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भोपाल में सामने आई डॉग बाइट की घटना पूरे देश में बहस का विषय बन गई है. बहस इस बात की कि क्या आवारा कुत्तों के समूल नाश का समय आ गया है? जब भी ऐसा कुछ होता है कुत्तों को मारने की मांग शुरू हो जाती है. शहर और कॉलोनी के स्तर पर उनके खिलाफ जंग छेड़ दी जाती है. नफरत का एक ऐसा माहौल तैयार किया जाता है, जहां ये कुत्ते कुदरत की बनाई सबसे घृणित कृति बन जाते हैं और उन्हें प्यार करने वाले समाज के दुश्मन. इसमें कोई दोराय नहीं है कि भोपाल में मासूम बच्ची के साथ जो हुआ, वो नहीं होना चाहिए था. कुत्तों का आक्रामक होना निश्चित तौर पर चिंता का विषय है और पिछले कुछ वक्त में ये चिंता बढ़ी है. लेकिन इस चिंता की आड़ में क्रूरता को बढ़ावा देना क्या जायज है?
जो लोग ऐसी घटना के गवाह बने हैं, उनका डर लाजमी है. हर हादसा हमें कुछ वक्त के लिए डर के आगोश में रहने को मजबूर कर देता है. सड़क पर अगर गाड़ी की टक्कर हो जाए तो हम संभल-संभलकर उसे हाथ लगाते हैं फिर भले ही हम कितने भी मंझे हुए ड्राइवर क्यों न हों? ये हमारा सामान्य स्वाभाव और प्रकृति है. लेकिन जब बात बेजुबानों की आती है तो हमारा ये स्वाभाव और प्रकृति पल में बदल जाती है. हम ये भूल जाते हैं कि जिस तरह किसी एक व्यक्ति के बलात्कारी या हत्यारा होने पर संपूर्ण परिवार, समाज और बिरादरी अपराधी नहीं हो जाती, ठीक वैसे ही हर कुत्ता खूंखार नहीं होता.
क्या किसी एक इंसान के अपराध की सजा सभी को दी जा सकती है? अगर नहीं, तो बेजुबानों के साथ भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए. मनुष्य जब कोई अपराध करते पकड़ा जाता है, तो उसका सोशल एंगल ढूंढने की कोशिशें की जाती हैं. पर आवारा कुत्तों की आक्रामकता के पीछे की वजह तलाशने का प्रयास कभी नहीं किया जाता. क्या कुत्ते महज चंद सालों से हमारे साथ हैं? निश्चित तौर पर नहीं, इनका-हमारा साथ युगों से है. साईं बाबा से लेकर युधिष्टर तक हर कहानी कुत्तों के जिक्र के बिना पूरी नहीं होती. साईं बाबा के बारे में तो कहा जाता है कि अपने भक्त के बुलावे पर वो श्वान का रूप धरकर पहुंचे थे ताकि पशुओं के प्रति उसके व्यवहार को परख सकें. तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि अब कुत्ते आक्रामक होते जा रहे हैं?
इस सवाल के जवाब में ही इस समस्या का हल छिपा है. ज्यादातर मामलों में आक्रामकता का सीधा संबंध भूख से होता है. पेट की आग बहुत कुछ ऐसा करा देती है, जो हम नहीं करना चाहते. ऐसे तमाम उदाहरण होंगे, जहां अपनी और परिवार की भूख मिटाने के लिए कोई अपराधी बन बैठा. फिर ये तो बेजुबान हैं. पहले लगभग हर हिंदू परिवार में पहली रोटी गाय और आखिरी कुत्ते की निकलती थी. बचा हुआ खाना डस्टबिन में नहीं, घर के बाहर सड़क किनारे रख दिया जाता था. बेजुबानों के प्रति क्रूरता नहीं बल्कि करुणा का पाठ पढ़ाया जाता था. आज ऐसा करने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं. कुत्तों की आबादी बढ़ रही है और खाना कम हो रहा है. अतीत में उसका दोस्त रहा मनुष्य अब उसका शत्रु बन गया है और शत्रुता भी ऐसी कि उसका आसपास फटकना भी मनुष्य को गवारा नहीं. तो ऐसे में हम आवारा कुत्तों से क्या अपेक्षा रख सकते हैं?
आप पिछले कुछ महीनों के अखबार उठा लीजिए या गूगल कर लीजिए. इस निरीह प्राणी के खिलाफ क्रूरता की कई ऐसी खबरें देखने को मिलेंगी कि दिल दहल जाए. कहीं कुत्ते को गोली मारी गई, कहीं एसिड से जलाया गया और कहीं कुल्हाड़ी से काट डाला गया. क्या इन अपराधों के लिए संबंधित व्यक्ति के पूरे परिवार या बिरादरी को दोषी ठहराया गया, क्या उन्हें शहर से बाहर करने की मांग उठाई गई? इसमें कोई शक नहीं कि स्ट्रीट डॉग्स की आबादी तेजी से बढ़ी है और इसके लिए सरकारी व्यवस्थाएं जिम्मेदार हैं. हर साल करोड़ों रुपये नसबंदी पर खर्च होते हैं, तो फिर इनकी आबादी कैसे बढ़ रही है? यह सवाल संबंधित विभाग से पूछा जाना चाहिए.
इसके अलावा, रीलोकेशन यानी स्थानांतरण की वजह से भी कुत्तों के आक्रामक होने और काटने के मामले बढ़ते हैं. कभी पैसों के लालच और कभी ऊपरी दबाब के चलते नगर निगम कर्मचारी कुत्तों को उनके मूल स्थान से उठाकर किसी दूसरे इलाके में छोड़ देते हैं, नतीजतन वो घबरा जाते हैं और इसी घबराहट में किसी को काट लेते हैं. कानून बनाने वाले को इसका आभास होगा, इसलिए कानून में रीलोकेशन प्रतिबंधित है, लेकिन हमारे यहां कानून मानता ही कौन है? आज शहर की सीमाएं फैलती जा रही हैं, नई-नई कॉलोनियां बन रही हैं और कुत्तों के आवासों पर इंसानी कब्जा हो रहा है. हम कुत्तों को उनके इलाकों से निकाल रहे हैं, लेकिन क्षतिपूर्ति के तौर पर दो रोटी तक देने को तैयार नहीं. हम चाहते हैं कि कुत्ते सबकुछ खुद करें. मसलन, वो रहने की नई जगह तलाशें, खाना तलाशें और घायल हो जाएं तो इलाज भी खुद करवाएं. अब न तो कुत्ते वोट देते हैं कि सरकार को उनकी पीड़ा नजर आए और न ही हर गली-मोहल्ले में उनके लिए एनजीओ हैं. ऐसे में हर कदम पर मिलने वाली भूख और प्रताड़ना उनसे कभी -कभी गलत काम करवा बैठती है.
अब बात आती है समाधान की. इसके लिए सबसे पहला कदम होना चाहिए, सख्ती से नसबंदी. जब आबादी सीमित होगी, तो संघर्ष की आशंका भी सीमित रहेगी. दूसरा नंबर है, भोजन और पानी की उपलब्धता. आप अपने पांच किलोमीटर के दायरे में घूमकर देख लीजिए, ऐसा कोई इंतजाम कहीं नजर नहीं आएगा. गर्मी के दिनों में ये बेजुबान पानी की एक-एक बूंद को तरसते रहते हैं. खाना-पानी मिलेगा, तो आक्रामकता अपने आप कम होगी. तीसरा नंबर है, नगर निगम कर्मियों को कड़े निर्देश देते हुए रीलोकेशन पर रोक लगाना. चौथा नंबर है, लोगों को जागरूक करके कम्युनिटी डॉग की अवधारणा को अमल में लाना. कहने का मतलब है सोसाइटी या कॉलोनी के लोग मिलकर कुछ डॉग्स को अडॉप्ट कर लें, उनके खान-पान का ख्याल रखें, उन्हें प्यार दें तो न केवल बेसहारा कुत्तों की आबादी घटेगी बल्कि इसके कई फायदे होंगे. मसलन, उस इलाके में दूसरे कुत्तों की एंट्री नहीं होगी क्योंकि कुत्तों को अपना एक इलाका होता है. डॉग बाइट की घटनाओं में कमी आएगी और कॉलोनियों को मुफ्त के चौकीदार भी मिल जाएंगे.
(डिस्क्लेमर: लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.)