विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा में गठबंधन होता तो एनडीए को 325 सीटों पर जीत नहीं मिलती.
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पिछले साल जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए को प्रचंड जीत मिली थी, तब ही यह साफ था कि वह चुनावी गठबंधन और सामाजिक समीकरण का नतीजा था. उस समय बीजेपी के सामने कोई एक गठबंधन नहीं था, बल्कि लड़ाई त्रिकोणात्मक हुई थी. बसपा अकेले चुनाव लड़ रही थी, तो सपा और कांग्रेस साथ मिलकर. लोकसभा की दो सीटों पर संपन्न मौजूदा उपचुनाव में भी बीजेपी के खिलाफ विपक्षी पार्टियों का कोई एक गठबंधन नहीं था, फिर भी लड़ाई आमने-सामने लगी, क्योंकि कांग्रेस उसे त्रिकोणात्मक नहीं बना सकी.
विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा में गठबंधन होता तो एनडीए को 325 सीटों पर जीत नहीं मिलती. खास बात यह है कि इन दोनों पार्टियों को जितने मत मिले थे, वे एनडीए को मिले कुल मत से ज्यादा थे. एनडीए को 41.35 प्रतिशत वोट मिले थे, तो सपा-बसपा को मिलाकर 44.05 प्रतिशत. अगर 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम पर विचार किया जाए, तो बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 42.63 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि सपा-बसपा को मिलाकर 42.12 प्रतिशत. कहा जा सकता है कि गत चुनावों में बीजेपी की जीत में बीजेपी विरोधी मतों के विभाजन का योगदान था. ऐसे में मौजूदा उपचुनाव में बसपा के समर्थन से सपा को गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में जीत मिल गई है, तो इसमें कुछ भी चौंकाने वाली बात नहीं है.
इस उपचुनाव में बीजेपी की पराजय का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि विगत चुनाव के दौरान बीजेपी के पक्ष में बना जातीय समीकरण बिखर गया है. सपा-बसपा के साथ आने से अंतर इतना आया है कि बसपा के परंपरागत मतदाताओं ने उस सपा के पक्ष में मतदान किया है, जिसके सामाजिक आधार से उनका विरोध रहा है. कुछ विश्लेषक इस बात से हैरान हैं कि बसपा का वोटर सपा को कैसे ट्रांसफर हो गया, पर कुछ लोगों का मानना है कि राजनीतिक दलों की ही भांति उनके मतदाताओं को भी साथ आने की जरूरत महसूस होने लगी थी. हकीकत ऐसी हो या न हो, पर उनके मतदाताओं को ऐसा लगता है कि वे सत्ता से बाहर हो गए हैं. यही वह कारण माना जा रहा है, जिसने उन्हें अधिकाधिक संख्या में मतदान करने के लिए प्रेरित किया. दूसरी तरफ बीजेपी के परंपरागत मतदाताओं में वोट के प्रति पूर्व की भांति उत्साह नहीं था. मतदान प्रतिशत में कमी बीजेपी के खिलाफ गई. बीजेपी कार्यकर्ताओं की नाएनडीएी ने इस प्रवृत्ति को और मजबूत किया, जो सरकार और संगठन के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं. रही-सही कसर बीजेपी के ‘अति आत्मविश्वास’ ने पूरा कर दिया, जो सपा-बसपा की रणनीति की काट नहीं खोज पाई.
गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी की पराजय में योगी सरकार के कामकाज के अलावा 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बहुत कुछ तलाशने का प्रयास किया जाएगा. चूंकि गोरखपुर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह क्षेत्र है और फूलपुर उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का, इसलिए यह पराजय काफी अहम हो जाती है. पर दोनों जगहों पर मिली पराजय से जाहिर है कि यह मामला किसी व्यक्ति विशेष के बजाय सरकार और संगठन के लिए चिंतन का विषय होगा.
वैकल्पिक राजनीति को ‘आप’ का तमाचा
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि योगी सरकार ने अच्छे काम नहीं किए हैं, लेकिन अच्छे काम का चुनाव जीतने से अनिवार्य संबंध नहीं होता, बहुत कुछ धारणा से नियंत्रित होता है. योगी को अपनी सरकार के प्रति विरोधियों की धारणा को बदलनी होगी. धारणा की इस लड़ाई में बीजेपी फिलहाल पिछड़ रही है.
बीजेपी के लिए संतोष की बात यह है कि प्रदेश में अगड़ी जातियों के अलावा गैर-यादव पिछड़े और गैर-जाटव दलित अब भी उसके साथ जुड़े हुए हैं. दूसरी ओर यादव, हरिजन और मुसलमान बीजेपी से अब भी प्रायः दूर हैं. ‘सबका साथ, सबका विकास’ का दावा करने वाली बीजेपी के सामने यही चुनौती है कि वह इन्हें अपने साथ लाए. अगर वह ऐसा करने में सफल हो जाती है, तो उस पर इस बात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि उसके खिलाफ कितनी पार्टियों का गठबंधन खड़ा होता है. अगर विपक्ष गोलबंद होकर बीजेपी विरोधी मतों के विभाजन को रोक दे, तो बीजेपी को पराजित करना उसके लिए कठिन नहीं होगा. पर दलों की गोलबंदी का अनिवार्य मतलब समाज की गोलबंदी से नहीं निकाला जा सकता. अगर दलों के मुताबिक ही समाज की गोलबंदी हो जाए, तो बीजेपी को आगामी लोकसभा चुनाव में घेरा जा सकता है. पर हर राज्य की परिस्थितियां अलग हैं. अगर जमीनी धरातल पर समाज के विभिन्न समूहों में अंतर्विरोध है, तो राजनीतिक स्तर पर पार्टियों के गठबंधन से चुनाव में कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)