डियर जिंदगी: हम कैसे बदलेंगे!
परंपरा, ‘ऐसा होता आया है’ के आधार पर जब तक हम चीज़ों को बुनते रहेंगे, वह अपने होने के अर्थ तक नहीं पहुंच सकतीं.
क्या आप महसूस करते हैं, पहले के मुकाबले जिंदगी मुश्किल हो गई है. पहले सब कुछ थोड़ा आसान था. मुकाबला कम था. इंसानियत अधिक थी. प्रेम, स्नेह ज्यादा था. पहले का समय कुछ और था, अब समय कुछ और! असल में यह कुछ और नहीं, बस ख्यालीपुलाव है. समय हमेशा एक जैसा रहता है, वह कभी नहीं बदलता. वह तो सब बदलने का हिसाब रखने वाला एक सख्त गवाह है. एक ईमानदार, अच्छा, सुलझा हुआ चार्टर्ड अकाउंटेंट!
इस बात को ऐसे समझिए कि एक पुराना सिनेमा हॉल था. जो टूटकर नया मल्टीप्लेक्स बन गया. उसका रूप बदला, चरित्र और मूलधर्म वही रहा. हां, उसने अपने व्यवसाय की जरूरत के हिसाब से खुद में कुछ नई चीज़ें जोड़ लीं. दर्शक वही हैं. दर्शक नहीं बदला. कहा जाता है कि दर्शक बदला. हम कहते हैं कि उसके केवल कपड़े बदले. उसका मूल चरित्र वही है. हम कपड़ों, सुविधा के बदलने को आसानी से बदलना कहने लगते हैं. जो असल में परिवर्तन नहीं बल्कि आदत में बदलाव है.
हमारी मूल सोच नहीं बदल रही, वह बस मौसम के हिसाब से कपड़े बदल रही है, इसलिए हम नहीं बदल रहे. जऱा ध्यान दीजिए, पुराने ज़माने में हमारी फिल्मों का खलनायक, सबसे खराब व्यक्ति वह था, जो ब्याज पर पैसे देता था. वह समय की दुहाई नहीं मानता था, उसे अपना पैसा वापस चाहिए होता था.
अब उतने ही कठोर क्रेडिट कार्ड आ गए. बैंक के नियम कानून आ गए. विषमता वैसी ही है. क्रूरता वैसी ही है, बस उसके रूप बदल गए. हमारी सोच जीवन, मनुष्यता के बारे में बहुत अधिक बदलती नजर नहीं आती.
डियर जिंदगी: दोनों का सही होना!
बच्चे अपेक्षा के बोझ तले पहले भी दबे थे, अब और अधिक दबते जा रहे हैं. यहां यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि हम अध्ययन, कठोर परिश्रम से बचने की बात नहीं कर रहे हैं. हम केवल जिस एक चीज़ से सहमत नहीं हैं, वह है बच्चे की अभिरुचि जाने बिना उस पर अपनी चीज़ें थोपना. परंपरा, ‘ऐसा होता आया है’ के आधार पर जब तक हम चीज़ों को बुनते रहेंगे, वह अपने होने के अर्थ तक नहीं पहुंच सकती.
हमारी 99 प्रतिशत परेशानियां मानसिक हैं. केवल एक प्रतिशत समस्या असल में वह हैं, जिसे हम असली, आर्थिक, शारीरिक कह सकते हैं. हम अपनी दुनिया खुद रचते हैं. जो ऐसा करते हैं, वह समय की बातें नहीं करते. पुराने जमाने की सारी कठिनाइयां अब भी हैं. उनमें कमी आने की बात तो दूर उनके साथ कुछ नई भी जुड़ गईं.
हम जिन चीजों को अपने परदादा के जमाने से सुनते आए थे, वह आज भी वैसी ही हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे समाधान आंतरिक नहीं थे. वह कपड़े बदलने जैसे नितांत बाहरी थे. एक समाज के रूप में जड़ तक जाने में हमारी रुचि हमसे से गहरी नहीं रही.
गांव का पानी खत्म. गांव में पीने के पानी का टैंकर आने लगा. पानी बचाने के नाम पर पशुओं को पानी देना कम कर दिया गया. लेकिन पानी की बचत, उसके संग्रह के लिए क्या हुआ! तालाब के पुनर्जीवन का कुछ नहीं हुआ. जीवन के बारे में भी हमारा ऐसा ही नजरिया है. हमने जीवन की समस्याओं के जो समाधान किए वे सफल नहीं रहे. समाधान बेहद सतही और ऊपरी थे.
डियर जिंदगी : बच्चों की गारंटी कौन लेगा!
इसलिए हमारे सोचने, समझने के संकट आज भी वैसे ही हैं. जैसे दस, बीस, पचास और सौ बरस पहले थे. मनुष्य से जरूरी कुछ नहीं. मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नहीं.
यह दोनों चीज़ें हमारे व्यवहार से गायब होती जा रही हैं. हम अपने लिए रची दुनिया में दूसरे के लिए जगह नहीं देखते, लेकिन आरजू हमेशा यही रहती है कि सारी दुनिया हमारे प्रति उदार, सहिष्णु और निष्छल रहे. स्त्री-पुरुष, जवान-बुजुर्ग, माता-पिता और बच्चों के बीच जीवन को तनाव की ओर धकेलने वाला क्या है. इनके सबके बीच सहज प्रेम पर संकट पेड़ लगने के बाद का नहीं है, बल्कि पौधे को गलत जगह रोपने, अनुचित तरीके से तैयार होते रहने देने का है.
डियर जिंदगी: सुसाइड के भंवर से बचे बच्चे की चिट्ठी!
जब तक हमारे मन नहीं बदलेंगे, हमारे जीवन का पैटर्न नहीं बदलेगा. भीतर से चीजों को बदले बिना किसी भी बदलाव का आना संभव नहीं. केवल सूत्रधार बदलने से नाटक नहीं बदलता, नाटक की आत्मा सूत्रधार नहीं कहानी में होती है.
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