जब सिनेमा की 'बिकाऊ' महिलाएं अपने 'खरीददारों' का नाम बताती हैं, तो हम सुन क्‍यों नहीं पाते?
Advertisement
trendingNow1453191

जब सिनेमा की 'बिकाऊ' महिलाएं अपने 'खरीददारों' का नाम बताती हैं, तो हम सुन क्‍यों नहीं पाते?

जिन फिल्‍मी महिलाओं पर हम बड़ी आसानी से 'बिकाऊ' होने का टैग लगा देते हैं, वहीं महिला जब ये सच नंगा कर देती है कि आखिर उसे 'खरीदने' की कीमत किसने दी तो हम उस 'खरीददार मर्द' पर शक क्‍यों नहीं कर पाते?

जब सिनेमा की 'बिकाऊ' महिलाएं अपने 'खरीददारों' का नाम बताती हैं, तो हम सुन क्‍यों नहीं पाते?

पिछले कुछ दिनों से बॉलीवुड एक्‍ट्रेस तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर के बीच उठा 10 साल पुराना विवाद सुर्खियों में है. कुछ दिनों पहले, निर्देशक नंदिता दास की फिल्‍म 'मंटो' देखी. एक सीन में प्रोड्यूसर बने ऋषि कपूर के सामने तीन महिलाएं खड़ी थीं. तभी उस कमरे में दनदनाते हुए मंटो के किरदार वाले नवाजुद्दीन सिद्दीकी घुसते हैं और प्रोड्यूसर साहब से अपना पैसा मांगते हैं. ऋषि कपूर, मंटो से बात कर रहे हैं और अपने सामने खड़ी महिलाओं से कपड़े उतारने को कह रहे हैं. तीनों ही सकुचा रही हैं, घबरा रही हैं और धीरे-धीरे अपने कपड़े भी उतार रही हैं. दो लड़कियां अपना ब्‍लाउज उतार चुकी होती हैं और तीसरी जो यह करने में झिझक रही होती है, ऋषि कपूर उसके पास जाते हैं. उसे थोड़ा कड़क मुद्रा में इशारा करते हैं और आखिर में वह भी अपना ब्‍लाउज उतार देती है. ऋषि कपूर का डायलॉग आता है, 'इस सांवली वाली में नमक बहुत है, लेकिन इस गोरी वाली को ले लो, ये चलेगी.' यह सुनते ही तीनों लड़कियां अपने उतरे हुए कपड़े उठाती हैं और सीन बदल जाता है.

आपको बता दूं कि यह सीन फिल्‍म में उस दौर के सिनेमा का है, जब देश आजाद भी नहीं हुआ था. जब फिल्‍म की हीरोइनों के कंथे से पल्‍लू नहीं सरकता था. जब फिल्‍में महिला चरित्रों के माध्‍यम से आदर्श पत्नी, आदर्श मां, आदर्श बेटी जैसे प्रतिमान गढ़ रही थीं. अगर आप यह सोच रहे हैं कि यह महज फिल्‍म का एक सीन है और इसके आधार पर राय नहीं बनाई जा सकती तो, आपके सामने साफ कर दूं कि कई आत्‍मकथाएं, फिल्‍मों से जुड़े लोग अपनी कहानियों और किस्‍सों में यह जाहिर कर चुके हैं कि सिनेमा में जुड़ने वाली महिलाओं की चयन प्रकिया में 'फेवर' या 'कास्टिंग काउच' जैसी प्रथाएं हमेशा से जुड़ी रही हैं.

आपको सीधे वर्तमान में उठे विवाद से जोड़ती हूं. पिछले चंद दिनों से उठे इस विवाद पर कई सवाल सुनने में आए हैं. जैसे '10 साल से क्‍या तनुश्री सो रही थीं..' या 'नाना पाटेकर तो इतना अच्‍छा आदमी है..वो ऐसा नहीं कर सकता' या 'अब इसे पब्लिसिटी चाहिए बस और कुछ नहीं, इसलिए ये ड्रामा किया है...' एक और दिलचस्‍प ये कि 'आशिक बनाया आपने' में इतने बोल्‍ड सीन किए हैं, तो ऐसा क्‍या करना चाहते थे नाना कि इसने इतना नाटक किया..' ऐसे कई सवाल मैंने अपने आसपास या तनुश्री दत्ता पर लिखी गई स्‍टोरी पर आ रहे कमेंट के रूप में देखे हैं. यहां ये जरूर साफ कर दूं कि तनुश्री दत्ता ने 10 साल बाद अचानक नींद से उठकर यह विवाद नहीं उठाया है. वह अपने साथ हुए इस व्‍यवहार पर 2008 में भी हंगामा बरपा चुकी हैं. यहां तक कि तनुश्री ने उस समय पुलिस में भी शिकायत दर्ज कराई थी. तो ये सवाल तो कम से कम खारिज हो जाता है कि क्‍या वह 10 साल से सो रही थी. हालांकि उस समय यह कितना न्‍यूज में दिखाया गया या क्‍यों नहीं दिखाया गया? यह सवाल मीडिया पर जरूर उठने चाहिए.

fallback

सिनेमा की दुनिया कितनी स्‍याह और कितनी चमकीली है, ये बात हम सब जानते हैं. खासकर पिछले कुछ सालों तक भारतीय सिनेमा महज कपूरों, खानों, चोपड़ा और जौहरों की विरासत ही रहा है. चाहे सिनेमा बनाने की बात हो या फिर सिनेमा में नजर आने की बात, इसके पीछे का सच कभी सामने नहीं आया. क्‍योंकि बाहर से आने वाले वर्षों तक यहां बस अपनी जगह बनाने में ही लगे रहे हैं और ये खौफ अक्‍सर सिर पर रहता है कि ये इंडस्‍ट्री पहचान से चलती है. अगर आप किसी कैंप का हिस्‍सा नहीं, तो काम के लाले पड़ सकते हैं. हालांकि गाहे-बेगाहे ऐसे कुछ बागी निकलते जरूर रहे हैं जो सिनेमा की चमकली दुनिया के पीछे के इस बंद कमरों के सच को बयां करते रहे हैं. अब ये बात अलग है कि ऐसा सच बयां करने के बाद अक्‍सर ऐसे लोग फिर कभी इस सिनेमाई दुनिया में नजर भी नहीं आते.

फिल्‍मों की जब भी बात होती है तो मैंने अपने आसपास अक्‍सर लोगों को बड़ा बेतकल्‍लुफ होकर यह कहते हुए सुना है 'अरे, हीरोइनों को तो 'कॉम्‍प्रोमाइज' करना ही पड़ता है' या 'एक्‍ट्रेस बनने के लिए थोड़ा बहुत तो 'करना' ही पड़ता है'.. हम बहुत आसानी से इस सच को पचा लेते हैं. लेकिन वहीं जब यही 'कॉम्‍प्रोमाइज' करने वाली या 'करने' के लिए मना करने वाली हीरोइन सामने आकर यह कह देती है कि 'हां, मुझसे इस फिल्‍म के लिए फलां एक्‍टर को इस तरह खुश करने के लिए कहा गया' तो आखिर हमारे लिए इस बात पर विश्‍वास करना इतना मुश्किल क्‍यों हो जाता है? जिन फिल्‍मी महिलाओं पर हम बड़ी आसानी से 'बिकाऊ' होने का टैग लगा देते हैं, वहीं महिला जब ये सच नंगा कर देती है कि आखिर उसे 'खरीदने' की कीमत किसने दी तो हम उस 'खरीददार मर्द' पर शक क्‍यों नहीं कर पाते?

fallback
पिछले कुछ दिनों से बॉलीवुड एक्‍ट्रेस तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर के बीच उठा 10 साल पुराना विवाद सुर्खियों में है. 

ये तर्क महज सिनेमाई इंडस्‍ट्री से जुड़ा नहीं है, दरअसल ये 'विक्टिम शेमिंग' की ऐसी पोषित सोच है जो हमें अक्‍सर किसी भी शोषण की घटना के बाद यही तर्क देने की क्षमता देती है कि 'कपड़े ही ऐसे पहने होंगे', 'इतनी रात में वहां कर क्‍या रही थी' या 'इतने बोल्‍ड सीन कर लिए, अब इन्‍हें फलां एक्‍टर का टच, बैड टच लगने लगा..'.पर इस सब के बीच सबसे अच्‍छी बात यह है कि हिंदी सिनेमाई किले में जब से हुनरमंद 'बाहरी' लोगों ने सेंध लगाई है. इस किले के भीतर की नंगी तस्‍वीरें सामने आने लगी हैं. 10 साल पहले जहां 'उत्पीड़न' की बात कहने वाली तनुश्री की कार पर गुडों ने चढ़कर उधम मचाया था, उनकी गाड़ी के शीशे तोड़े थे, वहीं आज 10 साल बाद इस पुराने किस्‍से पर भी बॉलीवुड की बड़ी-बड़ी हीरोइनें उसके साथ में उतर रही हैं. स्‍वरा भास्‍कर, सोनम कपूर जैसी एक्‍ट्रेस तनुश्री का साथ दे रही हैं तो नाना के साथ काम कर चुकीं रवीना टंडन भी इस लड़की को बहादुर कह रही हैं.

तनुश्री सही हैं, या नाना पाटेकर, इसे तय करने की एक पूरी कानूनी प्रक्रिया है, जो इस पर अपना फैसला देगी और उसे देना भी चाहिए. पर मुझे इस बात पर संतोष जरूर है कि कम से कम इस 'बिना खिड़की वाले और बंद दरवाजों' वाले किले में रानियां आक्रां‍ताओं से घबराकर हीरे की अंगूठियां नहीं चाट रहीं या अग्निकुंड में खुद की देह स्‍वाह: नहीं कर रहीं, बल्कि हाथ में तलवार लेकर किले से बाहर आ रही हैं ताकि अपनी अस्मिता के लिए संग्राम करें.

(लेखिका ज़ी न्यूज़ डिजिटल से जुड़ी हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news