अक्षय तृतीया का क्या है महत्व, जानिए उन महान लोगों की कथाएं जिन्होंने इस दिन अवतार लिया

अक्षय तृतीया के दिन नर-नारायण, परशुराम व हयग्रीव के अवतार हुए थे. इन विभूतियों के अवतार ने भी अक्षय तृतीय को पावन बनाया था. इसलिए मान्यतानुसार नर-नारायण, परशुराम व भगवान हयग्रीव को जौ का सत्तू, कमल ककड़ी व भीगी चने की दाल का भोग का भोग लगाते हैं. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : May 14, 2021, 09:04 AM IST
  • अक्षय तृतीया के दिन हुआ था त्रेतायुग का आरंभ
  • भगवान हयग्रीव और परशुराम ने लिया अवतार
अक्षय तृतीया का क्या है महत्व, जानिए उन महान लोगों की कथाएं जिन्होंने इस दिन अवतार लिया

नई दिल्लीः वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया कहते हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सृष्टि को इसी दिन जल और वायु जैसे अक्षय भंडारों का वरदान प्राप्त हुआ था. इसी दिन पांडवों की पत्नी द्रौपदी को सूर्य देव ने अक्षय पात्र प्रदान किया था. जो हर दिन उन्हें रसोई के लिए भोजन प्रदान करता था. 

पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन नर-नारायण, परशुराम व हयग्रीव के अवतार हुए थे. इन विभूतियों के अवतार ने भी अक्षय तृतीय को पावन बनाया था. इसलिए मान्यतानुसार नर-नारायण, परशुराम व भगवान हयग्रीव को जौ का सत्तू, कमल ककड़ी व भीगी चने की दाल का भोग का भोग लगाते हैं. 

नर-नारायण का जन्म
परमपिता ब्रह्मा के एक पुत्र हुए धर्म. इन्होंने देवी रुचि से विवाह किया , जिनसे उन्हें दो पुत्र हुए नर और नारायण. नर और नारायण भगवान विष्णु के अवतार माना जाते हैं. साथ ही संकेत रूप में यह जीव और आत्मा के प्रतीक भी हैं. जन्म लेते ही वे बदरीवन में तपस्या करने के लिए चले गए.

इनका उद्देश्य धर्म के सही रूप की स्थापना करना था. इन दोनों की तपस्या से ही संसार में सुख और शांति का विस्तार हुआ है. बाद में द्वापर में श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतार लेकर इन्होंने ही लीला रची थी. इनकी तपस्या को देखकर इंद्र को लगा कहीं ये दोनों भाई मेरा इंद्रासन न मांग लें.

इसलिए उसने इनकी तपस्या भंग करने का निश्चय किया. इंद्र ने इसके लिए कामदेव, और अप्सराओं को भेजा, लेकिन नर-नारायण की तपस्या पर कोई असर नहीं पड़ा. तब नर-नारायण ने उन्हें क्षमा किया और अपनी जांघ से उर्वशी प्रकट हुई, जिसे देखकर रंभा लज्जित हो गए. नर-नारायण ने उसे उर्वशी नाम दिया और इंद्र को भेंट कर दिया. इंद्र को पश्चाताप हुआ. 

भगवान हयग्रीव का अवतार
सतयुग के समय एक राक्षस हुआ था हयग्रीव. उसने देवी पराशक्ति को प्रसन्न करके उनसे अमरता का वरदान मांगा. देवी ने इस वरदान को प्रकृति के विरुद्ध बताकर देने से मना कर दिया. तब हयग्रीव ने कहा कि मेरी मृत्यु हयग्रीव के ही हाथ से हो. कोई अन्य न मार सके. हयग्रीव राक्षस का धड़ पुरुष का पर गर्दन से ऊपरी भाग घोड़े का था.

वरदान पाकर हयग्रीव के पाप बढ़ गए और एक दिन उसने ब्रह्मा से वेदों को चुरा लिया. 
इधर, एक दिन देवी लक्ष्मी ने नए अलंकार धारण किए और सोचा कि भगवान विष्णु प्रसन्न होंगे. लेकिन श्रीहरि ने उस ओर देखा ही नहीं. तब लक्ष्मी ने श्राप दिया कि जो गर्दन मेरी ओर मुड़ ही नहीं सकती वह इस धड़ से हट जाए. देवी के श्राप के कारण श्रीहरि की गर्दन लुप्त हो गई. अब लक्ष्मी निराश हुईं. तब देवी पराशक्ति ने उन्हें संबल दिया और कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा से हुआ है.

ठीक उसी समय पृथ्वी पर एक घोड़ा बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ. देवताओं ने श्रीहरि के धड़ पर उसका सिर लगा दिया. इस तरह श्रीहरि हयग्रीव माधव कहलाए. ठीक इसी समय ब्रह्मा, विष्णु से धर्म के रक्षा के लिए मदद मांगने आए. वेदों की चोरी की बात सुनकर विष्णु इसी रूप में हयग्रीव से युद्ध करने निकल पड़े. इस युद्ध में वरदान के अनुसार उन्होंने हयग्रीव का वध कर दिया और धर्म की स्थापना की. 

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भगवान परशुराम का जन्म
त्रेतायुग की शुरुआत में महर्षि जमदग्नि और उनके पत्नी रेणुका के घर पांचवें पुत्र के रूप में श्रीनारायण ने अवतार लिया. उनका नाम राम रखा गया. उन्होंने जल्द ही पिता से सारी विद्या सीख ली और शस्त्र की विद्या के लिए स्वयं महादेव की शरण में गए. भगवान भोलेनाथ ने उन्हें शस्त्र और शास्त्र दोनों की दीक्षा दी.

राम की निपुणता देख उन्होंने एक दिव्य परशु वरदान में दिया, जिसके कारण वह परशुराम कहलाए. इधर, राजा कार्तिवीर्य अर्जुन यानी सहस्त्र अर्जुन ऋषि आश्रम पहुंचा. ऋषि ने सेना सहित उनका सम्मान किया और नंदिनी गाय की कृपा से उन्हें भोजन कराया. सहस्त्र अर्जुन ने नंदिनी गाय को हथियाने के लिए ऋषि आश्रम पर हमला कर दिया और जमदग्नि की हत्या कर दी.

क्रोधित परशुराम ने क्षत्रियों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और अनाचारी हो चुके क्षत्रियों का भार पृथ्वी से कम कर दिया. परशुराम के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने 21 बार धरती को क्षत्रिय विहीन कर दिया था. बाद में श्रीराम के अवतार के बाद वह सिर्फ तपस्या करने लगे. परशुराम अमर हैं. उनका वर्णन रामायण के बाद महाभारत में भी मिलता है. उन्होंने भीष्म और कर्ण को शस्त्र की शिक्षा दी थी. 

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