अगर आप भीतर से उदार, विश्वासी हैं तो किसी भी संकरी गली से कितने ही लोगों के साथ निकल सकते हैं.
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'डियर जिंदगी' के युवा पाठकों ने दोस्ती को लेकर बहुत से सवाल पूछे हैं. इनमें से अधिकांश का सारांश यही है कि किसी पर कितना भरोसा किया जाए. दोस्त की पहचान कैसे होती है. जिंदगी की दौड़ को हम इतनी तंग गली में ले आए हैं कि अक्सर हमें लगता है कि एक साथ दो लोग इस गली में चल ही नहीं सकते, जबकि ऐसा नहीं है. अगर आप भीतर से उदार, विश्वासी हैं तो किसी भी संकरी गली से कितने ही लोगों के साथ निकल सकते हैं.
दोस्ती पर इतने किस्से, अफ़साने हैं कि किसी एक को अपनी बात के लिए चुनना मुश्किल है, लेकिन कुछ दिन पहले मुझे श्री रावी का बेहतरीन लघुकथा संग्रह मिला. इसमें एक से बढ़कर एक लघुकथाएं हैं. इन्हीं में से एक लघुकथा आपसे साझा कर रहा हूं. मैं यहां पूरी लघुकथा जोकि असल में एक छोटी कहानी जितनी लंबी है, उसका सारांश पेश कर रहा हूं.
एक गुरुकुल से तीन ग्रेजुएट निकले, जिसमें एक युवती और दो युवक थे. तीनों में गहरी मित्रता थी. कथा उस समय की है, जब लड़के और लड़कियों की मित्रता समाज में स्वीकार नहीं थी. तीनों में कमाल की बात यह रही है कि सभी ने विवाह नहीं करने का फैसला किया. एक युवक शिक्षक बन गया, दूसरा व्यापारी और युवती ने कला की राह चुनी.
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सबकुछ ठीक चल रहा था, तभी नगर में अफवाह उड़ी की युवती को किसी से प्रेम हो गया है. उन दिनों इसे किसी अपराध से कम नहीं समझा जाता था. प्रतिष्ठित गुरुकुल की लड़की का प्रेम-प्रसंग समाज के लिए कलंक जैसा था. समाज उसकी क्या सज़ा दे, कहना मुश्किल था.
समाज के बड़े बुजुर्गों ने गुरुजनों के सामने यह बात उठाई. युवती के साथ युवक को भी सफाई देने के लिए बुलाया गया. युवती को अपने गुरुकल के अभिन्न मित्रों की याद आई. उसने दोनों को भी बुलावा भेजा. गुरुजनों की सभा बैठी. युवती और युवक ने अपनी सफाई दी और ऐसी किसी भी बात से इंकार किया. इस चर्चा में अध्यापक मित्र ने भरपूर सहायता की. उसके प्रयास से युवती को निर्दोष साबित होने में मदद मिली, लेकिन युवती को इस बात का बड़ा अफसोस हुआ कि दूसरा मित्र इस पूरी प्रक्रिया में मौन रहा. उसने अपने को ऐसे अलग रखा कि लगा ही नहीं कि उसका युवती से कोई संबंध है.
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गुरुसभा के निर्णय के बाद भी युवती के चरित्र पर सवाल उठते रहे. उसको लेकर अफवाहें थमने का नाम नहीं ले रहीं थीं. इस दौरान उसका शिक्षक मित्र हमेशा उसके समर्थन में रहा, लेकिन व्यापारी मित्र की उदासीनता से युवती बेहद दुखी थी. उसके दिल को इससे बहुत पीड़ा हुई कि उसने उसके समर्थन के लिए कुछ नहीं किया.
कुछ समय बाद, युवती कुछ अस्वस्थ हो गई. उसने अपने प्रियजनों के साथ दोनों मित्रों को पत्र लिखा कि वह कुछ समय के लिए एकांत, सेहदमंद स्थान चाहती है, जिससे उसे स्वस्थ होने में मदद मिले. तुरंत ही उसे आमंत्रण आने शुरू हो गए. उसके दोनों मित्रों ने भी आमंत्रण दिया था. शिक्षक से तो उसे पूरी आशा थी, लेकिन व्यापारी मित्र ने उसके रहने का प्रबंध करने का प्रस्ताव भेजा.
उसने दोनों मित्रों को अलग-अलग पत्र लिखे. दोनों को किसी खास जगह पर तय समय में मिलने के लिए कहा. जब वह वहां पहुंची तो दोनों हाजिर थे. शिक्षक मित्र घोड़े के साथ आए थे, दूसरे मित्र रथ के साथ. उसने रथ पर सवार होते हुए शिक्षक मित्र से कहा कि कुछ समय व्यापारी मित्र के यहां रहने के बाद उसके पास आएगी और तब सुविधा, एकांत के हिसाब से तय करेगी कि कहां रहना बेहतर होगा.
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व्यापारी मित्र उसे शहर से कुछ दूरी पर बने एक स्थान पर ले गया. वहां पहुंचने पर उसने कहा, 'मैंने तुम्हारे लिए यह जगह किराए पर ली है. यहां तुम्हारे साथ एक पुरुष और एक नवजात बच्चे के स्वागत, सुख की पूरी व्यवस्था है.'
यह सुनते ही युवती की आंखों से बहे आंसुओं ने उस मैल को धो डाला, जो इस मित्र के प्रति मन में आ गया था. उसने कहा, 'मेरे दोस्त, संकट के साथी तुम ऐसे समय आए हो, जब तुम्हारी सबसे अधिक जरूरत थी.' कहानी खत्म. दो मिनट ठहरेंगे तो सारी बात समझ आ जाएगी. जाते-जाते बस इतना कि हम दोस्त और शुभचिंतक को एक ही मानते हैं, जबकि दोनों का मिजाज एकदम अलग है. शुभचिंतक 'शुभ' में हमारा चिंतक है, दूसरी ओर दोस्त 'मौसम' से परे है. सदाबहार है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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