भारतीय शास्त्रों में शिव-पार्वती के वार्तालाप के जरिए मानव जीवन के लिए जरुरी ज्ञान की बातें सबके सामने लाए जाने की परंपरा है. पार्वती नित्य अपनी जिज्ञासाओं को पति शिव के सामने रखती हैं और वो उसका जवाब देते हैं. एक दिन माता पार्वती ने शिव से पूछा -
प्रेम क्या है बताइए महादेव, कृपया बताइए कि प्रेम का रहस्य क्या है, क्या है इसका वास्तविक स्वरुप, क्या है इसका भविष्य!
शिव ने उत्तर दिया- प्रेम क्या है, यह तुम पूछ रही हो पार्वती? प्रेम का रहस्य क्या है? प्रेम का स्वरुप क्या है? ये तुमसे बेहतर कौन जानता है तुमने ही तो प्रेम के अनेकों रूप उजागर किये हैं पार्वती. तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियां हुई हैं. तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर निहित हैं.
पार्वती:- क्या इन विभिन्न अनुभूतियों की अभिव्यक्ति संभव है?
शिव:- सती के रूप में जब तुमने जब अपने प्राण त्याग दिए और दूर चली गई. तब मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सब निरर्थक और निराधार हो गया. मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएं बहने लगी. अपने से दूर कर तुमने मुझे मुझ से भी दूर कर दिया था पार्वती. ये ही तो प्रेम है पार्वती. तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्टि का अपूर्ण हो जाना ये ही प्रेम है. तुम्हारे और मेरे पुनर्मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है. तुम्हारा पार्वती के रूप में फिर से जन्म लेकर मेरे एकांकीपन और मुझे मेरे वैराग्य से बहार नकलने पर विवश करना, और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है.
महादेव ने आगे कहा- जब जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है. तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विशवास दिलाती रहती हो कि सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है.
जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है, क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है. तुम्हे सुखी देख कर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती.
जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूपमें अपने संरक्षण में मुझे शस्त्र बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी. जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पांव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ और तुम्हारी जिह्वा बहार निकली. वही प्रेम था पार्वती.
जब तुम अपने सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जो कि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, उसका दर्शन देती हो और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जो कि उग्र चंडिका रूप भी है, उसका अनुभव करता हूं.
जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूं कि मैं सत्य देखने में सक्षम हूं. जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूं. इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूं कि मैं कौन हूं. तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूं. यही तो प्रेम है.
जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो कि मैं तुम्हारे योग्य हूँ. जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिबित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती.
रुद्रयामल तंत्र प्रदीपिका से संकलित(शिव पार्वती संवाद)