अठारहवीं सदी के आख़िर में मिर्जा गालिब के चचा मिर्जा नसरुल्लाह बेग की बहादुरी और वफ़ादारी से ख़ुश होकर अंग्रेज़ों ने उन्हें 400 घुड़सवार फौजियों के दस्ते का अफ़सर मुक़र्रर किया था.
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सैयद अब्बास मेहदी रिज़वी: 27 दिसंबर को मिर्जा गालिब का यौमे पैदाइश है. Mirza Ghalib का जन्म 27 दिसंबर, 1796 को आगरा में हुआ था. वहीं 15 फरवरी को नई दिल्ली में उनका इंतेकाल हुआ था. Mirza Ghalib जन्म के 223 साल बाद भी Mirza Ghalib हैं. उनकी शायरी के दुनियाभर में करोड़ों लोग हैं. तो आइए हम आपको उनके यौमे पैदाइश पर उनसे जुड़ा एक ऐसा किस्सा बताते हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं.
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अठारहवीं सदी के आख़िर में मिर्जा गालिब के चचा मिर्जा नसरुल्लाह बेग की बहादुरी और वफ़ादारी से ख़ुश होकर अंग्रेज़ों ने उन्हें 400 घुड़सवार फौजियों के दस्ते का अफ़सर मुक़र्रर किया था. ब्रिटिश आर्म्ड फोर्स में इनकी तक़र्रुरी कमांडर इन चीफ लॉर्ड लेक ने 1700 रुपये महीने सैलरी पर की थी. ग़ालिब के चचा नसरुल्लाह बेग अपनी मां, तीन बहनों और भाई के बच्चों की परवरिश कर रहे थे. लेकिन क़िस्मत देखिए कि ग़ालिब जब 9 साल के थे तो उनके चचा नसरुल्लाह बेग सैर के दौरान हाथी से गिर पड़े और कुछ दिनों बाद 1806 में उनकी मौत हो गई.
बाप के बाद चचा का साया भी ग़ालिब के सर से उठ गया. इस हादसे के बाद लार्ड लेक ने तय किया कि नसरुल्लाह बेग के कुंबे को फिरोज़ पुर झिरका के नवाब अहमद बख़्श ख़ां 10 हजार रुपये सलाना वज़ीफ़ा देंगे. नवाब अहमद बख़्श ख़ां ग़ालिब के चचा के बहनोई थे लेकिन अहमद बख़्श खान ने बेग के ख़ानदान को मिलने वाली पेंशन कम कर पांच हजार रुपये सालाना कर दी. इस पर सितम ये कि इस पेंशन में एक शख्स ख़्वाजा हाजी को भी शामिल कर लिया गया जो उनके ख़ानदान का नहीं था.
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ग़ालिब के दादा ने अपनी बीवी की बेवा बहन की बेटी की शादी ख़्वाजा मिर्ज़ा से कर दी थी. ख़्वाजा मिर्ज़ा उनके घोड़ों की देखभाल करता था. ख़्वाजा हाजी उन्हीं का बेटा था. नवाब अहमद बख़्श ख़ां की इस चालाकी से पेंशन का बंटवारा यूं हुआ कि ख़्वाजा हाजी को 2 हज़ार रुपए सालाना, नसरुल्लाह बेग की बीवी और तीन बहनों को डेढ़ हज़ार रुपये सालाना, ग़ालिब और उनके छोटे भाई मिर्ज़ा युसुफ़ को डेढ़ हज़ार रुपए सालाना. यानी गालिब के हिस्से में साढ़े सात सौ रुपये सालाना आए.
ग़ालिब जब बड़े हुए तो उन्हें इस नाइंसाफी का पता चला. उनका कहना था कि पेंशन की रक़म पांच हज़ार रुपये नहीं दस हज़ार रुपये थी. ख़्वाजा हाजी उनका रिश्तेदार नहीं बल्कि उनके दादा के मामूली से नौकर का बेटा है.
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ग़ालिब ने इस नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ फिरोज़पुर झिरका के नवाब अहमद बख़्श ख़ां को ख़त लिखा लेकिन उधर से सिर्फ़ वादे ही मिले,अमल नहीं हुआ. क़रीबी रिश्तेदारों के ज़रिए भी बात नहीं बनी तो ग़ालिब ने क़ानून का सहारा लिया.
ग़ालिब लालकिले पहुंचे वहां दिल्ली के रेजिडेंट चार्ल्स मेटकाफ़ से पेंशन की कटौती के बारे में बात की मेटकाफ़ ने कहा कि गवर्नर कोलकाता में बेठते हैं, वहीं इस मसले पर कुछ कर सकते हैं. 1826 में गालिब ने कोलकाता जाकर गर्वनर जनरल विलियम एमहर्सट से मिलने का इरादा किया. उस वक़्त दिल्ली से कोलकाता पहुंचने के लिए सफर में बोट सबसे तेज़ साधन था लेकिन तंगी में चल रहे गालिब ने घोड़ा सवारी, बैलगाड़ी और पालकी से सफर करने की तैय्यारी की. सफ़र के दौरान गालिब लखनऊ, कानपुर, बांदा, इलाहाबाद और बनारस में रुके
लखनऊ तक सफर के दौरान गालिब बीमार पड़ गए थे. उन्होंने कुछ महीने यहीं आराम करने का फैसला किया. उस वक़्त अवध के नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर शाह थे. गालिब ने नवाब से मिलने की ख़्वाहिश जाहिर की, लेकिन बदले में दो शर्त भी रख दी. पहली शर्त यह थी कि वो नवाब को कोई नजराना पेश नहीं करेंगे. दूसरी शर्त यह थी कि जब गालिब दरबार में दाख़िल हों तो नवाब उनके एहतेराम में खड़े होंगे. नवाब ने पहली शर्त तो मंजूर की, लेकिन दूसरी पर उन्होंने एतराज जताया, तो गालिब उनसे मिले बिना ही चले गए. उनका अगला पड़ाव बांदा था. बांदा के नवाब जुल्फिकार अली, गालिब को जानते थे उन्होंने गालिब से मुलाकात के दौरान माली मदद की पेशकश भी की
बांदा रुकने के बाद बनारस का सफ़र किया. अगस्त 1827 में बनारस पहुंचे. एक महीने के क़याम के दौरान गालिब को यह शहर इस कदर पसंद आया कि फारसी में 108 मिसरों की एक मसनवी लिखी. उन्होंने शहर को चिराग-ए-दैर मंदिरों का दीप कहा.
बनारस से गालिब एक बोट के ज़रिये फरवरी 1828 में कोलकाता पहुंचे. यहां वो मिर्जा अली सौदागर की हवेली में दस रुपये महीने के किराये पर एक साल रहे लेकिन यहां रुकना काम नहीं आया. पहले तो गर्वनर जनरल ने पेंशन बहाल करने से इनकार कर दिया. उन्होंने ब्रिटिश रेजिडेंट के ज़रिये शिकायत दर्ज कराने को कहा. गालिब ने किसी तरह कुछ सामान बेचकर पैसे का बंदोबस्त किया और डाक के ज़रिए मामले से जुड़े कागजात दिल्ली के मशहूर वकील पंडित हीरानंद को भेजा. उस वक़्त मेटकाफ की जगह रेजिडेंट एडवर्ड कोलब्रुक थे. एडवर्ड ज़ाती तौर पर गालिब को जानते थे. लेकिन जब तक एडवर्ड तक मामला पहुंचता, तब तक उनका भी तबादला हो गया. बाद में आए रेजिडेंट ने मना कर दिया था. गालिब परेशान होकर अगस्त 1829 में दिल्ली आ गए. उनकी मायूसी का अंदाजा उनके नज्म से लगता है-
कलकत्ते का जो जिक्र किया तू ने हम-नशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए
दिल्ली में गालिब की बीवी उमराव बेगम के भाई मिर्जा शमसुद्दीन अहमद खान ने मिर्ज़ा को बताया कि उसकी रेजिडेंट विलियम फ्रेजर से बनती है. वो पेंशन चालू करा सकता है और इसके लिए कुछ पैसे खर्च होने की बात कही. गालिब ने किसी तरह उधार लेकर पैसे का इंतजाम किया लेकिन पेंशन चालू नहीं हो पायी उलटे 22 मार्च 1835 को फ्रेजर के इल्ज़ाम में शमसुद्दीन को ही पकड़कर फांसी दे दी गई. इस तरह पेंशन की सभी उम्मीदें लगभग खत्म हो गईं.
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो.
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