लगभग दो दशक पुराने मित्र हैं. आईटी इंजीनियर. जब हमारे पास मिनी बस में बैठने के पैसे मुश्किल से होते, तो वह मोटरसाइकिल में घूमते. जब हम  मोटरसाइकिल के पैसे जुटा सके, तो वह कार में दिखते. जब हम नौकरी की तलाश में थे, तो वह मकान खरीद रहे थे. इस सबके बीच खास बात यह रही कि वह जिंदगी से कभी संतुष्‍ट नहीं रहे.


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उन्‍हें लगता ईश्‍वर ने उनके साथ न्‍याय नहीं किया. कुछ न कुछ कमी रहती है. सब कब ठीक होगा! हमेशा किसी न किसी से शिकायत! संदेह, प्रेम की कमी, भीतर ऐसा खालीपन भरते हैं कि हम रिक्‍त, रूखे और कठोर होते जाते हैं. धीरे-धीरे यह भाव स्‍थाई बनता जाता है. चित्‍त में जो भाव ठहर जाए, वह आसानी से नहीं बदलता.


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एक बार इनको वीरेंद्र सहवाग से शिकायत हो गई, तो यह मोहम्‍मद कैफ को दुनिया का सबसे अद्भुत बल्‍लेबाज़ बताने लगे. उनमें ऐसे गुण खोज निकाले, जो स्वयं कैफ को भी न पता थे. इसके साथ ही सहवाग के बारे में हमेशा नकारात्‍मक विचार से घिरे रहते. जाहिर है, सहवाग को तो इससे अंतर नहीं पड़ा, लेकिन दिनेश वर्मा सहवाग के स्‍क्रीन पर कुछ अच्‍छा करते ही परेशान हो जाते. सोचने लगते कि अरे! अब मैं लोगों की नजर में कमतर हो जाऊंगा! लोग कहेंगे, तुम्‍हारी बात तो गलत निकली. तुम्‍हें ज्‍यादा कुछ पता नहीं.


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यह बातें स्‍कूल, कॉलेज तक तो किसी तरह चल गईं, लेकिन दिनेश उसके बाद भी नहीं बदले. लोगों के बारे में शंका से भरे हुए ख्‍याल, संदेह से घिरा मन, हमेशा उनका पीछे करते रहते हैं. कुछ दिन पहले दिनेश से दिल्‍ली में मिलना हुआ. अब सहवाग की जगह उनके पड़ोसी ने ली है. वह उससे हजार मील दूर भी उससे चिपके हुए हैं.


दूसरे के विचार, खतरे और तरक्‍की से डरे हुए! शिकायत से भरे हुए. जो नहीं है, अगर उसे सहज, सरल भाव से ग्रहण नहीं किया गया, तो मन में खिन्‍नता भर जाती है. हम दूसरों से नाराज, खिन्‍न होते-होते स्‍वयं से ख‍िन्‍न होते चले जाते हैं. आहिस्‍ता-आहिस्‍ता दिनेश वर्मा होते जाते हैं.


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हम जो हैं, उसमें बेहतर की कोशिश के बीच यह नहीं भूलना है कि प्रकृति ने हमें दूसरों से अलग बनाया है. वह अलग क्‍या है! मेरी खूबियां क्‍या हैं, उनके साथ मैं कहां तक जा सकता हूं, इन चीजों को एकदम स्‍पष्‍ट रखना है. महत्‍वाकांक्षा खराब चीज नहीं है, बस उसकी उड़ान में लालच का पुट इतना न हो कि वह हमें ‘हमसे’ ही दूर कर दे! चीज़ों की कमी का असर रुह पर न पड़ने देने वाली जीवनशैली हमारे समाज की विशेषता रही है, लेकिन बाज़ार की रोपी अधूरी हसरतों के फेर में हम ऐसे उलझे कि सारे मूल्‍य, नैतिकता को अपनी किताब, घर, समाज से पूरी तरह से दूर ले गए!


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सबकुछ ‘सही’ होने की आकांक्षा सुखद है. मुमकिन नहीं. होना तो चाहिए, लेकिन संभव नहीं. नामुमकिन से भागना नहीं, उसे स्‍वीकार करना है!


‘अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द भुला दें,
कुछ जख्‍़म तो सीने से लगाने के लिए हैं.’


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जां निसार अख्‍़तर साहब का यह शेर जीवन में सुख-दुख के तालमेल को कितनी खूबसूरती से बयां करता है.


असुविधा, दुख, परेशानी जीवन का हिस्‍सा हैं. इनसे भागना संभव नहीं. जीवन इनके साथ है. इनके बिना नहीं. इसलिए, इनका हिस्‍सा बनकर जीना है. जिंदगी का फूल संघर्ष की धूप के बिना नहीं खिलता, इसे हमें बहुत अच्‍छी तरह समझना, बच्‍चों को समझाना है. इसके तनाव, निराशा के भाव से सहजता से निपटा जा सकता है!


ईमेल dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com


पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र)
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सेक्टर 16 A, फिल्म सिटी, नोएडा (यूपी)


(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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