पिछले 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों – न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ - ने जिस प्रकार प्रेस के जरिये भारत के मुख्य न्यायाधीश की कार्य-प्रणाली की आलोचना की थी, उससे समाज में यही संदेश गया कि भारत की न्याय-प्रणाली की सेहत ठीक नहीं है और उसमें सुधार की जरूरत है.
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सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ठीक बाद मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के खिलाफ कांग्रेस समेत सात पार्टियों ने महाभियोग प्रस्ताव उस परिस्थिति में लाया था, जब उनके पास इसे संसद से पारित कराने के लिए अपेक्षित संख्या नहीं है. हालांकि राज्य सभा के सभापति और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने से खारिज कर दिया है, इसके बावजूद यह मामला अभी शांत नहीं हुआ है. ऐसे में यह सवाल उठने लगा है कि क्या न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के आचरण से न्यायिक व्यवस्था के सामने कोई गंभीर संकट पैदा हो गया है या यह राजनीति से प्रेरित है?
पिछले 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों – न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर, रंजन गोगोई, मदन लोकुर और कुरियन जोसेफ - ने जिस प्रकार प्रेस के जरिये भारत के मुख्य न्यायाधीश की कार्य-प्रणाली की आलोचना की थी, उससे समाज में यही संदेश गया कि भारत की न्याय-प्रणाली की सेहत ठीक नहीं है और उसमें सुधार की जरूरत है. इसी घटना के बाद कांग्रेस पार्टी ने मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की योजना बनाई. लेकिन जिन न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मिश्र पर सवाल उठाया था, उनमें से एक न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर ने एक कार्यक्रम में कहा भी था कि समस्या का समाधान महाभियोग नहीं है, बल्कि व्यवस्था में सुधार है. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने न्यायिक व्यवस्था में किसी रचनात्मक बदलाव के लिए प्रस्ताव पेश करने के बजाय महाभियोग प्रस्ताव ला दिया. आखिर क्यों? क्या एक व्यक्ति को न्यायिक कार्य से हटा देने से सुप्रीम कोर्ट की कार्य-प्रणाली सुधर जायेगी?
यह तो स्पष्ट है कि कांग्रेस का इरादा न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना नहीं था. अगर न्यायिक क्षेत्र में किसी सुधार की ज्यादा दरकार है, तो वह है जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी और व्यापक बनाने की. लेकिन कांग्रेस इस पर चुप्पी ही साधे रही. खुद न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की नियुक्ति कांग्रेस के शासन काल में हुई थी. अगर उनके आचरण में कोई दोष था, तो पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश क्यों बनाया? ऐसी स्थिति में अगर वह यह कहे कि उसका इरादा राजनीतिक नहीं था, तो अधिसंख्य लोग उस पर विश्वास नहीं करेंगे. जो आरोप न्यायमूर्ति मिश्र पर लगाए गए थे, उन्हें राज्य सभा सभापति ने अविश्वसनीय बताकर ख़ारिज कर दिया. अगर किसी आरोप में गंभीरता थी, तो क्या उसे सही साबित करने के लिए कांग्रेस के पास कोई सबूत था? और तो और, राज्य सभा सभापति द्वारा नोटिस स्वीकार किए जाने से पहले ही उसने उसे सार्वजनिक कर दिया था, जबकि राज्य सभा के नियम के मुताबिक ऐसा करना उचित नहीं है.
कहा जा सकता है कि इससे मुख्य न्यायाधीश की छवि खराब होगी. आखिर इससे कांग्रेस को क्या हासिल होगा? क्या इससे सुप्रीम कोर्ट की गरिमा नहीं घटेगी? दिल्ली उच्च न्यायालय के अधिवक्ता मंजुल कुमार सिंह के मुताबिक कांग्रेस की यह पहल राजनीति से प्रेरित है, जिसके दूरगामी परिणाम विभिन्न स्तरों पर सामने आयेंगे. भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं तनाव और दबाव से गुजर रही हैं. जनता की नजरों में कार्यपालिका और विधायिका की विश्वसनीयता घटी है. ऐसे में न्यायपालिका से ही उम्मीद बचती है. अगर जनता की नजरों में इनकी भी विश्वसनीयता गिर गई, तो देश में अराजकता पैदा हो सकती है. कांग्रेस जैसी ऐतिहासिक पार्टी से इस तरह की उम्मीद तो नहीं की जा सकती, लेकिन उसकी राजनीति से न्यायालय की विश्वसनीयता गिरती प्रतीत हो रही है. उसे अच्छी तरह पता था कि वह महाभियोग के जरिये न्यायमूर्ति दीपक मिश्र को अपने पद से नहीं हटा सकती, इसलिए उसकी रणनीति यह होगी कि उन्हें न्यायिक कार्य से फिलहाल अलग होने के लिए बाध्य कर दे .
राज्य सभा के सभापति और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू द्वारा महाभियोग प्रस्ताव खारिज किए जाने के बाद ऐसा संभव नहीं है. लोया मामले में प्रतिकूल फैसले से ही न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के प्रति कांग्रेस की नाराजगी नहीं है, उन्हीं की बेंच अयोध्या मामले की भी सुनवाई कर रही है. कांग्रेस नहीं चाहती है कि इस पर फैसला 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले आए. शायद यही कारण रहा होगा कि वह महाभियोग प्रस्ताव खारिज किए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है . निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट के सामने एक अभूतपूर्व स्थिति पैदा हो जायेगी. महाभियोग की निर्धारित प्रक्रिया के मुताबिक संसद ही इस मामले में अब तक फैसला करती रही है. शासन के विभिन्न अंगों में शक्ति संतुलन के लिहाज से यह उपयुक्त भी है. लेकिन अगर कोर्ट इस पर सुनवाई के लिए तैयार हो भी जाए, तो कौन जज इसकी सुनवाई करेंगे?
बहरहाल, कांग्रेस यह दिखाने की कोशिश करेगी कि न्यायमूर्ति दीपक मिश्र भाजपा सरकार के पाले में हैं. इस तरह जनता की नजरों में उनका फैसला अविश्वसनीय हो जाएगा. वह देश-दुनिया को यह दिखाने की कोशिश करेगी कि भारत में न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है, मोदी सरकार उसके कामकाज में हस्तक्षेप कर रही है. लेकिन कांग्रेस को इस बात को भी समझना चाहिए कि सरकार के खिलाफ फैसला देने वाले जजों के बारे में भी यह कहा जाएगा कि वे कांग्रेसी हैं या मोदी विरोधी. यह भी नहीं कह सकते कि समाज में ऐसी चर्चा अभी नहीं चल रही है. कुल मिलाकर इससे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की समाज में विश्वसनीयता घटेगी. अभी न्यायमूर्ति दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग आया है, कल की तिथि में किसी और के खिलाफ भी राजनीतिक कारणों से महाभियोग आ सकता है. ऐसे में कोई भी जज अपने आपको सहज महसूस नहीं कर सकता. यह स्थिति देश और समाज के हित में नहीं है.
यह सही है कि कांग्रेस पहले भी संवैधानिक संस्थाओं या परंपराओं के प्रति कभी-कभी अनादर प्रकट करती रही है, लेकिन उसकी मौजूदा राजनीति पहले से भिन्न प्रतीत होती है. यह पारंपरिक किस्म की राजनीति नहीं लगती. इसमें आम आदमी पार्टी की राजनीति की झलक देखी जा सकती है, जो नये- नये मुद्दे खड़ा करती रही है, लेकिन उसके प्रति गंभीर नहीं रहती. कांग्रेस की कार्य-शैली में यह बदलाव कैसे और क्यों आया, वह विचारणीय विषय है. उस स्थिति में यह और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब मनमोहन सिंह जैसे नेता महाभियोग की मुहिम से अपने आपको अलग रखते हैं या पार्टी के भीतर के ही कुछ नेताओं को इसका आभास नहीं रहता है. तृणमूल कांग्रेस जैसी विपक्ष की कुछ पार्टियां इससे अभी दूर हैं, लेकिन सपा, बसपा, भाकपा, माकपा, रांकापा और मुस्लिम लीग इससे जुड़ी हुई हैं. अब देखना होगा कि इस तरह की राजनीति में ये पार्टियां अपने आपको कहां फिट पाती हैं.