युवाओं में चीजों को बर्दाश्त करने की क्षमता तेजी से कम हो रही है. वह संघर्ष का रास्ता छोड़कर पलायन की ओर जा रहे हैं...
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एक बच्ची का मोबाइल चोरी हो जाता है, वह गुस्से, दुख और शर्म से आत्महत्या कर लेती है. एटीएम में एक युवती से कुछ हजार रुपये की ठगी हो जाती है, वह उनकी तलाश करने की जगह जान देने का रास्ता चुनती है. दिल्ली में वाहन चोरी के सबसे बड़े गैंग का मुखिया इंजीनियरिंग कॉलेज का छात्र है. इस गैंग पर दस बरस से गाड़ियां चोरी करने का आरोप है. यह गैंग खासतौर पर महंगी, लग्जरी गाडि़यों को अपना निशाना बनाता था. मप्र से लेकर जम्मू तक और दिल्ली से चेन्नई तक युवाओं की 'विचित्र'कहानियां तेजी से सामने आ रही हैं.
युवाओं में चीजों को बर्दाश्त करने की क्षमता तेजी से कम हो रही है. वह संघर्ष का रास्ता छोड़कर पलायन की ओर जा रहे हैं. जरा-जरा सी बात पर , माता-पिता की 'न' सुनते ही बच्चों का मूड इतना खराब हो रहा है कि वह आत्महत्या की ओर ऐसे बढ़ रहे हैं, जैसे छोटे बच्चे चॉकलेट के लिए मचलते हैं.
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इन चीजों से कैसे निपटा जाए, इस पर हम तब जोर दे रहे हैं, जब कोई घटना हमारे एकदम नजदीक घटती है. यह कुछ ऐसा है, जैसे एक कार हमें लगभग कुचलते हुए निकल जाती है, तो हम कुछ घंटे, एक दिन उसके खौफ में जीते हैं. लेकिन उसके बाद इसका असर खत्म हो जाता है. हम खुद लापरवाही से कार, वाहन चलाने लगते हैं या इस समस्या को किसी दूसरी दुनिया की बात कहकर खारिज कर देते हैं. हम संकट के घटने की प्रतीक्षा में रहने वाला समाज बन गए हैं. समय से पहले संकट की आहट महसूस करने की संवेदनशीलता निरंतर कम होती जा रही है. बच्चे इसका सहज शिकार हो रहे हैं.
अक्सर हम इन कारणों पर अटक जाते हैं...
1.बच्चों पर टीवी का जरूरत से ज्यादा असर है.
2. माता-पिता बच्चों को संभाल नहीं पा रहे ,उनकी गलती है.
3. माता-पिता के पास बच्चों के लिए क्वालिटी टाइम नहीं.
4. बच्चों की जरूरत को केवल पैसे से जोड़कर देख रहे हैं.
5. स्कूल बदलना चाहिए, स्कूल में माहौल ठीक नहीं.
6. ट्यूशन पर अधिक ध्यान देने से बच्चा बगावती हो रहा है.
7. डांटना, पीटना कम होने से बच्चे मनमौजी, लापरवाह हो गए हैं...
मेरा विनम्र निवेदन है कि इन सारे कारणों की तलाश में हम 'बाहर' की ओर अधिक देख रहे हैं, जबकि हमें देखना 'अंदर' की ओर चाहिए. बच्चों को इस दुनिया में हम किसलिए लाए हैं, क्यों लाए हैं. किसके कहने पर लाए हैं, उससे हम क्या चाहते हैं. इन सवालों के जवाब हमें पहले हमने भीतर गहराई से खोजने होंगे. तब जाकर बच्चों के साथ हमारा रिश्ता सहज हो पाएगा.
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क्या बच्चे की गलती मेरी गलती से केवल इसलिए बड़ी है, क्योंकि वह छोटा है, इसलिए हर बात पर उसकी जी भरके 'कुटाई' सही है. अपने गुस्से को नियंत्रण में न रख पाना हमारी कमजोरी है, जिसकी सजा हम बच्चे को देते हैं. लेकिन गुस्से में हम अपने सहकर्मियों को तो नहीं पीटते! अपने पड़ोसियों को तो बात-बात पर आंखे नहीं दिखाते. लेकिन जैसे ही मामला बच्चों का आता है, हम निरंकुश हो जाते हैं.
हम बच्चे पर लगभग टूट पड़ते हैं. बच्चों के साथ हमारा संवाद टूटने का यही मूल कारण है.
इस संवाद के टूटने का परिणाम बच्चे के भीतर बढ़ता अकेलापन, गहराता दुख है. जिससे हमें लगभग बेकार के कारणों से आत्महत्या करने जैसी घटनाओं से गुजरना पड़ रहा है. इसलिए जितना जल्दी हो सके, बच्चों के साथ संवाद का पुल जोड़िए भले ही वह किसी भी उम्र के क्यों न हों.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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