अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन में बोले अमित शाह- हिंदी सभी स्थानीय भाषाओं के बीच सखी-सहेली की तरह है
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अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन में बोले अमित शाह- हिंदी सभी स्थानीय भाषाओं के बीच सखी-सहेली की तरह है

Akhil Bharatiya Rajbhasha Sammelan: संबोधन के दौरान अमित शाह ने कहा कि वीर सावरकर नहीं होते तो आज हम अंग्रेजी ही पढ़ रहे होते. उन्‍होंने कहा कि सावरकर ने ही हिंदी शब्‍कोश बनाया था. 

Amit Shah, File Photo

वाराणसी: यूपी विधानसभा चुनाव (UP Assembly Elections) से पहले वज़ीरे दाखिला अमित शाह रियासत के दो रोज़ा दौरे हैं. इस दौरान आज वाराणसी में गृहमंत्री अमित शाह ने ‘अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन’ को संबोधित किया. खिताब के दौरान वज़ीरे दाखिला अमित शाह ने कहा कि मैं हिंदी को गुजराती से ज्यादा प्यार करता हूं. स्वभाषा, स्वदेशी को आगे बढ़ा रहा है. वाराणसी भाषाओं का गोमुख है. अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन को राजधानी दिल्ली से बाहर करने का फैसाल हमने साल 2019 में ही कर लिया था. 

'सावरकर नहीं होते तो आज हम अंग्रेजी ही पढ़ रहे होते'
संबोधन के दौरान अमित शाह ने कहा कि वीर सावरकर नहीं होते तो आज हम अंग्रेजी ही पढ़ रहे होते. उन्‍होंने कहा कि सावरकर ने ही हिंदी शब्‍कोश बनाया था. अंग्रेजी हम पर थोपी गई थी. उन्‍होंने कहा कि हिंदी के शब्दकोश के लिए काम करना होगा और इसे हमें और मजबूत करना होगा.

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'हिंदी और हमारी मकामी जुबानों के दरमियान कोई फर्क नहीं'
उन्होंने कहा कि हिंदी और हमारी मकामी जुबानों के दरमियान कोई फर्क नहीं है. बल्कि हिंदी सभी मकामी जुबानों के बीच में एक सखी-सहेली की तरह है. राजभाषा का विकास उसी वक्त होगा, जब मकामी जुबानों की तरक्की होगी और मकामी जुबानों को भी उसी वक्त तरक्की मिलेगी जब राजभाषा का विकास होगा. इसलिए हम कह सकते हैं कि दोनों के बीच में कोई अंतर नहीं है. 

'हिंदी जुबान बहुत ज्यादा लचकदार है'
उन्‍होंने ये भी कहा कि, मैं भी हिंदी भाषी नहीं हूं, गुजरात से आता हूं, मेरी मादरी ज़ुबान गुजराती है. मुझे गुजराती बोलने में कोई परहेज नहीं है. लेकिन, मैं गुजराती ही जितना बल्कि उससे ज्यादा हिंदी का इस्तेमाल करता हूं. हिंदी जुबान बहुत ज्यादा लचकदार है.

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'हम सब हिन्दी प्रेमियों के लिए ये अहद का साल रहना चाहिए'
वज़ीरे दाखिला ने कहा कि, हम सब हिन्दी प्रेमियों के लिए ये अहद का साल रहना चाहिए कि जब आज़ादी के 100 साल हों तब देश में राजभाषा और सभी जबानों का दबदबा इतना बुलंद हो कि हमें किसी भी गैर-मुल्की जुबान की मदद लेने की जरूरत न पड़े. मैं मानता हूं कि ये काम आज़ादी के फौरन बाद होना चाहिए था.

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