नई दिल्ली.  बड़े लोग कहते हैं कि धुंआ है तो इसका मतलब है कि इस धुंए के पीछे आग भी है. लक्ष्मी बम नामक फिल्म जिसका नाम बाद में लक्ष्मी  कर दिया गया था वास्तव में विवादास्पद फिल्म ही थी और इसके पीछे का विवाद सही था. किसी भी देश में किसी भी धर्म या संस्कृति का उपहास करके उस पर फिल्म बनाना और उसी फिल्म में किसी दूसरे धर्म को बेहतर बताने की कोशिश अच्छी बात नहीं है. जवाब मिल गया है बुरी नीयत से बनाई गई इस फिल्म को और यह रिलीज़ से पहले ही हो गई है फ्लॉप.


नाम और धर्म जान कर बदला


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मूल फिल्म कंचना में इस फिल्म का नायक एक हिन्दू था जबकि इसकी रीमेक में उसे जानबूझ कर मुस्लिम बना दिया गया और सारी फिल्म में हिन्दुओं को उपहास का पात्र और मुस्लिम्स को बेहतर बताने की कोशिश की गई है. मूल फिल्म का राघव जब आसिफ में बदला गया तभी ज़ाहिर हो गया कि निर्माताओं की कहीं पर निगाहें थीं और कहीं पर निशाना था. 


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फिल्म की शुरुआत ही साफ़ है


फिल्म की शुरुआत में ही साफ़ हो जाता है कि नियत ठीक नहीं है बनाने वालों की. शुरुआत में ही हिन्दू साधू की वेशभूषा वाले व्यक्ति को भूत भगाते हुए दिखाया जाता है. फिर दिखते हैं कि मुस्लिम हीरो आसिफ वहां पहुंच कर उसकी पोल खोल देता है और लोगों की भीड़ के सामने खुद महान बन कर उसे ढोंगी सिद्ध कर देता है. फिल्म के बीच के सीन्स में पंडितों को दिखाया है कि हिन्दू मंदिर के पंडित लोग  पैसा ऐंठने वाले ढोंगी पाखंडी होते हैं. इतना ही नहीं जहां हिन्दू भूत भगाने वाले को नकली दिखाया जा रहा है वहीं मुस्लिम भूत भगाने वाले को असली  दिखाया जाता है जो कि भूत पर काबू पा लेता है. 


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घटिया किस्म का हिन्दू परिवार 


आगे हिन्दू हीरोइन का परिवार दिखाया जाता है जो मध्यमवर्गीय परिवार है लेकिन घटिया किस्म का है. गृहस्वामी अर्थात हीरोइन का पिता आलसी निकम्मा टाइप का है जो आँखें खोल कर मुर्दे की तरह सोता है. गृहस्वामिनी अर्थात उसकी पत्नी अर्थात हीरोइन की अधेड़ उम्र की मम्मी दारु की बोतल हाथ में रखती है और सबके सामने बोतल गटक कर पति को तू-तड़ाक की भाषा में डाटती है. इसे देख कर ही पता चल जाता है कि हिन्दुओं के घर का क्या हाल है. जबकि ये मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार का सच नहीं है. देश हो या विदेश संस्कार आपको इन्हीं परिवारों में देखने को मिलेंगे.


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बहू और बच्चे भी दिखाए गड़बड़ 


इस मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार में हीरोइन का भाई निकम्मा और डरपोक टाइप का दिखाया जाता है वहीं उसकी पत्नी अर्थात हीरोइन की भाभी जो घर की बहू है उसे मौका ताड़ कर चरित्रहीन टाइप की हो जाने वाली महिला दिखाया गया है. एक छोटे सीन में वह अपने घर नए नए आये आसिफ के डोले न केवल छूती है  बल्कि सहलाती भी है. इस दौरान वह ऊहह..ओह्ह्ह भी करती है और चेहरे पर बहुत कामुक ढंग का एक क्षण का भाव भी दिखाती है. पतित चरित्र की इस बहू के बच्चे भी वैसे ही भेदभाव करने वाले दिखाए गए हैं.    


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'अपना टाइम आयेगा' जागरण में


माता के जागरण में भजन नहीं होते हैं बल्कि दिखाया जाता है कि आसिफ गा रहा है 'अपना टाइम आयेगा' और वहां बैठे श्रद्धालु ताली मार कर झूम रहे हैं. आसिफ गृहस्वामी अर्थात हीरोइन के पिता जी को ज्ञान देता है और ज्ञान भी धर्म का देता है. सीन में मुस्लिम हीरो आसिफ अपनी हिन्दू गर्लफ्रेंड के पिता को बताता है कि हम मुसलमानों में ऐसा होता है...इसके बाद आगे जैसा कि आज तक हर हिन्दुस्तानी फिल्म में दिखाया जाता रहा है - उसी  टिपिकल तरीके से एक महान मुस्लिम व्यक्ति का फिल्म में होता है प्रवेश -और ये होता हैअब्दुल, जो छोटे से हिन्दू बच्चे की मदद करता है और उसे पाल-पोस कर बड़ा करता है. फिर उसकी जान बचाने की कोशिश के दौरान हिन्दू विलेन के हाथों अब्दुल अपनी जान दे देता है. इस तरह अब्दुल हर हिंदी फिल्म की तरह इसमें भी अपने महान होने पर मुहर लगा देता है.   


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ज्ञान दर्शकों ने दे दिया


दर्शकों को फिल्म के माध्यम से साजिशाना ज्ञान देने की कोशिश करने वालों को दर्शकों ने ही ज्ञान दे दिया है. इस निकम्मी फिल्म को रिलीज़ के पहले ही फ्लॉप करने के साथ दर्शकों ने फिल्म निर्माताओं को ये ज्ञान मुफ्त में दिया है कि अब भारत में ऐसी कोशिश कामयाब नहीं होगी. साजिशाना फिल्में न बनायें. फिल्म में या तो कोई भी एक धर्म दिखायें और उसकी अच्छी या बुरी या दोनों बातें दिखायें  किन्तु ये ठीक नहीं होगा जब आप एक धर्म को अच्छा और एक धर्म को बुरा दिखायेंगे वो भी उस धर्म के विरुद्ध जिन बहुसंख्यकों के देश में आप रहते हैं.  


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