखे, उन्‍हें सामान्‍य तरीके से लेने, उनके इलाज में मदद करने के साथ उन्‍हें प्रकृति से जोड़ने की शुरुआत करें. 


प्रकृति की ओर जाना, उससे मित्रता करना छोटी, लेकिन मनुष्‍य, मनुष्‍यता को बचाने की जरूरी पहल है! 


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