नई दिल्लीः World Music Day 2021: बात उन दिनों की है जब मशहूर रसायन शास्त्री Dmitri Mendeleev (दिमित्री मेंडलीव) रसयान विज्ञान में तत्वों का वर्गीकरण करने और उन्हें क्रमबद्ध तरीके से एक टेबल फॉर्म में रख रहे थे. किस आधार पर रखें यह समझ नहीं आ रहा था. कहते हैं कि एक दिन उन्होंने संगीत सुना, (शायद भारतीय शास्त्रीय संगीत) और उन्हें, लगा कि वाह, इससे तो काम बन जाएगा.
आइडिया यह था कि जिस तरह भारतीय संगीत परंपरा में सातों सुर को आरोही (नीचे से ऊपर) क्रम में गाया जाया तो इसके बाद आने वाला आठवां सुर ठीक पहले सुर के बराबर के होता है. दिमित्री ने अपना पियानो निकाला और इसे बजाकर देखा. नतीजा, आज के रसायन शास्त्री और इस विज्ञान के छात्र बड़ी आसानी आवर्त सारणी में हर तत्व का सही स्थान जान पाते हैं.
आज है World Music Day
तत्वों को परमाणु भार के अनुसार बढ़ते क्रम में संगीत के सुरों के हिसाब से रखा जाता है, तो इस सिरीज में आठवां तत्व, पहले तत्व के समान गुण रखता है. मैक्स प्लांक, जिन्होंने फिजिक्स को प्लांक का सिद्धांत दिया उन्हें भी पियानो और बांसुरी बजाना बहुत अजीज था. वह चर्च में कैरोल भी गाते थे. इसी संगीत की प्रेरणा से उन्होंने भौतिकी को उसका सबसे जरूरी सिद्धांत दिया.
संगीत की बात इसलिए क्योंकि दुनिया आज Music की दीवानी हुई जा रही है, आज मौका औऱ दस्तूर दोनों ही है, आज World Music Day है. हर साल इसे 21 जून को मनाया जाता है.
भारतीय संगीत की बात करें तो जैसे विश्व की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हुई मानी जाती हैं, ठीक वैसे ही दुनिया भर के संगीत की प्रेरणा भारतीय सुर ही हैं. पश्चिम के संगीत भले ही अल्फा, बीटा में बिंधे हों, लेकिन उनके भी मूल स्वरों में षडज-ऋषभ-गांधार (सा रे ग म) ही सुनाई देते हैं. हालांकि उनका स्वरूप थोड़ा अलग होता है.
संगीत, वेदों का गान
एक खास बात है कि संगीत कभी भी स्वतंत्र रूप से सामने नहीं आया था. वेदों में भी इसे सामवेद में जगह मिली है, जहां यज्ञ के लिए बोली जाने वाली ऋचाओं और देवताओं के आह्वान के लिए मंत्र उच्चारण का पाठ स्वर सहित करना जरूरी बताया गया है.
यह स्वर कैसे और किस तरह के होने चाहिए, जब इस सवाल ने अपना सिर उठाया तब इसके जवाब में संगीत की उत्पत्ति हुई. यानी सबसे पहले मंत्रों और ऋचाओं की साधना के जरिए स्वर फूटे और संगीत खुद साधना बन गया.
भरत का नाट्यशास्त्र और संगीत
आधुनिक दौर में भी संगीत का जिक्र भरत के नाट्य शास्त्र में मिलता है. जहां संगीत कोई स्वतंत्र विधा नहीं बल्कि नाटक की गढ़ी हुई कहानी को आगे बढ़ाने का जरिया बनता है. 21वीं सदी में भी इस फॉर्मूले का एक चेहरा आपको फिल्मों के तौर पर मिलेगा, जहां ढाई से 3 घंटे की फिल्म में 5 से 6 गाने होते ही होते हैं. कहानी से इतर यह गाने अपना अलग ही आकर्षण गढ़ते-रचते हैं और जुबां पर चढ़ जाते हैं.
इसी नाट्य शास्त्र के बाद ही संगीत को अलग से निकालकर सामने रखा गया और एक बार फिर यह कभी मीरा के भक्ति पद में रम गया तो सूरदास के वात्सल्य का चेहरा बन गया. यही संगीत तुलसी के राम हैं और सूफियों की नस-नब्ज में बहने वाला इश्क भी, जिसके वास्ते इश्क सूफियाना हो जाता है.
घरानों ने दिया संगीत को संरक्षण
मध्यकाल वाले भारत में, जब एक ओर युद्धों का इतिहास बन रहा था तो दूसरी तरफ संगीत का बरगद भी जड़े जमा रहा था. हिंदी ने इसे अपने शब्दों में रीतिकाल कहा है. जहां श्रृंगार रस और अन्य आठ रसों के साथ संगीत दरबारों की शान बन गया. इन दरबारों में सजने से पहले संगीत को घरानों ने संरक्षण दिया. समय बदलता गया घराने बनते-बढ़ते गए.
आगरा, ग्वालियर, इंदौर, जयपुर, किराना, पटियाला और बाद में दिल्ली, तलबंडी, मेवाती और भिंडी बजारा घराना. ग्वालियर घराने को इनमें से सबसे अधिक ख्याति मिली. इसी घराने के नगीने थे तानसेन और बैजू बावरा.
आमतौर पर राजाओं को तीर-तलवारों के लिए जाना जाता है, लेकिन ग्वालियर का शासक मान सिंह तोमर कला का पुजारी था. तानसेन की पहली संगीत शिक्षा उसकी देखरेख में ही हुई. कहते हैं कि रीवा के राजा रामचंद्र के दरबार में जब अकबर ने तानसेन को सुना तो उन्हें राजा से मांग लिया. रीवां नरेश ने भारी मन से तानसेन को आगरा भेजा और खुद उनकी पालकी को कंधा दिया था.
जिसने जैसा समझा, संगीत वैसा बन गया
संगीत सिर्फ साज और गीत से बना शब्द नहीं है. यह अथाह महासागर है. इसमें भाव भी है, शून्य भी, यह समय भी है और समय से परे भी, प्रारंभ भी है और अनंत भी है. एक-एक कदम बढ़ाते जाएंगे तो गहराई में उतरते जाएंगे और जैसे-जैसे समझते जाएंगे पार उतरते जाएंगे.
सबसे खास बात कि आप इसे अपने अनुसार समझ सकते हैं. जैसे किसी भक्त हृदय ने समझा तो यह आराधना बन गया, तपस्वी ने समझा तो तपस्या बन गया, वीर ने समझा तो वीर रस बन गया और प्रेम ने समझा तो प्रेम गीत बन गया.
आज के समय में संगीत की जरूरत
एक तरफ दुनिया योग को अपना रही है तो इसके साथ ही सुरों की भी मुरीद हुई जा रही है. मौजूदा वक्त में यह जरूरी भी है, क्योंकि समय ही ऐसा है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ जरूरी है कि मन का भी इलाज हो. इस मामले में संगीत से बेहतर दवा क्या ही हो सकती है? इस विषय में भी शोध जारी है कि मानसिक तनाव से लेकर और मस्तिष्क व हृदय के कई गंभीर रोगों का इलाज संगीत के जरिए कैसे किया जा सकता है?
प्राचीन भारतीय संगीत का इतिहास
शोध जब भी पूरा और इसके नतीजे जो भी आएं, लेकिन एक बात तो तय है सितार के सुर, तबले की तिरकिट, मृदंग की थाप और बांसुरी की मीठी धुनों में वह जादू है कि लंगड़े के भी पांव खुद थिरकने लगते हैं, गूंगे को बोल फूट पड़ते हैं, बिना आंखो वाला जीवन के रंग समझने लगता है और पत्थर दिल भी पिघल कर मोम का बन जाता है.
हिमालय के दक्षिण और हिंद महासागर से उत्तर में जितना बड़ा भू-भाग फैला हुआ है, उसे प्रकृति ने छह ऋतुओं की सौगात दी है और सात सुरों की नेमत. आध्यात्म की डोर पकड़े-पकड़े यह सौगात पीढ़ी दर पीढ़ी, लोक व्यवहार में मिलती गई. सरस्वती की वीणा से निकलकर, शिव के डमरू से हमसाज होकर सुरों की नदी स्वर्ग तक जाती है और प्राचीन वैदिक इतिहास कहता है कि गंन्धर्वों ने इसे सबसे पहले सीखा और सामवेद में लिख डाला.
विश्व संगीत दिवस का इतिहास
आज जो विश्व संगीत दिवस मनाया जा रहा है, इसकी शुरुआत साल 1982 में फ्रांस में हुई थी और इसका श्रेय तब के सांस्कृतिक मंत्री जैक लैंग को दिया जाता है. इस दिन को फेटे डी ला म्यूजिक (Fete de la Musique) के नाम से भी जाना जाता है.
कहा जाता है कि पहले संगीत दिवस पर फ्रांस के साथ 32 से ज्यादा देश शामिल हुए थे.इस दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए गए थे और पूरी रात जश्न मनाया गया था.अब तो भारत, इटली, ग्रीस, रूस, ऑस्ट्रेलिया, पेरू, ब्राजील, इक्वाडोर, मैक्सिको, कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन, मलेशिया समेत कई देश 21 जून को विश्व संगीत दिवस मनाते हैं.
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