फांसी की सजा से बचने का आखिरी तरीका है क्यूरेटिव पेटीशन, एक क्लिक में जानें पूरी डीटेल

फांसी जैसी सजा से बचने के लिए आरोपियों द्वारा राष्ट्रपति के पास दया याचिका लगाई जाती है उसके खारिज होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की जाती है. अगर वह भी खारिज हो जाए तो आखिरी तरीका जो बचता है उसे क्यूरीटिव पिटीशन कहा जाता है.    

Written by - Abhishek Nandan | Last Updated : Dec 22, 2022, 07:34 PM IST
  • जानें क्या है क्यूरेटिव पेटीशन
  • फांसी की सजा से बचने का आखिरी रास्ता
फांसी की सजा से बचने का आखिरी तरीका है क्यूरेटिव पेटीशन, एक क्लिक में जानें पूरी डीटेल

नई दिल्ली. भारत में अगल अलग तरह के अपराधों में अलग तरह की सजा का प्रावधान है. कई बार छोटे और अनजाने में हुए अपराधों में हमें केवल नसीहत देकर या छोटा मोटा जुर्माना देकर छोड़ दिया जाता है. पर भारत में गंभीर और जघन्य अपराधों के मामले में उम्रकैद या फांसी तक का प्रावधान है. हालांकि सजा के वक्त हमें यह लगता है कि जो अपराध हमने किया है हमें उसके लिए गलत सजा दी जा रही है, या फिर हम अपने किए गए अपराधों के मामले में सजा से कुछ छूट चाहते हैं. ऐसे में हम ऊपरी अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं. 

क्या है क्यूरेटिव पेटीशन

ऊपरी अदालतों जैसे की हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में हमें अपनी सजा से माफी या उसमें कमी के लिए कुछ प्रक्रियाओं का पालन करना पड़ता है. जैसे फांसी जैसी सजा से बचने के लिए आरोपियों द्वारा राष्ट्रपति के पास दया याचिका लगाई जाती है उसके खारिज होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की जाती है. अगर वह भी खारिज हो जाए तो आखिरी तरीका जो बचता है उसे क्यूरीटिव पिटीशन कहा जाता है.

अगर क्यूरीटीव पिटीशन को भी खारिज कर दिया जाता है तो फिर सजा से नहीं बचा जा सकता. इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे की आखिर क्यूरेटिव पिटीशन क्या होता है जिसका इस्तेमाल फांसी जैसी सजा से बचने के लिए आखिरी उपाय के तौर पर किया जाता है? 

फांसी की सजा से बचने का आखिरी उपाय

दरअसल किसी आरोप में मृत्युदंड या फांसी की सजा से बचने के केवल दो ही तरीके हैं दया याचिका और पुनर्विचार याचिका दया याचिका संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत, जो कि राष्ट्रपति के पास भेजी जाती है जबकि, पुनर्विचार याचिका सुप्रीम कोर्ट में ही दायर की जाती है. लेकिन इन दोनों याचिकाओं के खारिज हो जाने के बाद भी दोषी के पास क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प बचता है.

क्यूरेटिव पिटीशन शब्द की उत्त्पत्ति क्योर शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘उपचार’ होता है. क्यूरेटिव पिटीशन यानी उपचारात्मक याचिका में यह बताना आवश्यक होता है कि याचिकाकर्त्ता किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दे रहा है. क्यूरेटिव पिटीशन का सर्वोच्च नायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता यानी सीनियर वकील  द्वारा प्रमाणित होना अनिवार्य होता है.

क्या है प्रक्रिया

अधिवक्ता द्वारा प्रमाणित होने के बाद यह याचिका उच्चतम न्यायलय के तीन वरिष्टतम न्यायाधीशों जिनमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल होते हैं उनको भेजी जाती है तथा इसके साथ ही यह याचिका से संबंधित मामले में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को भी भेजी जाती है.

यदि उच्चतम न्यायालय की यह पीठ उपरोक्त मामले पर पुनः सुनवाई का निर्णय बहुमत से लेती है तो क्यूरेटिव पिटीशन को सुनवाई के लिये पुनः उसी पीठ के पास भेज दिया जाता है जिसने मामले में पहली या पिछली बार फैसला दिया था. क्यूरेटिव पिटीशन पर निर्णय आने के बाद अपील के सारे रास्ते समाप्त हो जाते हैं. 

क्यूरेटिव पिटीशन में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्त्ता द्वारा रेखांकित बिंदुओं के साथ उन सभी मुद्दों या विषयों को चिन्हित किया जाता है जिसमें न्यायालय को लगता है कि इनपर ध्यान दिये जाने की जरूरत है. क्यूरेटिव पिटीशन की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय की पीठ किसी भी स्तर पर किसी वरिष्ठ अधिवक्ता को न्याय मित्र के रूप में मामले पर सलाह के लिये आमंत्रित कर सकती है.

उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक मामले में दोषी के पास क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प उपलब्ध नहीं होता है. क्यूरेटिव पिटीशन की व्यवस्था ऐसे विशेष या असामान्य मामलों के लिये की गई है जहाँ उच्चतम न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी न्यायलय के निर्णय से न्याय के सिद्धांत का अतिक्रमण हो रहा हो. या अगर मामले में याचिकाकर्त्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका पहले दाखिल की जा चुकी हो. या क्यूरेटिव पिटीशन में याचिकाकर्त्ता जिन मुद्दों को आधार बना रहा हो उन पर पूर्व में दायर पुनर्विचार याचिका में विस्तृत विमर्श न हुआ हो. तभी क्यूरेटिव पिटीशन दाखिल की जा सकती है. 
सर्वोच्च न्यायालय में क्यूरेटिव पिटीशन पर सुनवाई तभी होती है जब याचिकाकर्त्ता यह प्रमाणित कर सके कि उसके मामले में न्यायालय के फैसले से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है साथ ही अदालत द्वारा आदेश जारी करते समय उसे नहीं सुना गया है. इसके अलावा उस स्थिति में भी यह याचिका स्वीकार की जाएगी जहाँ एक न्यायाधीश तथ्यों को प्रकट करने में विफल रहा हो जो पूर्वाग्रहों की आशंका को बढ़ाता है. 

कब उत्पन्न हुई अवधारणा 

क्यूरेटिव पिटीशन की अवधारणा साल 2002 में रूपा अशोक हुरा बनाम अशोक हुरा और अन्य के मामले की सुनवाई के दौरान सामने आई. इस मामले की सुनवाई के दौरान यह सवाल उठा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी ठहराए गए किसी व्यक्ति की पुनर्विचार याचिका ख़ारिज होने के बाद क्या दोषी के पास सज़ा में राहत के लिये कोई न्यायिक विकल्प बचता है? तब सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने ही दिये गए निर्णय को बदलने के लिये क्यूरेटिव पिटीशन की अवधारणा प्रस्तुत की गई. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की पीठ द्वारा क्यूरेटिव पिटीशन की रूपरेखा निर्धारित की गई. 

बता दें भारत के सबसे चर्चित केस निर्भया और याकूब मेमन के मामले में आरोपियों ने फांसी की सजा से बचने के लिए क्यूरेटिव पिटीशन का ही सहारा लिया था. 

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