डियर जिंदगी: अपने लिए जीना!
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डियर जिंदगी: अपने लिए जीना!

जिंदगी चलती हुई 'पटरियों' पर चलने का नाम नहीं है. समय के साथ नई पटरियां बिछाने, उन पर चलने का हौसला भी करना जरूरी है! 

डियर जिंदगी: अपने लिए जीना!

वह बलिया, उप्र से आती हैं. कम उम्र में शादी हुई, बच्‍चे भी जल्‍दी हुए. अपने बच्‍चे पाले, बच्‍चों के बच्‍चे पाले. सरल, सरस स्‍वभाव के सरकारी नौकरी वाले, लेकिन आलसी स्‍वभाव के पति के कारण उन दायित्‍वों का भी निर्वाह बखूबी किया, जहां पुरुष की मौजूदगी अपेक्षित होती है. इतना सब करते हुए पता ही नहीं चला कि उम्र कहां से कहां खिसक गई. पति के रिटायरमेंट की उम्र आ गई. 

लतिका ठाकुर ने ‘डियर जिंदगी’ को लिखा कि पति के रिटायरमेंट के बाद अब वह अपनी जिंदगी जीना चाहती हैं. पति के साथ लंबी छुट्टियों, अवकाश पर जाना चाहती हैं. खूब घूमना चाहती हैं. वह चाहती हैं कि अब बच्‍चे अपने बच्‍चों का ख्‍याल खुद रखें. उनने नाती, पोतों को दुनिया में लाने तक का काम बहुत कु‍शलता से पूरा किया. अब वह चाहती हैं कि इनको बड़ा करने का काम बच्‍चे खुद करें. बच्‍चे अपनी जिम्‍मेदारी स्‍वयं उठाएं. 

जब पति के साथ उन्‍होंने यह बात साझा कि तो वह इसे समझना तो दूर इस पर विचार करने तक को राजी न हुए. उनने कहा, यह क्‍या बात हुई. हमारी भूमिका तो अब शुरू हुई है. हमें पिता से आगे दादा, दादी, नाना, नानी की भूमिका का निर्वाह करना है. यही हमारा जीवन है! अब रिटायरमेंट के बाद इनके साथ ही रहना है, इस नई भूमिका में. यहां बताना जरूरी है कि यह दंपति अपने किसी खर्च के लिए बच्‍चों पर निर्भर नहीं है.

डियर जिंदगी: प्रेम का रोग होना!

पति ने जब इस विचार को खारिज़ किया तो उनने हैदराबाद में रहने वाली कामकाजी बि‍टिया से बड़ी उम्‍मीद से बात की, जिससे उनकी खूब बनती है. शादी हो गई. बच्‍चे हैं. उन्‍होंने कहा, ‘अब मैं तुम्‍हारे विदेश भ्रमण, बच्‍चों की परीक्षा के समय तुम्‍हें मदद करने के लिए नहीं आ पाऊंगी. तुम्‍हें खुद सारी चीजों को संभालना होगा. अब मैं कुछ समय के लिए इन सबसे छुट्टी चाहती हूं.’ 

सुनते ही बेटी का पारा चढ़ गया! यह क्‍या बात हुई, मां! मैं कैसे सब संभालूंगी. हम आम नौकरी में नहीं हैं, डॉक्‍टर हैं. बड़ी मुश्किल से समय मिलता है. आप मदद नहीं करेंगी तो कौन करेगा! 

लतिका चुपचाप सुनती रहीं. उसके बाद वह दूसरी बेटी की ओर बढ़ीं. वह पति के साथ नागपुर में हैं. उनके दो बच्‍चे हैं, दोनों के जन्‍म के समय उनकी सहायता के लिए लतिका लंबे समय तक नागपुर में रहीं. अब जब बच्‍चे थोड़े बड़े हो रहे हैं, बेटी फि‍र से नौकरी करना चाहती है. पति ने कहा, हम नौकरों पर भरोसा नहीं कर सकते, अगर काम करना है तो किसी भरोसेमंद व्‍यक्ति को बुला लो. सास से उनकी बनती नहीं. तो मां की ओर देख रहीं थीं कि मां-पापा के रिटायरमेंट के बाद नागपुर आकर बस जाएं. इससे जिंदगी आसान रहेगी.

डियर जिंदगी: परिवर्तन से प्रेम! 

जबकि लतिका रिटायरमेंट के बाद लखनऊ में ही बसना चाहती हैं. जहां उनके रिश्‍तेदार, दोस्‍त पर्याप्‍त संख्‍या में हैं. वैसे भी रिटायरमेंट के बाद हमेशा शहर का चयन इसी आधार पर होना चाहिए कि वहां आपके सुख-दुख साझा करने वाले लोगों का अनुपात कितना है. उसी शहर को चुनें, जहां किसी भी चीज से अधिक आपका ख्‍याल रखने वाले लोग ज्‍यादा हों. 

कितनी मज़ेदार बात है कि स्‍त्री की बात को उसकी बेटियां ही नहीं समझ रहीं. हमने माता-पिता को कर्तव्‍य की बेड़ियों से बांध रखा है. उनके समय, आजादी का कोई मोल नहीं. बुढ़ापे का अर्थ केवल इच्‍छा का समर्पण, बच्‍चों के बच्‍चों की सेवा नहीं, बल्कि पोटली में बंधी तमन्‍ना की ओर प्रस्‍थान है! 

क्‍या अंतर है, लतिका के पति और उनकी भावना में! पति, शादी के इतने बरस बाद भी परंपरागत पुरुष ही हैं. खुद को कुछ करना नहीं, पत्‍नी सब जगह दौड़ती रहे. वह हमेशा सेवा में ही रही आए! पहले उनकी, उसके बाद बच्‍चों की और फि‍र उनके बच्‍चों की. उसकी उम्र, उसके आराम का ख्‍याल कौन करेगा. अच्‍छा पति होना और आजाद ख्‍याल हमसफर होना, दोनों में बहुत फर्क है. 

डियर जिंदगी : रिटायरमेंट और अकेलापन!

पत्‍नी को आर्थिक सुरक्षा, संसाधन देने के पैमाने से ही पति का मूल्‍यांकन नहीं होना चाहिए. इसके साथ ही पत्‍नी के प्रति सही दृष्टिकोण, सहज मानवीय मूल्‍यों का होना भी उतना ही जरूरी है. जिंदगी चलती हुई 'पटरियों' पर चलने का नाम नहीं है. समय के साथ नई पटरियां बिछाने, उन पर चलने का हौसला भी रखना जरूरी है! 

दिलचस्‍प मोड़ देखिए कि उनकी बेटियां भी कैसे पुरुष बन गईं. उनके भीतर अपने लक्ष्‍य पूरे करने का अरमान इतना भारी है कि मां के अपनी जिंदगी की ओर बढ़ने की बात तक सताने लगती है. 

डियर जिंदगी: रेगिस्तान होने से बचना!

लतिका दुविधा में हैं. पति परंपरागत विचारों से घि‍रे हैं. वह नई हवा के लिए तैयार नहीं. जिन बच्‍चों से आस थी, वह अपनी सुविधा के गुलाम हैं. कैसी विडंबना है कि बच्‍चे अपने बच्‍चों तक की जिम्‍मेदारी उठाने को तैयार नहीं. 

मां, ताउम्र बच्‍चों की सेवा में जुटी रहे! यह कोई पारिवारिक मूल्‍य नहीं, जरूरतों की चक्‍की में उसे पीसने का उपकरण है. ताजा हवा के लिए घर के साथ दिमाग में भी 'रोशनदान' बनाने जरूरी हैं! 

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