एक बार फिर कसौटी पर लालू यादव और उनका राजद
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एक बार फिर कसौटी पर लालू यादव और उनका राजद

लालू यादव पहले भी वे जेल जा चुके हैं. ऐसे में यह सवाल फिर उठ रहा है कि इससे बिहार और उनकी राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? 

 

एक बार फिर कसौटी पर लालू यादव और उनका राजद

2जी घोटाले में फैसला आने के बाद सबकी नजरें चारा घोटाले में फंसे राजद सुप्रीमो और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव पर लगी थीं, लेकिन वे 2जी घोटाले के अभियुक्तों की तरह भाग्यशाली नहीं निकले. चारा घोटाले से संबंधित एक दूसरे मामले में उन्हें दोषी ठहराया गया है. एक बार फिर वे जेल की सलाखों के पीछे हैं. माना जा रहा है कि इस बार उन्हें जमानत मिलना आसान नहीं होगा. लेकिन लालू यादव पहली बार जेल नहीं जा रहे हैं, पहले भी वे जेल जा चुके हैं. ऐसे में यह सवाल फिर उठ रहा है कि इससे बिहार और लालू यादव की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? 

लोकतांत्रिक राजनीति तथ्य कम, धारणा से ज्यादा संचालित होती है. इसलिए इस बात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि अमुक व्यक्ति कानून की नजर में दोषी है या नहीं. बड़े-बड़े बाहुबलियों को समाज समर्थन देता है, तो उसका अपना तर्कशास्त्र होता है. मौजूदा प्रसंग में राजद नेता उस तर्कशास्त्र की घोषणा करते हुए इसे जातिवादी मानसिकता बता चुके हैं. उच्च जाति से संबंधित बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को इस मामले में बरी किए जाने को वे इसे जातीय मानसिकता के प्रमाण के रूप में पेश कर सकते हैं. ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि उनकी इस थ्योरी पर विश्वास करने वाले लोग नहीं होंगे. लेकिन जाति केंद्रित समाज में लोगों का नजरिया बहुत कुछ जाति के इर्द-गिर्द घूमता रहता है. ऐसे में माना जा सकता है कि यादव जाति के लोगों का उनके प्रति झुकाव रहेगा. इसके अलावा मुसलमान भी उनका समर्थन कर सकते हैं. लेकिन यह चुनाव जीतने के लिए काफी नहीं है. बाकी जातियों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे राजद के पक्ष में खुलकर आ जाएंगी. अगड़ी जातियां पहले से ही भाजपा के साथ जुड़ी हुई हैं, जबकि अति पिछड़ी जातियों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति झुकाव पहले से ही देखा जाता रहा है. कुर्मी-कोइरी जैसी जातियों के राजद की ओर जाने की संभावना विरल है. पिछले विधानसभा चुनाव में दलितों का वोट विभाजित रहा था. ध्यान देने की बात यह है कि पिछली बार की तरह इस बार लालू यादव के जेल जाने की घटना की ज्यादा चर्चा नहीं है.  

चूंकि भ्रष्टाचार के मामले में न केवल लालू यादव फंसे हुए हैं, बल्कि उनके तेज-तर्रार बेटे तेजस्वी यादव और बेटी मीसा भारती भी घिरती नजर आ रही हैं. इसका मतलब यह हुआ कि राजद का वर्तमान ही नहीं, भविष्य का नेतृत्व भी खतरे में है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि राजद का सामाजिक आधार किस दिशा में जाता है. क्या राजद के कमजोर होने पर यादव भाजपा को स्वीकार कर सकते हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा यादवों को अपनी ओर लुभाने की पूरी कोशिश कर रही है. अगर ऐसा हो जाता है, तो उसे अपने हिंदुत्व के एजेंडा को साधने में आसानी होगी. कुछ विश्लेषकों के अनुसार बिहार भाजपा अध्यक्ष एक यादव बिरादरी के व्यक्ति (नित्यानंद राय) को बनाना इसी रणनीति का हिस्सा है. यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा के तमाम प्रयास के बावजूद यादवों ने उसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. अब भी यादवों की सहानुभूति लालू यादव के साथ ही प्रतीत होती है. लेकिन इसकी उग्र अभिव्यक्ति अन्य जातियों में प्रतिक्रिया पैदा करेगी. यह राजद के हित में नहीं होगा.  

निश्चय ही राजद के लिए स्थिति संकटपूर्ण है. अगर उनकी लड़ाई उच्च जातीय आधार वाली केवल भाजपा के साथ होती, तो वे उससे निपट सकते थे. लेकिन यहां उनके सामने पिछड़ी जाति के ही प्रभावशाली नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों का ही सामाजिक न्याय की लड़ाई में योगदान है, लेकिन कुछ विश्लेषक नीतीश कुमार को लालू यादव पर भारी मानते हैं. कहने का आशय यह है कि बिहार की मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में लालू यादव के लिए अगड़ा-पिछड़ा कार्ड खेल पाना कठिन होगा, क्योंकि लड़ाई दो पिछड़ों के बीच है. वैसे राजद समर्थक नीतीश कुमार पर अगड़ों की पार्टी भाजपा के साथ साठगांठ करने का आरोप लगाकर उनके सामाजिक आधार में सेंध लगाने का प्रयास कर सकते हैं, लेकिन अगर भाजपा या जदयू की तरफ से ही किसी पिछड़े, खासकर अति पिछड़े ने उनके खिलाफ मोर्चा संभाल लिया, तो इस रणनीति का कारगर हो पाना मुश्किल होगा. पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में आरक्षण को लेकर लालू यादव द्वारा फेंके गए पिछड़े कार्ड की सफलता में नीतीश कुमार का साथ होना भी अहम था. कहा तो यहां तक जाता है कि इस चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू यादव को नया राजनीतिक जीवन दे दिया. इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि नब्बे के दशक की तरह लालू यादव का जनाधार मजबूत नहीं रहा है.   

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क्या राजद के कमजोर होने पर यादव भाजपा को स्वीकार कर सकते हैं?

फिर भी राजनीति के बारे में अंतिम रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता. लालू यादव पर न तो आरोप नया है और न ही जेल या सजा, इसके बावजूद लालू यादव ठसक के साथ राजनीति करते रहे हैं. लालू यादव पिछले 20 वर्षों से उतार-चढ़ाव के साथ इसका सामना कर रहे हैं. शरद यादव और कांग्रेस जैसे सहयोगी उनके साथ हैं. यह देखना होगा कि लालू यादव की अनुपस्थिति में ये उनकी रिक्तता कितना भर पाते हैं. लेकिन इस बार संकट कुछ ज्यादा प्रतीत होता है. यह सही है कि इस बार लालू यादव के पीछे उत्तराधिकारी की समस्या नहीं है, लेकिन पेंच यह है कि उनके उत्तराधिकारी बेटा-बेटी भी भ्रष्टाचार के आरोप में घिर गए हैं. इनके मामलों में किस प्रकार प्रगति होती है, राजद और बिहार की भावी राजनीति इससे भी तय होगी. लेकिन राजनीतिक घटनाएं निरपेक्ष भाव से घटित नहीं होतीं, नीतीश कुमार के शासन के स्वरूप से भी यह प्रभावित होंगी. नीतीश कुमार राजनीतिक दृष्टि से पहले की तरह मजबूत नहीं दिखते. 

ऐसे में तेजस्वी के सामने बिहार की राजनीति में अपनी प्रतिभा साबित करने का यह अच्छा मौका है, हालांकि राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से अभी वे अपना छाप छोड़ने की स्थिति में नहीं पहुंचे हैं. सच तो यह है कि अब गठबंधन राजनीति को आगे बढ़ाने में विपक्ष को कुछ मुश्किल आ सकती है, क्योंकि भाजपा लालू को भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में पेश करके बाकी दलों को उससे दूर रहने के लिए प्रेरित करेगी. इस तरह लोक सभा चुनौती में विपक्ष के लिए भाजपा को चुनौती पेश करना आसान नहीं होगा. रही-सही कसर राजनेताओं के मामलों की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित विशेष अदालतें पूरी हो सकती है. ऐसी स्थिति में अगर कोई विपक्षी दल मोदी सरकार पर राजनीतिक बदले की भावना से कार्रवाई करने का आरोप लगाएगा, तो जनता उसे तवज्जो नहीं देगी. 

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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