डियर जिंदगी: काश! से बाहर निकलें…
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डियर जिंदगी: काश! से बाहर निकलें…

अतीत की गलियां हमारा सबसे प्रिय आश्रय हैं. वर्तमान के आंगन में जरा सी धूप आते ही हम हम अतीत की गलियों में दुबकने लगते हैं. 

डियर जिंदगी: काश! से बाहर निकलें…

काश! ऐसा हुआ होता. ऐसा न हुआ होता. वह मेरी जिंदगी में न आया होता. मैं उस गली से न गुजरा होता. मैंने वह नौकरी न छोड़ी होती. कितना अच्‍छा होता, मैंने उसे जाने न दिया होता... 

और भी... न जाने क्‍या-क्‍या! अतीत की गलियां हमारा सबसे प्रिय आश्रय हैं. वर्तमान के आंगन में जरा सी धूप आते ही हम अतीत की गलियों में दुबकने लगते हैं. जिंदगी को अगर-मगर के साथ तौलने की कोशिश करते हैं. यह जानते हुए भी कि जिंदगी में कोई रिप्‍ले नहीं होता. 

जिंदगी जितना ‘लाइव’ कोई नहीं होता. यहां सबकुछ वर्तमान की क्रीज पर होता है. एक बार रन-आउट होने के बाद यह आप पर निर्भर करता है कि आप पूरी जिंदगी उसका रिप्‍ले देखते, काश-काश का जाप करते हुए बिताएं या उससे सबक लेकर दुबारा कभी रन-आउट न हों. 

जिंदगी इतनी रोमांचक, खतरनाक मोड़ लिए हुए है कि यहां लाख सबक के बाद भी रन-आउट होने का खतरा बड़े से बड़े महान खिलाड़ी पर मंडराता रहता है. 

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इसलिए अंतर्मन तक यह बात पहुंचनी जरूरी है कि जिंदगी को पूरी तैयारी के साथ जीने की कोशिश असल में उसके सौंदर्य के साथ गुस्‍ताखी जैसी चीज है. वैसे ही संपूर्ण तैयारी जैसी बातों का कोई अर्थ नहीं. मिसाल के लिए आप मणिपुर की यात्रा की पूरी तैयारी के साथ स्‍टेशन पहुंचते हैं, लेकिन वहां जाकर पता चलता है कि ट्रेन ही किसी कारण से रद्द कर दी गई है. 

अब. इसके मायने यह हैं कि आप मणिपुर नहीं जा सकते, क्‍योंकि ट्रेन साप्‍ताहिक थी. फ्लाइट की टिकट आपकी पहुंच में नहीं है. इस तरह आॅफिस से छुट्टी के बाद भी यात्रा होना संभव नहीं. इसमें आपका दोष नहीं. किसी का दोष नहीं, लेकिन इस यात्रा के लिए जिन कड़ियों को मिलना था. वह अधूरी रह गईं. बिना किसी के दोषी साबित हुए! 

समझना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन जिंदगी का सार यही है. जिंदगी जो है, जैसी है. उसे स्‍वीकार करना, उससे प्रेम करना. जिंदगी को स्‍नेह, आत्‍मीयता के रंग से सराबोर करना, हमारा 'पहला' काम है, इस ‘रंगकर्म’ के बिना मनुष्‍यता संभव नहीं. 

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एक मित्र हैं. उनकी हर दूसरी बात 'काश!' से शुरू होती है. वर्तमान में रहना ही नहीं चाहते. वह अक्‍सर अतीत से चिपके और भविष्‍य से डरे रहते हैं. इस 'काश!' सिंड्रोम का असर यह हुआ कि वह अवसर से डरने लगे. जिंदगी में कोई भी काम करने से डरने लगे... 

फैसले लेने से डरने लगे. हर चीज़ में वह बस अतीत के पीछे जाकर बैठ जाते हैं. वहां से किसी तरह उनको निकालिए तो वह भविष्‍य की चिंता में घबराए मिलेंगे. 

अगर आपके भी ऐसे मित्र, शुभचिंतक हैं तो सबसे पहला काम यह कीजिए कि उनके प्रभाव से खुद को मुक्‍त कीजिए. क्‍योंकि इसका सीधा असर आपकी चिंतन प्रक्रिया को प्रभावित करता है. 

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अपने फैसलों को ‘काश’ की रोशनी, नजर से देखना बंद कीजिए. अतीत से सीखना एक स्‍मार्ट आदत हो सकती है, लेकिन अक्‍सर देखने में आता है कि यह एक सिंड्रोम में बदल जाती है. इसलिए अतीत का उपयोग सावधानी से कीजिए. 

और जहां तक भविष्‍य का प्रश्‍न है, वह अनंत, अनिश्चित है. इसलिए उसकी चिंता में एकदम मत घुलिए. बस इतना ही कीजिए कि आज में जीने की आदत विकसित कीजिए. 

जो आज में है, बस वही मौज में है. जिसने इस बात को समझ लिया, उसे हर डर, अाशंका से हमेशा के लिए मुक्‍ति मिल जाएगी.

(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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