नई दिल्लीः आर्मेनिया.. धरती के जितने बड़े फैले भू-भाग पर लोग रह सकते हैं, उस हिसाब से देखें तो एक छोटा सा हिस्सा. श्रीकृष्णा के विराट स्वरूप पर जाएं तो उस हिसाब से किसी रेत के कण का भी न जाने कौन भाग है यह देश. श्रीकृष्ण का नाम लें तो हमें गीता याद आती है,
गीता से कुरुक्षेत्र और कुरुक्षेत्र से धर्मयुद्ध. अब इसी धर्म युद्ध पर रुक जाएं और संसार के मानचित्र पर उंगली घुमाएं तो यह उंगली जाकर रुकेगी आर्मेनिया पर. जिसे "धर्मयुद्ध" की भूमि कहा जाता है. सात क्रूश युद्ध की भूमि.
पुरानी है लड़ाई
विकीपीडिया बताता है कि इतिहास के पन्नों पर आर्मेनिया का आकार कई बार बदला है. 80 ई.पू. में आर्मेनिया राजशाही के अंतर्गत वर्तमान तुर्की का कुछ भू-भाग, सीरिया, लेबनान, ईरान, इराक, अज़रबैजान और वर्तमान आर्मीनिया के भू-भाग सम्मिलित थे.
यहां अजरबैजान को थोड़ा बोल्ड और हाइलाइट कर देते हैं कि क्योंकि आज यह हिस्सा एक स्वतंत्र देश है और 2020 की सितंबर-अक्टूबर की इन तारीखों में आर्मेनिया और अजरबैजान लड़ रहे हैं, युद्ध रत हैं. बल्कि यही दोनों नहीं, इनकी सीमाओं पर कई और देश भी अपनी तोपों के मुंह लगाए खड़े हैं.
प्रथम विश्वयुद्ध से शुरू हुआ तनाव
हजारों साल पहले हुए 7 क्रूश युद्ध की स्थितियां जो भी थीं, व विचित्र थीं, लेकिन यह तो तय है कि युद्ध की आग युद्ध शांत हो जाने के बाद भी शांत नहीं होती, यह जरा सी चिंगारी पाए जाने पर भड़क ही उठती है. बीसवीं शताब्दी जो कि आविष्कारों का काल था, 100 साल पहले इसके सदी के शुरूआती दूसरे दशक में विश्व जल उठा था. विश्वयुद्ध विनाश मचाकर कई हानियों के साथ शांत हो रहा था.
इसी शांति के दौर में 1918 में जब आग ठंडी पड़ी तो तीन नए देश बने, आर्मेनिया, अजरबैजान और जॉर्जिया. इसके पहले ये तीनों ट्रांस-कॉकेशियन फेडरेशन का हिस्सा थे. आर्मेनिया और अजरबैजान के अलग होने के बाद बचा हुआ ट्रांस-कॉकेशियन ही जॉर्जिया के तौर पर जाना गया.
स्टॉलिन ( USSR ) ने रोपी झगड़े की जड़
अब यहीं से मामले में एंट्री होती है रूस की. सोवियत रूस के प्रमुख जोसेफ स्टालिन ने प्रभाव जमाया और 1920 के दशक में अज़रबैजान और जॉर्जिया को भी सोवियत संघ यानी USSR में शामिल कर लिया. इसके बाद नई सीमाएं तय हुईं और तय कर दी गई कि भविष्य में झगड़े की जड़ कहां रहेगी.
झगड़े की जड़ यानी नार्गोनो-कराबाख का इलाका. करीब 4000 वर्गमील में फैला दोनों देशों के बीच स्थित यह इलाका पहाड़ी है. यहां बड़ी तादाद में आर्मेनियाई मूल के लोग थे.
सीमा खींचते हुए स्टॉलिन ने अजरबैजान को यह पहाड़ी इलाका सौंप दिया. अजरबैजान मुस्लिम बहुल देश था. दोनों का मिलना, पटरी नहीं खा रही थी. आर्मेनिया ने भी विरोध जताया कि यह उसका हिस्सा होना चाहिए. विरोध अधिक बढ़ा तो स्टालिन ने इस झगड़े के इस पहाड़ (नार्गोनो-कराबाख) को स्वायत्त घोषित कर दिया, लेकिन यह रहा अजरबैजान की सीमा में ही.
नार्गोना-काराबाख ने 1991 में खुद को आजाद घोषित किया
हर सत्ता और प्रभाव का एक वक्त होता था. इसके बाद उसका असर जाता रहता है. USSR के साथ भी यह हुआ. USSR कमजोर होता गया, अजरबैजान और आर्मेनिया मुखर होते गए. 1988 में नार्गोना-काराबाख ने कहा कि वह आर्मेनिया में मिलना चाहते हैं.
अजरबैजान के पैरों तले जमीन खिसक गई. दरअसल, इस पहाड़ी इलाके में रहने वाले आर्मेनियाई भी अजरबैजान के साथ नहीं रहना चाहते थे. लिहाजा युद्ध की ठन गई. 1991 में सोवियत संघ के विघटित होते ही नार्गोना-काराबाख ने खुद को आज़ाद घोषित कर दिया.
हालांकि इस आजादी को किसी ने मान्यता नहीं दी.
30 हजार लोग मारे गए
इसके बाद 1992 में युद्ध शुरू हो गया जो कि दो साल तक चला और इस दौरान ये 30 हजार लोगों की जान इसने ले ली. धार्मिक आधार पर हत्याएं हुईं, लोगों ने विस्थापन किया. बड़ी जनहानि हुई. इसके बाद एक बाऱ फिर रूस के दखल से दोनों देशों के बीच सुलह की कोशिश हुई और सीजफायर घोषित हुआ.
दो साल के युद्ध का निर्णय यह रहा कि जिसके पास जो इलाका है वो उसके पास ही रहेगा. इस तरह नार्गोना काराबाख आजाद तो हुआ लेकिन, इसे दुनिया में मान्यता नहीं मिली. आर्मेनिया का दखल बरकरार रहा. अजरबैजान क्लेम करता रहा.
अधिकार अजरबैजान का, बस नियंत्रण नहीं है
अजरबैजान हमेशा इस पहाड़ी इलाके पर अपना झंडा फहराने का सपना सजाए रहा. हालांकि कब्जा इस इलाके पर अजरबैजान का ही है, लेकिन स्थितियां उसके नियंत्रण में नहीं हैं. इसलिए एक खूनी ख्वाहिश पाले दोनों देश आपस में लड़ते रहे. सीमा पर गोलियां चलती रही हैं और इंसानियत का सीना छलनी करती रहीं.
सितंबर के आखिरी हफ्ते से शुरू हुआ युद्ध
2016 में यहां हिसां भड़की और 110 लोग मारे गए. 2020 जुलाई में भी 16 लोगों की जान गई. इसके बाद सितंबर के आखिरी सप्ताह में शनिवार 26 सितंबर से दोनों देश एक-दूसरे से आमने-सामने हैं.
युद्ध की आग ऐसी लगी है कि अन्य देश भी कूद सकते हैं और नहीं तो जुबानी जंग जारी ही है. हालांकि दुनिया (मानवता) चाहती है कि युद्ध न ही हो तो बेहतर.
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