गज़लों का समंदर कहे जाने वाले शायर बशीर बद्र अपनी गज़लों में एहसास और दौरे हालात को पिरोने वाले शायर भी हैं. अपनी शायरी और एक खास लहजे के लिए जाने जाने वाले शायर बशीर बद्र का आज यौमे पैदाइश है
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गज़लों का समंदर कहे जाने वाले शायर बशीर बद्र अपनी गज़लों में एहसास और दौरे हालात को पिरोने वाले शायर भी हैं. अपनी शायरी और एक खास लहजे के लिए जाने जाने वाले शायर बशीर बद्र का आज यौमे पैदाइश है और इस वक्त उनके याद्दाश्त के धागे कमज़ोर पड़ गए है. दरअसल वो डिमेंसिया बीमारी से जूझ रहे हैं. यह एक भूलने वाली की बीमारी है. वो एक ऐसे शायर हैं जो इंसान के किरदार, फिलासफ़ी और मुहब्बत जैसे मोज़ूआत पर लिखने के लिए जाने जाते हैं लेकिन इस वक्त उनकी हालत ऐसी है कि वो अपना ही कहा हुआ भूल गए हैं.
बशीर बद्र की पैदाईश 15 फरवरी 1935 को अयोध्या में हुई थी और उनका बचपन कानपुर में गुज़रा था. जब वो 15 साल के थे तो उनके वालिद का इंतेक़ाल हो गया था और अपने वालिद की जगह पर उनको नौकरी मिल गई थी. इस दौरान उन्होंने भाईयों की पढ़ाई लिखाई और बहन की शादी जैसी बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियां निभाईं, साथ ही अपनी पढ़ाई लिखाई को भी जारी रखा और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से एमए किया जिसके बाद उन्हें मेरठ के एक कालेज में नौकरी मिल गई. कहा यह भी जाता है कि मेरठ से उनका बहुत ज्यादा लगाव था और 1987 के फिरक़ावाराना दंगों में उनका आशियाना उज़ड़ गया था और शायद यही वजह है कि वो अक्सर मुशायरों में एक शेर पढ़ते थे कि :
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
बशीर बद्र ने ज़िंदगी तमाम तल्खियों का सामना किया है और फिर उन तल्ख़ियों के एहसासात को लफ्ज़ो को धागे पिरो कर अवाम तक पहुंचाया हैं. पार्लियामेंट से ले सियासत के मुख्तलिफ़ गलियारों में उनकी शेरों के ज़रिए मिसाल दी जाती है. जिनमे वज़ीरे आज़म नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी जैसी शख्सियात शामिल हैं. उन्होंने लगभग 40 साल तक मुशायरों की दुनियां मे अपना लोहा मनवाया है उनके दौर में कोई भी मुशायरा उनकी ग़ैर हाज़री से अधूरा माना जाता था. तो आईए बशीर बद्र के कुछ शेरों पर नज़र डालते हैं.
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों
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ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
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हम तो कुछ देर हँस भी लेते हैं
दिल हमेशा उदास रहता है
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बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता
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तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लाएगा
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उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
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तुम मुझे छोड़ के जाओगे तो मर जाऊँगा
यूँ करो जाने से पहले मुझे पागल कर दो
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कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
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उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
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इतनी मिलती है मिरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझ को मिरा महबूब समझते होंगे
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इस शहर के बादल तिरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते