सपा और कांग्रेस को कहीं भी मेयर की कुर्सी नसीब नहीं हो सकी, लेकिन सपा नगरपालिका और नगर पंचायत चुनाव में दूसरे स्थान पर है.
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उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बीजेपी की भारी जीत के अभी एक साल भी पूरे नहीं हुए हैं कि प्रदेश में संपन्न शहरी निकाय चुनाव में जनता ने एक बार फिर उस पर विश्वास जताया है. राज्य के 16 नगर निगमों में मेयर पद पर 14 जगह भाजपा को जीत मिली है, लेकिन निगम पार्षद की सीटों पर उसे इसी अनुपात में जीत नहीं मिली है. मेयर की बाकी दो सीटों- अलीगढ़ और मेरठ पर बसपा को जीत मिली है. सपा और कांग्रेस को कहीं भी मेयर की कुर्सी नसीब नहीं हो सकी, लेकिन सपा नगरपालिका और नगर पंचायत चुनाव में दूसरे स्थान पर है. अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी की तैयारी कर रही कांग्रेस इस लिहाज से चौथे स्थान पर रही.
चुनाव में भाजपा को मिली यह जीत चौंकाने वाली नहीं है, अगर इस बात को ध्यान में रखा जाए कि नगरी क्षेत्र में भाजपा का दबदबा पहले से ही था. 2012 के नगर निकाय चुनाव में भी ज्यादातर नगर निगम के मेयर पद पर भाजपा ही काबिज रही थी. भले ही मेयर पद पर भाजपा का दबदबा है, लेकिन जीते निगम पार्षदों का प्रतिशत 50 से कम ही है. फिर भी उसको प्राप्त सीटें सपा, बसपा और कांग्रेस को प्राप्त कुल सीटों से ज्यादा हैं.
नगर निगम की भांति नगरपालिका परिषद और नगर पंचायत में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. कहा जा सकता है कि छोटे शहरों और कस्बाई क्षेत्रों में भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षाकृत कमजोर है, लेकिन सपा, बसपा और कांग्रेस का प्रदर्शन भी यहां अच्छा नहीं माना जा सकता. हां, अगर इन तीनों पार्टियां द्वारा अर्जित सीटों को यहां मिला दिया जाए, तो वह भाजपा से प्रायः ज्यादा हैं.
निर्दलीयों की जीत के मायने
खास बात यह कि निर्दलीय प्रत्याशियों ने यहां अच्छी जीत दर्ज की है, कहीं-कहीं इन राजनीतिक दलों से भी ज्यादा. जाहिर है मतदाताओं ने यहां दल की जगह प्रत्याशी को तरजीह दी है. समझा जा सकता है कि यहां वोटिंग पैटर्न को स्थानीय कारकों ने ज्यादा प्रभावित किया है. इस कारण भाजपा इसको लेकर चिंतित नहीं होगी.
गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में बच्चों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के बाद प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की छवि कुछ धूमिल हुई थी, लेकिन इस जीत से ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार जनता को अपना पक्ष समझाने में एक हद तक सफल रही है. आखिर प्रदेश में स्वास्थ्य क्षेत्र में बदहाली अचानक नहीं आई थी. इसी प्रकार बहुचर्चित नोटबंदी और जीएसटी से समाज के विभिन्न वर्गों, खासकर व्यापारियों में कथित नाराजगी की धारणा भी गलत साबित हुई. जीएसटी से अगर किसी को कोई नाराजगी थी, तो मोदी सरकार के सुधारात्मक कदम से जनता में यह संदेश गया कि सरकार जनता की समस्या के प्रति संवेदनशील है.
लोक की ताकत के सामने मोदी सरकार ने सिर झुकाया, तो जनता ने उसे आशीर्वाद देने में देर नहीं लगाई. कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में योगी सरकार की कार्रवाई, खासकर अपराधियों को पकड़ने या मार गिराने ने जनता में योगी सरकार के प्रति विश्वास पैदा किया. पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदुत्व की राजनीति ने भी भाजपा के पक्ष में माहौल बनाया. अयोध्या में दिवाली का भव्य आयोजन, ताजमहल और पद्मावती फिल्म जैसे भावनात्मक मुद्दों के प्रति योगी सरकार के नजरिये को जनता का वोट के रूप में समर्थन मिला. लेकिन मेयर पद के लिए अलीगढ़ और मेरठ में भाजपा की मिली पराजय इस बात की ओर भी इशारा करती है कि मुसलमानों में भाजपा के खिलाफ गोलबंदी कारगर रही.
ऐसा इसलिए हो सका कि दलित, खासकर जाटव और मुसलमान बसपा के पक्ष में लामबंद हो गए. उत्तर प्रदेश का यह चुनाव परिणाम किसी प्रगतिशील राजनीति का परिचायक नहीं है. हिंदू और मुस्लिम समाज में एक बार फिर धार्मिक ध्रुवीकरण की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति की सीमा फिर उजागर हो गई. अनुमान लगाया जा सकता है कि यह प्रवृत्ति आने वाले समय में जारी रहेगी. यह देखना दिलचस्प होगा कि 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ कोई गठबंधन बनता है या नहीं और अगर बनता है तो कैसा?
विकास के मोर्चे पर जनता एक तरफ योगी सरकार को समय देने के लिए तैयार है, तो वह एक बार फिर केंद्र की मोदी सरकार के प्रति प्रकारांतर से अपना समर्थन जता रही है. यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जनता का अभी मोहभंग नहीं हुआ है. फिलहाल इस विजय रथ पर सवार होकर भाजपा दोगुने उत्साह के साथ गुजरात विधान सभा चुनाव में फायदा उठाने का प्रयास करेगी. योगी की लोकप्रियता का भी उसे लाभ मिल सकता है. पर इसकी कोई गारंटी नहीं कि इस चुनाव परिणाम से ईवीएम में छेड़छाड़ का सवाल दफ्न हो जाएगा, संभव है राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या करें. ध्यान देने लायक बात यह है कि निगम चुनाव में ईवीएम का इस्तेमाल किया गया था, जबकि नगरपालिका और नगर पंचायत चुनाव में बैलेट पेपर का.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)