डियर जिंदगी : यह रिश्‍ता क्‍या कहलाता है...
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डियर जिंदगी : यह रिश्‍ता क्‍या कहलाता है...

मैं इस बात से बिल्‍कुल सहमत नहीं कि पहले दोस्‍तों में जो प्रेम था, अब खत्‍म हो गया. पहले परिवार में जो प्रेम था, अब कम हो गया. पहले भी प्रेम वैसा ही था, जैसा अब हो गया है. बस हमारे आसपास की दुनिया बदल रही है.

दुनिया उसी गति से चल रही है जैसे पहले थी. अंतर केवल इतना है कि हमारी नजर के दायरे हर दिन बढ़ रहे हैं.

दयाशंकर मिश्र

उनकी आवाज में गहरी उदासी थी. बेचैनी, दुख की चाहरदीवारी से घिरी हुई. उन्‍होंने बात शुरू की, 'अब किसी के पास समय नहीं है.' फोन लखनऊ जैसे परंपरागत, मिलनसार मिजाज के शहर से था. देर तक बात हुई. अभी शिकायत वही थी कि अब रिश्‍ते पहले जैसे कहां रहे. अब वह बात नहीं रही. मैंने उनकी बातें ध्‍यान से सुनीं. बावजूद इसके कि मैं उनकी ज्‍यादातर बातों से सहमत नहीं हूं. हम हमेशा इसलिए अकेले नहीं होते कि लोग हमें छोड़ जाते हैं. हम इसलिए भी अकेले होते हैं, क्‍योंकि जब उन्‍हें हमारी जरूरत थी, उस वक्‍त हम बहुत अधिक व्‍यस्‍त थे.

मैं इस बात से बिल्‍कुल सहमत नहीं कि पहले दोस्‍तों में जो प्रेम था, अब खत्‍म हो गया. पहले परिवार में जो प्रेम था, अब कम हो गया. पहले भी प्रेम वैसा ही था, जैसा अब हो गया है. बस हमारे आसपास की दुनिया बदल रही है. पहले हम सब एक छोटे से गांव/शहर के संसार में बसते थे, अब अचानक से यह बसाहट महानगर में बदल गई है.

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लेकिन दुर्भाग्‍य से हमें बस अपना बचपन ही प्‍यारा लगता है, इसलिए बार-बार उसके पास दौड़ जाते हैं. हम अतीत की नाव में इस कदर तैरने में डूबे हैं कि वर्तमान के तट पर से गुजरने को तैयार नहीं हैं.

पहले ऐसा था, पहले वैसा था. अरे! भाई दुनिया उसी गति से चल रही है जैसे पहले थी. अंतर केवल इतना है कि हमारी नजर के दायरे हर दिन बढ़ रहे हैं.

रिश्‍ते मशीन नहीं होते. उनमें ऑटोमेशन नहीं चलता. रिश्‍तों को स्‍नेह और समय का साथ चाहिए. उनको ख्‍याल की खाद चाहिए, तब कहीं जाकर रिश्‍ते बनते हैं. लेकिन हमने रिश्‍तों को प्रेम की जगह न मानकर 'रास्‍ता' मानना शुरू कर दिया है. हर रिश्‍ते से हमने स्‍वार्थ की डोर जोड़ दी है. हर मुलाकात में 'नतीजे' की चाहत ने हममें इस तरह से सोचने की आदत डाल दी है कि हर चीज में हम अपना भला तलाशने लगते हैं.

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रिश्‍ते, मनुष्‍य के सामाजिक जीवन के सहभागी हैं. उनका कामकाजी जीवन से वास्‍ता हो सकता है, लेकिन ऐसा हमेशा होना जरूरी नहीं है. बचपन की दोस्‍ती क्‍यों सबसे अलहदा होती है, उसमें सबसे अधिक मिठास होती थी. क्‍योंकि उससे कोई रास्‍ता कहीं नहीं गुजरता था. बचपन में हम दोस्‍त, केवल दोस्‍त हुआ करते थे. इतनी ही हमारी मंजिल होती थी. लेकिन युवा होते-होते हम मंजिलों की तलाश में इतने डूब जाते हैं कि सबकुछ केवल इसी नजरिए से देखते हैं कि कैसे रिश्‍तों का उपयोग किया जाए.

यदि रिश्‍ते के मूल में उपयोग की भावना है. दूसरों को खुश करके कुछ पाने की चेष्‍टा है तो समझिए कि आप रेत पर किला बना रहे हैं. और रेत पर बने महलों का जीवन कितना होता है, यह सब जानते हैं.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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