जिंदगी में ऐसे पड़ाव तब आते हैं, जब जिंदगी को सपनों के पंख मिल चुके होते हैं. हम उड़ना शुरू कर चुके होते हैं, लेकिन इस लंबी यात्रा का यह पल अपने साथ कई चुनौतियां लेकर आता है.
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बाहर से सबकुछ वैसा ही है जैसा होना चाहिए. अच्छी नौकरी, पति-पत्नी, बच्चे. उन पर बुजुर्गों की छांव का आशीष. उसके बाद भी कुछ ऐसा है कि मन भीतर से अशांत है. चैन नहीं. दिल को कोई आरजू नहीं, लेकिन उसे आराम भी नहीं. जिंदगी में ऐसे पड़ाव तब आते हैं, जब जिंदगी को सपनों के पंख मिल चुके होते हैं. हम उड़ना शुरू कर चुके होते हैं, लेकिन इस लंबी यात्रा का यह पल अपने साथ कई चुनौतियां लेकर आता है.
जयपुर से गायत्री चतुर्वेदी ने लिखा, 'पति बैंकर हैं. दो बच्चे हैं. स्कूल जाते हैं. लौटते ही अपनी दुनिया में चले जाते हैं. पति भी पर्याप्त व्यस्त हैं. शादी के पंद्रह बरस बाद भी मेरे इनके साथ खुश नहीं होने की कोई ठोस वजह नहीं है, लेकिन बीते एक बरस से मन बेचैन है. मैं भी एमबीए हूं. पहले शादी, फिर परिवार के कारण नौकरी नहीं की. लेकिन अब सबके पास काम है. लेकिन मेरे पास नहीं. सबके काम ही मेरी जिंदगी बन गए हैं! मेरे भीतर अब कुछ ऐसा उमड़-घुमड़ रहा है, जो पहले नहीं था.'
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गायत्री के भीतर जो घट रहा है. वह अकेली उनकी कहानी नहीं. एक समाज के रूप में यह सवाल हमारे सामने सबसे मुश्किल सवालों में से एक है. इसका कोई ऐसा उत्तर हमें नहीं सूझ रहा, जो उनके सपनों के साथ चल सके.
इसके मूल में सबसे पहली बात हमारे सोच है. दो दशक पहले तक लड़कियों की शिक्षा तक तो हम आसानी से पहुंच गए थे. लेकिन उसके बाद करियर के सवाल को लेकर परिवार सहज नहीं थे. पत्नी की नौकरी को लेकर पति सहज नहीं थे. परिवार सीधे इसे अपनी मर्यादा, आर्थिक हैसियत से जोड़कर देखते थे.
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इस तरह जो युवा शादी के बंधन में एक-डेढ़ दशक पहले बंधे थे. तब उनकी सोच, समाज की दशा कुछ और थी. जबकि आज माहौल बदला हुआ है. जो एमबीए, सुशिक्षित युवतियां एक दशक पहले दूसरे परिवार का हिस्सा बनीं. आज वह ठीक गायत्री की स्थिति, मनोदशा में हैं. इससे केवल वही बाहर हो सकीं, जिन्होंने परिवार के बीच करियर की गाड़ी नहीं छोड़ी. लेकिन जिन्होंने करियर की ट्रेन बीच में छोड़ दी. ब्रेक ले लिया. उनके सामने यह संकट हर दिन बड़ा होता जा रहा है. अब यह कहानी घर-घर की हो गई है.
इससे कैसे बाहर आया जाए!
इसका रास्ता सबसे पहले पति-पत्नी को मिलकर खोजना होगा. चुनौती तब और बढ़ जाती है, जब परिवार एकल होता है. उसके साथ दादा-दादी, नाना-नानी कोई नहीं है. ऐसे में अगर बच्चे हैं, तो उनकी सुरक्षा, परवरिश के प्रश्न जटिल होते जाते हैं.
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ऐसे में सबसे जरूरी यह समझना है कि पुरुष के सपनों की कीमत केवल स्त्री को नहीं चुकानी पड़े. पुरुष और महिला दोनों को एक-दूसरे के सपनों के साथ चलना होगा. एक-दूसरे के सपने को अपना मानने की बात भर से 'बात' नहीं बनने वाली.
हम रिश्तों की नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं. जहां हर किरदार की आजादी, उसके सपनों में रंग भरने का काम सभी किरदारों को मिलकर करना है. स्त्री-पुरुष समानता की बातें तो आसान हैं, लेकिन उसके लिए पुरुष की कोशिश हमारे यहां चलन में नहीं है.
हमें इस तरह के मामले खुले दिल और उससे अधिक उदार दिमाग से सुलझाने होंगे. अगर इसमें समय पर ध्यान नहीं दिया, तो परिवार की पंखुड़ी पर कांटों का खतरा गहरा जाएगा...
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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