दिवाली के मौके पर हर साल चित्रकूट में गधा मेला लगता है. हर साल इस मेले में करोड़ों का कारोबार होता है. वहीं गधे भी एक-एक लाख रुपये तक के बिकते हैं.
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ओंकार सिंह/चित्रकूट: चित्रकूट में लगने वाले सालाना गधे मेले में हर साल रौनक रहती है. यहां अलग-अलग सूबों ने हजारों जानवर आते हैं और ऊंची-ऊंची कीमत पर बेचे जाते हैं लेकिन इस बार जानवरों की कीमत पर भी कोरोना का असर देखने को मिला. जहां एक तरफ गधों की कीमत 10 हजार से 40 हजार तक रही, तो वहीं घोड़ों की कीमत भी काफी कम रही. मेले में आए कारोबारियों के मुताबिक कोरोना का ग्रहण इस बार जानवरों की कीमत पर भी दिखाई दिया. कोरोना की वजह से पहले तो बिक्री के लिए जानवर भी कम आए और जो आए भी वो कम कीमत पर बिके.
दिवाली के मौके पर हर साल चित्रकूट में गधा मेला लगता है. हर साल इस मेले में करोड़ों का कारोबार होता है. वहीं गधे भी एक-एक लाख रुपये तक के बिकते हैं. इस बार भी यहां अलग-अलग सूबों से करीब 5 हजार घोड़े, गधे और खच्चर आए लेकिन कोरोना की वजह से उनकी सही कीमत नहीं लग पायी.
औरंगजेब के समय से चली आ रही परंपरा
मंदाकिनी के किनारे लगने वाले इस मेले की परंपरा बहुत पुरानी है. इस मेले की शुरुआत मुगल बादशाह औरंगजेब ने की थी. औरंगजेब ने चित्रकूट के इसी मेले से अपनी फौज के बेड़े में गधों और खच्चरों को शामिल किया था. इसलिए इस मेले की तारीखी अहमियत भी है.
मुगल काल से चली आ रही ये रिवायत सहूलात की कमी में अब लगभग खात्मे की कगार पर है. नदी के किनारे ज्यादा गंदगी के बीच लगने वाले इस मेले में व्यापारियों को न तो पीने का पानी मिलता है और न ही छाया. 3 दिन के गधा मेले में सिक्योरिटी के नाम पर होमगार्ड तक के जवान नहीं लगाए जाते. वहीं कारोबारियों के जानवर बिकें या न बिकें ठेकेदार उनसे पैसे वसूल लेता है. ऐसी हालत में यह तारीखी गधा मेला अपना वजूद खोता जा रहा है.
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