भारत के 70 साल के राजनैतिक इतिहास में चुनाव से पहले दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के लिए चुनावी वादे किए जाते रहे हैं, लेकिन 2019 चुनाव में पारंपरिक रूप से वंचित माने गए इन तबकों के बजाय अगड़ी जातियों की फ्रीक्वेंसी फाइनट्यून करने की ज्यादा कोशिश दिख रही है.
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लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, राजनीति की बिसात पर मोहरे नई अदा से आगे बढ़ रहे हैं. भारत के 70 साल के राजनैतिक इतिहास में चुनाव से पहले दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के लिए चुनावी वादे किए जाते रहे हैं, लेकिन इस चुनाव में पारंपरिक रूप से वंचित माने गए इन तबकों के बजाय अगड़ी जातियों की फ्रीक्वेंसी फाइनट्यून करने की ज्यादा कोशिश दिख रही है.
देश के बाकी राज्यों के बजाय लोकसभा की 80 सीटें देने वाले उत्तर प्रदेश में यह प्रभाव सबसे साफ नजर आ रहा है. मोदी सरकार ने अनारक्षित कोटे को 50 फीसदी से घटाकर 40 फीसदी कर दिया और इसका 10 फीसदी हिस्सा अनारक्षित जातियों के खास आर्थिक तबके के लिए सुरक्षित कर दिया. इस तरह आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था में बिना कोई बदलाव किए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगड़ी जातियों को यह संकेत देने की कोशिश की है कि वे उनके शुभचिंतक हैं. जाहिर है तीन राज्यों की हार के बाद बीजेपी को ऐसे संकेत मिले होंगे कि अगड़ी जातियां भगवा दल से कुछ खफा-खफा सी हैं.
बीजेपी के आरक्षण के फैसले को ज्यादातर दलों ने समर्थन दिया. समर्थन देने वाले दलों में कांग्रेस के अलावा यूपी की प्रमुख पार्टियां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी शामिल रहीं. लेकिन समर्थन देने के बावजूद इन दोनों पार्टियों को पता है कि सवर्णों का बहुत ज्यादा वोट उन्हें मिलने वाला नहीं है. उत्तर प्रदेश में करीब 20 फीसदी सवर्ण वोटर हैं.
इसलिए ये पार्टियां चाहती हैं कि कम से कम उत्तर प्रदेश में सवर्ण वोटों का बंटवारा कराया जाए. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि कांग्रेस से उनकी पार्टी के अच्छे संबंध हैं, लेकिन अंकगणित को देखते हुए उन्होंने यूपी में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं किया. तो अखिलेश यादव किस तरह के अंकगणित की बात कर रहे हैं. कहीं उनका इशारा इस तरफ तो नहीं है कि कांग्रेस गठबंधन से बाहर रह कर चुनाव लड़ेगी तो बीजेपी के हिस्से का कुछ सवर्ण वोट काट लेगी. इस तरह यूपी की 80 सीटों पर कांग्रेस बाहर से लड़कर गठबंधन को फायदा पहुंचा देगी. इस मदद के एवज में सपा-बसपा कुछ सीटों पर कमजोर प्रत्याशी उतारकर कांग्रेस का अहसान चुका देंगीं.
यूपी के गठबंधन में कांग्रेस के भविष्य को जांचने से पहले जरा सांख्यिकी देख लें. लोकसभा चुनाव 2014 में यूपी में बीजेपी को 42.63 फीसदी, सपा को 22.35 फीसदी, बसपा को 19.77 फीसदी और कांग्रेस को 7.53 फीसदी वोट मिले थे. वहीं विधानसभा 2017 में जब कांग्रेस और सपा साथ आ गए तो बीजेपी को 39.67 फीसदी, सपा को 21.82 फीसदी, कांग्रेस को 6.25 फीसदी और बसपा को 22.23 फीसदी वोट मिले.
यानी लोकसभा में अलग-अलग लड़ने और विधानसभा में एक साथ लड़ने के बावजूद सपा और कांग्रेस के कुल वोट में बहुत अंतर नहीं आया. सपा-कांग्रेस के साथ आने से दोनों दलों के कुल मिलाकर 1.5 फीसदी वोट कम हुए. यानी गठबंधन ने दोनों दलों को बहुत बड़ा फायदा नहीं पहुंचाया. लेकिन जो बात सांख्यिकी में नहीं दिख रही, वह बात दोनों पार्टियों के नेताओं के दिमाग में चल रही थी.
समाजवादी पार्टी के सूत्रों का मानना है कि सपा और बसपा का पारंपरिक वोटर बीजेपी के वोटर से अलग है. वहीं कांग्रेस के पास बचे हुए वोटर का एक हिस्सा बीजेपी के वोटर के मिजाज से मेल खाता है. उनका मानना है कि अगर कांग्रेस गठबंधन से बाहर रहकर चुनाव लड़ती है तो वह बीजेपी का सवर्ण वोट काट सकती है. वहीं अगर महागठबंधन बनता है तो कांग्रेस बीजेपी के सवर्ण वोट को नहीं काट पाएगी. उल्टे चुनाव सांप्रदायिक लाइन पर होने का खतरा अलग से मंडराने लगेगा.
सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस की अब तक की रणनीति के मुताबिक गठबंधन 8 से 10 सीटों पर कमजोर प्रत्याशी उतार देगा और यहां बीजेपी का मुख्य मुकाबला कांग्रेस से होगा. जो काम अब तक रायबरेली और अमेठी की सीटों पर होता था, वही काम अब 8 से 10 सीटों पर हो जाएगा.
इस छुपे हुए गठबंधन से यूपी कांग्रेस भी खुश है. यूपी के नेताओं को लगता है कि अगर कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होती तो पार्टी को 10 से 15 सीट से ज्यादा नहीं मिल पातीं. ऐसी सूरत में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस यूपी से गायब ही हो जाती. लेकिन पार्टी ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ेगी तो कार्यकर्ताओं में उत्साह बना रहेगा.
पिछले लोकसभा चुनाव पर नजर डालें तो यूपी में रायबरेली और अमेठी सीटें कांग्रेस ने जीती थीं. वहीं, सहारनपुर, सुल्तानपुर, फर्रुखाबाद, जालौन, झांसी, हमीरपुर, फतेहपुर, फैजाबाद, गोंडा, महाराजगंज, कुशीनगर, बांसगांव और रॉबर्ट्सगंज सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों को इतने वोट मिल गए थे कि अगर कांग्रेस यहां अलग से चुनाव लड़ेगी तो सपा-बसपा गठबंधन का चुनावी गणित बिगाड़ सकती है. जाहिर है ऐसे में यह सीटें कांग्रेस के मोलभाव के काम आ सकती हैं.
कांग्रेस के कुछ नेताओं की सोच यह भी है कि 2014 और 2017 से ही सारा गणित न किया जाए. वे 2009 लोकसभा चुनाव की भी याद दिलाते हैं जब सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों को 20 से अधिक सीटें मिली थीं और बीजेपी दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पाई थी. ऐसे में बीजेपी चाहती है कि उसका पारंपरिक सवर्ण वोटर उसके साथ रहे और पार्टी 2014 का प्रदर्शन दुहराए. वहीं कांग्रेस के कंधे पर सवारी कर सपा-बसपा सवर्ण वोटर में सेंध लगाने की कोशिश में हैं.
इस तरह चारों प्रमुख पार्टियां इस फिराक में हैं कि सवर्ण वोटरों को या तो अपनी तरफ खींचा जाए या फिर उनका ऐसा बिखराव हो कि पार्टी को फायदा हो जाए. जब किसी वोटर समूह के साथ पार्टियां ऐसा व्यवहार करती हैं तो उसे वोट बैंक कहा जाता है. इस तरफ 2019 का लोकसभा चुनाव पहली बार सवर्णों को भी प्रभुत्वशाली या डॉमिनेन्ट कास्ट से वोट बैंक वाले वोटर में बदलने वाला साबित हो सकता है.
(लेखक पीयूष बबेले जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)