कर्नाटक चुनाव समाप्त हो चुका है, लेकिन लिंगायत प्रकरण अभी खत्म होने वाला नहीं है. राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस के लिए आगे भी नुकसानदेह हो सकता है, क्योंकि कर्नाटक के बाहर दूसरे प्रदेशों में हिंदुओं में इसको लेकर प्रतिक्रिया होने लगी है.
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‘अगर कांग्रेस यह सोचती है कि इससे (लिंगायत प्रकरण से) उसे आम चुनावों में कर्नाटक में लाभ होगा, तो वह गलतफहमी में है. गैर-लिंगायत हिंदुओं में इस फैसले के खिलाफ प्रतिक्रिया होगी और उनमें भाजपा के पक्ष में गोलबंदी भी संभव है. यही नहीं, लिंगायत समाज के भीतर से इसके खिलाफ आवाज उठने लगी है. ट्विटर पर कई लोगों ने कहा कि वे लिंगायत हैं, उन्हें हिंदू धर्म से कोई अलग नहीं कर सकता. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इससे कांग्रेस को आगामी आम चुनाव में अपेक्षित लाभ मिलने की संभावना कम है.’
पिछले माह 17 अप्रैल को ही ‘लिंगायत को हिंदू समाज से अलग करना कांग्रेस की भयंकर भूल’ शीर्षक के तहत इन पंक्तियों के लेखक ने यह अनुमान प्रकट किया था. कर्नाटक विधानसभा के चुनाव बाद यह अनुमान सही साबित हुआ. कांग्रेस की यह रणनीति कारगर नहीं रही. वह राज्य विधानसभा में 122 सीटों से खिसककर 78 सीट पर आ गई. दूसरी तरफ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. वह 40 सीटों से बढ़कर 104 पर पहुंच गई है. सिद्धांतहीन राजनीति के कारण त्रिशंकु विधानसभा में सरकार किसी की भी बन सकती है, लेकिन इस चुनाव का सामाजिक संदेश कांग्रेस के लिए स्पष्ट है. कांग्रेस का लिंगायत कार्ड विफल रहा, जिसके तहत सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत समुदाय को हिंदू समाज से अलग करके उसे धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने के लिए केंद्र की मोदी सरकार से सिफारिश की थी. चुनाव परिणाम से ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदू समाज, खासकर लिंगायत समुदाय इसे मोटे तौर पर विभाजनकारी मानता है.
कांग्रेस की रणनीति थी कि इससे वह लिंगायत समुदाय में पैठ बढ़ाने में सफल हो जाएगी, जो भाजपा का परंपरागत आधार रहा है. माना जाता है कि करीब 17 प्रतिशत की आबादी वाला लिंगायत समुदाय 224 सदस्यीय राज्य विधानसभा की करीब 100 सीटों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. कर्नाटक में भाजपा के चेहरे बीएस येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय के हैं. लिंगायत समुदाय ने इसे पसंद नहीं किया, क्योंकि उनकी नजर में यह येदियुरप्पा को कमजोर करने की रणनीति थी, जो भाजपा में मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे. लिंगायत प्रभावित उत्तरी और मध्य कर्नाटक के परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं. चुनाव परिणाम आने पर कांग्रेस के कुछ नेता ऐसा कह रहे हैं कि चुनाव से पहले कांग्रेस को लिंगायत मसले को नहीं उठाना चाहिए था. पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे इसे चुनावी रणनीति के तहत गलत जातीय समीकरण के रूप में देख रहे हैं. अगर चुनाव में कांग्रेस को जीत मिल जाती, तो क्या वे इस तरह की टिप्पणी करते? क्या यह केवल वोट का मसला है? अगर हां, तो अब कांग्रेस को इसकी आलोचना करने से परहेज नहीं करना चाहिए, खासकर उस स्थिति में जब जनता ने उसे खारिज कर दिया है. अगर चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस पार्टी लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने के पक्ष में रहती है, तो फिर इसका यह अर्थ निकाला जाएगा कि कांग्रेस हिंदू विरोध की राजनीति कर रही है.
ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस को इसका अहसास नहीं है. कांग्रेस पार्टी ने पूरे चुनाव में लिंगायत मसले पर प्रायः चुप्पी साधकर रखी. कांग्रेस को लिंगायत वोट पूरी तरह मिलने का भरोसा नहीं था, उल्टे उसे इस बात का भी भय था कि गैर-लिंगायत हिंदुओं में इसके खिलाफ प्रतिक्रिया हो सकती है. और तो और, कर्नाटक में पार्टी के चेहरा सिद्धारमैया की छवि ‘हिंदू विरोधी’ बन गई थी. ऐसी ही छवि कांग्रेस की 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी बनी थी. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इससे सबक नहीं लिया. मंदिरों और मठों का भ्रमण करने वाले पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इस मसले पर चुप्पी साध ली. कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की राजनीति तभी कारगर होगी, जब वह उसकी नीति और नीयत में झलके, अन्यथा इसे हिंदू समाज गुमराह करने की तरकीब के रूप में देखेगा. यही कारण है कि जब भाजपा ने सिद्धारमैया सरकार द्वारा टीपू जयंती मनाने जैसे मुद्दे उठाए, तो वे असर कर गए.
कर्नाटक चुनाव समाप्त हो चुका है, लेकिन लिंगायत प्रकरण अभी खत्म होने वाला नहीं है. राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस के लिए आगे भी नुकसानदेह हो सकता है, क्योंकि कर्नाटक के बाहर दूसरे प्रदेशों में हिंदुओं में इसको लेकर प्रतिक्रिया होने लगी है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस को हिंदू विरोधी दिखाने में भाजपा को मदद मिलेगी. पर भाजपा को भी अपने हिंदुत्व प्रेम का उदाहरण पेश करना होगा. जिन कारणों से लिंगायत समुदाय के भीतर से अल्पसंख्यक दर्जा पाने की मांग उठ रही है, उसका निदान उसे करना होगा. बताया जाता है कि कर्नाटक की करीब एक तिहाई शिक्षण संस्थाएं लिंगायत समुदाय के संपन्न व्यक्तियों या धार्मिक मठों द्वारा संचालित हैं. चूंकि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाएं शिक्षा के अधिकार कानून के दायरे में नहीं आतीं, इसलिए वे कमजोर वर्ग के छात्रों के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं होतीं. ऐसे में बहुसंख्यक हिंदुओं द्वारा संचालित स्कूल अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त स्कूलों के सामने व्यावसायिक दृष्टि से बराबरी की स्थिति में नहीं होंगे. इसे प्रलोभन कहें या मजबूरी, हिंदुओं द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं के मालिक भी अगर अल्पसंख्यक दर्जा पाने की कोशिश करें, तो कोई अचरज की बात नहीं है.
समय की मांग यही है कि मोदी सरकार या तो अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं को भी शिक्षा के अधिकार कानून के दायरे में लाए या हिंदुओं द्वारा संचालित स्कूलों को इसके दायरे से बाहर करे, ताकि समानता बहाल हो सके. साथ ही अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त स्कूलों में उस समुदाय विशेष के छात्रों के लिए कोटा निर्धारित कर दिया जाए. जरूरत पड़े तो सरकार को संविधान में संशोधन लाने से भी नहीं हिचकना चाहिए. इसलिए इस बात का कोई खास महत्व नहीं है कि मोदी सरकार लिगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने से इंकार कर दे. इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है, क्योंकि भविष्य में हिंदुओं का कोई दूसरा समुदाय ऐसी मांग कर सकता है. हिंदू समाज की एकता खंडित करने वाला कोई प्रयास अंततः राष्ट्र और समाज की शांति एवं स्थिरता के लिए घातक होगा. यह मसला राजनीति में धर्म के इस्तेमाल तक सीमित नहीं है, इसका असर दूरगामी होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)