नई दिल्ली: महाराष्ट्र के इस कदर सियासी उठापटक का दौर चल रहा है, जिसने हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींच रखा है. कयास लगाई जा रही है कि आज तस्वीर साफ हो सकती है. गुवाहाटी में बागी विधायकों का मंथन चल रहा है, तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे अपनी सरकार बचाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. वहीं फडणवीस भी जोड़-तोड़ की गणित लगा रहे हैं. ऐसे में आपको उस कानून के बारे में बताते हैं, जिस पर महाराष्ट्र खास कर शिवसेना और उद्धव सरकार का पूरा भविष्य टिका हुआ है.
दल बदल कानून से किसे मिलेगी मजबूती?
ऐसी राजनीतिक संग्राम के बीच सभी पार्टियों की अपनी-अपनी जद्दोजहद रहती है. दल बदल कानून की बात करें तो इससे काफी हद तक एकनाथ शिंदे को फायदा पहुंचता दिख रहा है, तो वहीं इससे उद्धव ठाकरे एंड कंपनी को नुकसान झेलना पड़ सकता है.
भले ही महाराष्ट्र में जोड़ तोड़ से उद्धव की जमीन खिसकती दिख रही हो, लेकिन यहां ये जानना अहम हो जाता है कि आखिर दल बदल कानून क्या होता है.
क्या होता है दल बदल कानून? जानें सबकुछ
अगर किसी भी राजनीतिक दल के दो तिहाई से अधिक लोकसभा या विधानसभा सदस्य पार्टी से बगावत करके अलग गुट बना लेते हैं तो उनकी सदस्य रद्द नहीं की जा सकती है, ऐसा दल बदल कानून कहता है. मतलब ये साफ है कि दो तिहाई से ज्यादा सांसद या विधायक किसी भी पार्टी या उसकी नेतृत्व से नाराज हो जाते हैं और जो भी फैसला लें, वो माना जायेगा.
अगर कोई एक सांसद या विधायक पार्टी छोड़ता है, सदस्यता से इस्तीफा देता है या किसी दूसरी पार्टी में शामिल होता है और वर्तमान पार्टी के खिलाफ काम करता है तो पार्टी अध्यक्ष और सदन सचेतक (Chief Whip) की अनुशंसा पर सभापति उसकी सदस्यता रद्द कर सकते हैं.
यदि बगावत करने वाले विधायक या सांसदों की संख्या दो तिहाई से अधिक हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी और उनके गुट को ही मुख्य पार्टी माना जायेगा.
इस हिसाब से उद्धव ठाकरे की नैया डूबती नजर आ रही है, क्योंकि शिवसेना के कुल 55 विधायक हैं और दावा किया जा रहा है कि 41 शिवसेना विधायक एकनाथ शिंदे के खेमे में हैं यानी 55 विधायकों में से सिर्फ 14 शिवसेना के पास मौजूद हैं. ये संख्या उद्धव के खिलाफ है, जो दो तिहाई से अधिक है. इसीलिए दल बदल कानून के सहारे भी उद्धव ठाकरे बागी विधायकों का कुछ नहीं कर सकते.
दलबदल कानून का इतिहास
साल 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया. साथ ही संविधान की दसवीं अनुसूची जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है को संशोधन के माध्यम से भारतीय से संविधान जोड़ा गया.
दल-बदल कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को निम्नलिखित आधार पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है.
- एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है.
- कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
- किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है.
- कोई सदस्य स्वयं को सदन में वोटिंग से खुद को अलग रखता है.
- छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
ऐसे में नहीं लागू होगा दलबदल कानून
दल-बदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों. ऐसे में न तो दल-बदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर.
गौरतलब है कि दलबदल कानून के मुताबिक सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है. यदि सदन के अध्यक्ष के दल से संबंधित कोई शिकायत प्राप्त होती है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है.
इस कानून से और अब तक की स्थिति देखकर ये समझा जा सकता है कि एकनाथ शिंदे को फायदा होने वाला है और उद्धव ठाकरे को भारी नुकसान होने वाला है.
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