तर्क की कसौटी पर अध्यात्म को कसते थे विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद अंधविश्वास के समर्थक नहीं थे और अध्यात्म के विषयों को तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही उसे स्वीकारते थे..

Written by - Ravi Ranjan Jha | Last Updated : Nov 20, 2020, 11:34 PM IST
  • नहीं मिला पेड़ पर ब्रह्मराक्षस
  • नरेन की आँखों में योगियों सी चमक थी
  • ट्रेन यात्रा के दौरान हुई थी दिव्य घटना
तर्क की कसौटी पर अध्यात्म को कसते थे विवेकानंद

नई दिल्ली.  स्वामी विवेकानंद का मूल नाम नरेंद्र था और इस कारण बचपन में सभी उन्हें नरेन कह कर पुकारते थे.  नरेन की एक खासियत ये थी कि वे हर बात के पीछे तर्क ढूंढ़ते थे. लॉजिक से कोई बात साबित न हो तो वे उसपर भरोसा नहीं करते थे. इसकी मिसाल तमाम उन घटनाओं से दी जा सकती है जो उनके बचपन का हिस्सा बनीं जैसे कि ये घटना जिसका लेना-देना कलकत्ता से था. 

नहीं मिला पेड़ पर ब्रह्मराक्षस 

कलकत्ता के जिस इलाके में वे रहते थे वहां उनके पड़ोस में एक पेड़ था. उस पेड़ पर चढ़ना लटकना बालक नरेन को बहुत भाता था. घर में रहने वाले बुजुर्ग को लगता था कि कहीं नरेन गिर कर जख्मी न हो जाएं इसलिए बुजुर्ग ने उन्हें डराया कि इस पेड़ पर मत चढ़ो क्योंकि इसपर एक ब्रह्म राक्षस रहता है जो इसपर चढ़ने वालों की गर्दन तोड़ देता है. बुजुर्ग को लगा कि आगे से नरेन डरकर पेड़ पर नहीं चढ़ेगा. लेकिन नरेन अगले दिन फिर पेड़ पर चढ़े और दिनभर उसी पर रहे. जब शाम हो गई तो बुजुर्ग दिखे तो नरेन ने कहा कि मैं दिनभर पेड़ पर रहा लेकिन बह्म राक्षस तो आया ही नहीं. मैं उससे मिलना चाहता था. ये सुनकर बुजुर्ग दंग रह गया. 

नरेन की आँखों में योगियों सी चमक थी

दरअसल नरेन के भीतर शुरू से ही सत्य को जानने की, ईश्वर से साक्षात्कार की तीव्र इच्छा थी. यही वजह है कि जो भी कोई धर्म ज्ञान की बात कहता उससे वो पूछ बैठते कि क्या आपने ईश्वर को देखा है. इस सवाल का जवाब भला कौन दे सकता है. नरेन को भी कोई जवाब नहीं दे पाता. लेकिन ये सवाल आग बनकर हर वक्त उनके सीने में धधकता था. इसी सवाल का जवाब जानने के लिए एक दिन वे ब्रह्म समाज के प्रमुख नेता महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर के पास पहुंच गए. नरेन बार-बार उनसे ये सवाल करते और वे ज्ञान और विज्ञान की बातें कहकर टालते थे लेकिन हर बार नरेन अपना सवाल दोहरा देते. आखिर में देवेन्द्र नाथ ने वही जवाब दिया जो बचपन में नरेन के द्वार पर आए एक गरीब फकीर ने दिया था. तुम्हारी आंखों में योगियों सी चमक है. तुम्हें ईश्वर का दर्शन जरूर प्राप्त होगा.

ट्रेन यात्रा के दौरान हुई थी दिव्य घटना 

उससे पहले भी कई दिव्य घटनाएं नरेन की जिंदगी में हो चुकी थीं. साल 1877 में नरेन के पिताजी विश्वनाथ दत्त को 2 साल के लिए कलकत्ता से रायपुर जाना पड़ा. उनके जाने के कुछ दिनों बाद नरेन अपने परिवार के साथ कोलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए. ये अजीबो गरीब सफर था. क्योंकि तब न तो बसें थी और न ही रेलगाड़ी. रेलगाड़ी तब बॉम्बे से नागपुर तक ही चलती थी. इस यात्रा में नरेन को बैलगाड़ी से भी लंबा सफर तय करना पड़ा. रास्ते में प्रकृति की शांत मनोरम छटा देखकर बालक नरेन का मन प्रफुल्लित हो उठता था. इसी दौरान नरेन के साथ एक बेहद अजीब घटना घटी. जिसका जिक्र उन्होंने बहुत बाद के दिनों में खुद किया था. पहाड़ी रास्तों से होकर गुजरते हुए नरेन की नजर अचानक पहाड़ी की कंदरा में लगे मधुमक्खी के छत्ते पर पड़ी. उसी छत्ते को देखते-देखते उनका मन समाधि में चला गया. और जब समाधि से निकले तो सैकड़ो किलोमीटर की दूरी तय हो चुकी थी.

 

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