डॉ. सालिम अलीः उस शख्स की कहानी जो चिड़ियों से बात करता था, खोजे थे उनके रहस्य

डॉ. सालिम अली को पक्षियों की बात, बोली-भाषा समझ आने लगी थी और वह उनसे बातें करने लगे थे. इसी के चलते कुमाऊँ के तराई क्षेत्र से बया पक्षी की एक ऐसी प्रजाति ढूंढ़ निकाली जो लुप्त घोषित हो चुकी थी. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Jun 20, 2021, 11:13 AM IST
  • बॉम्बे के सुलेमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में 12 नवम्बर 1896 को जन्मे थे अली
  • भारत सरकार ने उन्हें सन 1958 में पद्म भूषण व 1976 में पद्म विभूषण से नवाजा
डॉ. सालिम अलीः उस शख्स की कहानी जो चिड़ियों से बात करता था, खोजे थे उनके रहस्य

नई दिल्लीः Dr. Salim Sli Death Anniversary: वह स्कूल में था तो गणित का क्लास से भागा-भागा फिरता था. खासकर जिस दिन बीजगणित की क्लास होती तो किसी भी संख्या को X मान लेना उसके लिए सबसे मुश्किल काम था. इतना कि उसका सिरदर्द होने लगता और बॉम्बे के उस स्कूल में तब इतनी तो सहूलियत थी ही कि कोई बच्चा बीमार हो तो उसे खुली हवा में भेज दिया जाए. स्कूल की नीची चारदीवारी और उसके पार जंगल. 

अलग ही दुनिया में रहने वाला बच्चा

ये खुली हवा सालिम अली के लिए बस हवा नहीं दूसरी ही दुनिया थी. अचरज, रहस्य और रोमांच से भरी. यहां कोई X,Y या Z नहीं था. यहां सबकी अलग पहचान थी और शायद सबके अलग नाम भी थे, दिक्कत यही थी कि बच्चा सालिम उनके नाम नहीं जानता था. वह कोई चौड़े पंख वाले, कोई लंबी चोंच वाले, किसी की गोल आंख तो किसी की सुनहरी गर्दन.

सालिम उन्हें अचरज से देखता और उनकी खासियतें अपनी कॉपी में नोट कर लिया करता. 12 साल की उम्र में वह शायद ही जानता था कि बचपन की यह कारस्तानिया एक दिन उसे पक्षी वैज्ञानिक सालिम अली बना देगी. आज उनकी बात इसलिए क्योंकि 20 जून 1987 को यह पक्षी वैज्ञानिक पखेरुओं के संसार में ही चला गया. 

बचपन में ही हो गया मां-पिता का निधन

बॉम्बे के एक सुलेमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में 12 नवम्बर 1896 को जन्मे सालिम माता-पिता के सबसे छोटे और नौंवे बच्चे थे. एक साल के हुए तो अब्बा हुजूर मोइज़ुद्दीन चल बसे और तीन साल की उम्र में अम्मी ज़ीनत भी नहीं रहीं. बच्चे सालिम से किसी ने कहा कि अम्मी वहां से परिंदों के जरिए खत भेजेंगी.

सालिम अली उन खतों का इंतजार करते बड़े होने लगे और हर परिंदे को गौर से देखते कि शायद कोई परिंदा खत ले आया हो. उनके मामा अमिरुद्दीन तैयाबजी और चाची हमिदा खेतवाड़ी इलाके में रहते थे और सालिम इन्ही सारी परिस्थितियों में पढ़ने-लिखने और बढ़ने लगे. 

...और एक दिन जीवन में मोड़ आया

घर का माहौल और बहुत कुछ बातें ऐसी कि सालिम के मन में भी उड़ती चिड़ियों को आसमान से गिराने का शौक लगा. लेकिन एक दिन हुआ कुछ ऐसा कि जिसने जिंदगी ही बदल दी. एक बार उन्होंने एक गोरैया का शिकार किया. जब उन्होंने उस गोरैया को करीब से देखा तो वह कुछ अलग लगी. उसकी गर्दन पर एक पीला धब्बा था, जो सालिम ने कभी नहीं देखा था. चाचा अमिरुद्दीन से भी पूछा लेकिन वह भी इस मामले में नाकाबिल रहे. 

पक्षियों के संसार में सालिम अली

तब चाचा ने ही उन्हें बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के सचिव डब्ल्यू. एस. मिलार्ड के पास भेज दिया. मिलार्ड छोटे सालिम की इस जिज्ञासा से खुश हुए. उन्होंने न केवल सालिम को उस पक्षी की पहचान बताई, बल्कि पक्षियों के इस खूबसूरत और अचरज भरे संसार से भी रूबरू करा दिया. पीले धब्बे वाली वह चिड़िया सोनकंठी गौरैया थी.

उन्होंने सालिम अली को ‘कॉमन बर्ड्स ऑफ मुंबई’ नाम की एक किताब भी दी. सालिम अली ने आगे जब अपनी आत्मकथा ‘फॉल ऑफ ए स्पैरो’ लिखी तो उस किताब के लिखे जाने के पीछे इसी घटना का महान योगदान है. एक गौरेया का गिरना, जिसने सालिम अली को ऊंचाई तक उठा दिया. 

आज बर्डवाचिंग है एडवेंचर में शामिल

अब छोटे में बताते चलें तो सालिम ने बड़ी मुश्किल से दसवीं पास की. फिर बर्मा में बड़े भाई के पास चले गए. बुलफ्रेम की माइनिंग करने लगे, लेकिन असफल रहे. पक्षियों की खोज में जुटे तो प्राणिशास्त्र विषय में कोर्स कर लिया. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के अजायबघर में गार्ड बन गए, लेकिन इस काम में मजा नहीं आया.

फिर कुछ पैसे जोड़-तोड़ करके उच्च प्रशिक्षण के लिए जर्मनी चले गए. लौटे तो नौकरी जा चुकी थी. लेकिन मस्त मौला सालिम दोनों हाथ सिर के पीछे बांधकर पक्षियों को इधर-उधर फुदकते निहारा करते थे. वर्डवाचिंग वाला उनका यह काम आज दुनिया भर में एडवेंटर पसंद लोगों के लिए शौक बना हुआ है. बर्डवाचिंग के इसी शौक से एक रोज अली के हाथ बड़ी उपलब्धि लग गई. 

खोज निकाली थी बया की प्रजाति

कहते हैं कि उन्हें पक्षियों की बात, बोली-भाषा समझ आने लगी थी और वह उनसे बातें करने लगे थे.

इसी के चलते कुमाऊँ के तराई क्षेत्र से बया पक्षी की एक ऐसी प्रजाति ढूंढ़ निकाली जो लुप्त घोषित हो चुकी थी. लेकिन सालिम अली ने ही बताया कि यह बया अभी लुप्त नहीं हुई है, बल्कि कुछ मौसमी बदलावों या कुछ अन्य कारणों से इस प्रजाति का व्यवहार बदल गया है. बया की इस प्रजाति को कुमाऊं में संरक्षित किया गया है. 

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पक्षियों को पकड़ने के आसान तरीके बताए

डॉ. सालिम अली ने ही अपनी खास खोजों के जरिए बताया कि साइबेरियन सारस मांसाहारी नहीं होते, बल्कि वे पानी के किनारे पर जमी काई खाते हैं. वे पक्षियों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते थे और उन्हें बिना कष्ट पहुंचाए पकड़ने के 100 से भी तरीके उन्होंने ईजाद किए थे. पक्षियों को पकड़ने के लिए डॉ सलीम अली ने प्रसिद्ध ‘गोंग एंड फायर’ व ‘डेक्कन विधि’ की खोज की जिन्हें आज भी पक्षी विज्ञानी प्रयोग करते हैं. 

पद्म पुरस्कारों से हुए सम्मानित

सालिम अली के हिस्से बहुत से सम्मान भी आए हैं. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी. उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए उन्हें भारत सरकार ने भी उन्हें सन 1958 में पद्म भूषण व 1976 में पद्म विभूषण जैसे महत्वपूर्ण नागरिक सम्मानों से नवाजा.

पक्षी विज्ञान के क्षेत्र में खास योगदान के को देखते हुए ‘बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी’ और ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ ने कोयम्बटूर के ‘अनाइकट्टी’ में ‘सालिम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक इतिहास केंद्र’ स्थापित किया है. जो आज भी पक्षियों के इस खास दोस्त की याद दिलाता रहता है. 

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