हमारे आसपास शोर इतना हो चला है कि हमारी सुनने की क्षमता हर दिन कम होती जा रही है. इसमें भी संकट दो तरह के हैं, पहला शोर इतना है कि हम सुनने में सक्षम नहीं रहे हैं. दूसरा, हम सुनना ही नहीं चाहते! इसमें जो दूसरी वाली बात है, यह कहीं अधिक परेशान करने वाली है. हम केवल सुनाना चाहते हैं. दूसरे के लिए मन, हृदय से ‘जगह’ कम होते जाने से अधिक खतरनाक बात दूसरी नहीं हो सकती. यह हमारी मूल चेतना के विरुद्ध है. मनुष्‍यता के सिद्धांत से इनकार है.


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डियर जिंदगी के पिछले अंक जो सीधे-सीधे घर की चाहरदीवारी से जुड़े थे. परस्‍पर प्रेम और संवाद की बुनियाद पर थे, उन्‍हें पाठकों की बेहद प्रेरक प्रतिक्रियाएं मिलीं.


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जयपुर की जूही वर्मा को सबसे अधिक दस बाई दस के कमरे में दो लोगों के रिश्‍ते वाली बात पसंद आई. वह लिखती हैं, ‘दस बाई बीस के कमरे में रहने वाले दो लोग एक-दूसरे की चाहत का सम्‍मान करने की जगह एक-दूसरे पर हावी होने की कोशिश में जिंदगी को नरक बना लेते हैं. जो जैसा है, उसे वैसा ही स्‍वीकार करने की आदत लाखों लोगों का जीवन शांत, सुखमय बना सकती है. लेकिन परवरिश, स्‍त्री-पुरुष संबंधों की पाठशाला इतनी जटिल रही है कि एक-दूसरे को समझना मुश्किल हो चला है. जब साथ रहने वाले एक-दूसरे को नहीं समझते, तो दुनिया के लिए इसे समझना तो दूर की कौड़ी है.’


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रांची से दुष्‍यंत शॉ ने लिखा, ‘डियर जिंदगी’ हमारा अबोला खत्‍म करने की दिशा में जरूरी पहल है. हम जिस तेजी से मन की नदी पर बांध बनाते जा रहे हैं, उससे मन का सूखा इतना बढ़ गया है कि सबसे ज्‍यादा हमें ही उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है.’


अगर आप ध्‍यान से देखें तो पाएंगे कि तनाव हमारी आत्‍मा तक कैसे और कहां से पहुंच रहा है. यह अदृश्‍य नहीं है. तनाव और डिप्रेशन तो हमारे सामने ही, हमारी समझ के पर्दे को पार करके ‘मन’ से होते हुए आत्‍मा तक पहुंच रहे हैं.


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रिश्‍तों में बाधा शुरू ही वहां से होती है, जहां से संवाद खत्‍म होता है. जैसे ही हम एक-दूसरे को सुनना कम कर देते हैं. मन की नदी में स्‍नेह का सूखा शुरू हो जाता है. जरा तलाक और पति- पत्‍नी के समाप्‍त हो चुके संबंधों की पड़ताल कीजिए, तो आप इस बात को आसानी से समझ सकते हैं. हम संबंधों की बुनियाद कुछ इस तरह से तैयार करते हैं कि उसमें असहमति के लिए कुछ रखते ही नहीं.


हम बड़े ही कुछ इस तरह से हुए हैं कि सबकुछ सहमति की भावना से ही शुरू करते हैं. इसमें दूसरे की भावना, असहमति के लिए कुछ होता ही नहीं.


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काश! हम अपने बचपन से कुछ सीख पाते! यह कितने अचरज की बात है कि बचपने की सारी बातें बड़े होते ही भूल जाते हैं. छुटपन में हम कितने प्‍यार, संवदेनशीलता से एक-दूसरे को सुनते, एक-दूसरे को ‘स्‍पेस’ देते थे. यह कितनी सरल, सहज बात है, लेकिन बचपन की सरहद पार करते ही हम इसे घर पर रखकर जिंदगी के मैदान में उतरते हैं. एक-दूसरे के लिए अपने दरवाजे बंद करते हुए हम भूल जाते हैं कि कभी किसी रोज़ हम भी बारिश, धूप और आंधी में किसी के दरवाजे पर खड़े मिल सकते हैं.


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जिंदगी कुछ और नहीं, अतीत का बूमरैंग है, इसलिए, वर्तमान को संवारिए, जिससे अतीत कुछ रोशन हो सके...


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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