चलो चंबा चले! मिंजर मेले से जुड़े रोचक किस्से, कैसे पड़ा इसका नाम? कैसे हुई शुरुआत?
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चलो चंबा चले! मिंजर मेले से जुड़े रोचक किस्से, कैसे पड़ा इसका नाम? कैसे हुई शुरुआत?

Chamba Minjar fair:पहाड़ी राज्य हिमाचल को देवी-देवताओं की भूमि कहा जाता है. यहां हर राज्य हर गांव की अलग संस्कृति और परंपराएं हैं. बात अगर चंबा के मिंजर मेले की करें तो ये प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पूरे देशभर में प्रसिद्ध है. यह मेला हर वर्ष श्रावण माह के दूसरे रविवार से शुरू होकर सप्ताह भर चलता है.

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चंडीगढ़- शिमले नी बसना, कसौली नी बसना,चंबे जाना जाना जरूर. मिंजर मेले (Chamba Minjar fair) का आगाज होते ही हर कोई यही गुनगुना रहा होगा. 

पहाड़ी राज्य हिमाचल को देवी-देवताओं की भूमि कहा जाता है. यहां हर राज्य हर गांव की अलग संस्कृति और परंपराएं हैं. बात अगर चंबा के मिंजर मेले की करें तो ये प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पूरे देशभर में प्रसिद्ध है. यह मेला हर वर्ष श्रावण माह के दूसरे रविवार से शुरू होकर सप्ताह भर चलता है.

भगवान लक्ष्मीनाथ और रघुनाथ को मुस्लिम परिवार की ओर से तैयार की गई विशेष मिंजर को अर्पित करने के साथ ही 24 से 31 जुलाई तक चलने वाले मिंजर मेले की शुरुआत हो गई हैं.

मिंजर नाम कैसे पड़ा: 
अब मन में सवाल ये उठता है कि आखिर इस मेले का नाम मिंजर कैसे पड़ा. दरअसल, मान्यता के अनुसार यहां के भोले-भाले लोग मक्की और धान की बालियों को मिंजर कहते हैं. इस मेले का आरंभ रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की से बना मिंजर या मंजरी और लाल कपड़े पर गोटा जड़े मिंजर के साथ, एक रुपया, नारियल और ऋतुफल भेट किए जाते हैं. 

इस मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है. मक्की की कौंपलों से प्रेरित चंबा के इस ऐतिहासिक उत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कौंपलों की तर्ज पर रेशम के धागे और मोतियों से पिरोई गई मिंजर तैयार करते हैं, जिसे सर्वप्रथम लक्ष्मीनारायण मंदिर और रघुनाथ मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसी परंपरा के साथ मिंजर महोत्सव की शुरुआत भी होती है.

कैसे हुई मिंजर मेले की शुरुआत?

लोककथाओं के अनुसार मिंजर मेले की शुरूआत 935 ईसवी में हुई थी. जब चंबा के राजा त्रिगर्त के राजा जिसका नाम अब कांगड़ा है, पर विजय प्राप्त कर वापिस लौटे थे तो स्थानीय लोगों ने उन्हें गेहूं, मक्का और धान के मिंजर और ऋतुफल भेंट करके खुशियां मनाई थी.

तो वहीं, लोगों का मानना है कि यह त्योहार वरूण देवता के सम्मान में मनाया जाता है. एक मान्यता के अनुसार 10वीं शताब्दी में रावी नदी चंबा नगर में बहती थी और उसके दाएं छोर पर चम्पावती मंदिर एवं बाएं छोर पर हरिराय मंदिर स्थित था. उसी समय चम्पावती मंदिर में एक संत रहे जो हर सुबह नदी पार कर हरिराय मंदिर में पूजा अर्चना किया करते थे. 

चंबा के राजा और नगरवासियों ने संत से हरिराय मंदिर के दर्शनार्थ कोई उपाय तलाशने का निवेदन किया. तब संत ने राजा और प्रजा को चम्पावती मंदिर में एकत्रित होने के लिए कहा और बनारस के ब्राह्मणों की सहायता से एक यज्ञ का आयोजन किया जो सात दिन तक चला.

मिंजर मेले की परंपराएं

मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की रथ यात्रा निकलती है और इसे रस्सियों से खींचकर चंबा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है जहां से मेले का आगाज़ होता है. भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से ज्यादा देवी-देवता भी वहां पहुंचते हैं. मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है. रियासत काल में राजा मिंजर मेले में ऋतुफल और मिठाई भेंट करता था लेकिन अब यह काम प्रशासन करता है.

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