डियर जिंदगी : आत्‍महत्‍या 'रास्‍ता' नहीं, सजा है…
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डियर जिंदगी : आत्‍महत्‍या 'रास्‍ता' नहीं, सजा है…

जीवन संघर्ष, तनाव, रिश्‍ते से दुखी, अपराधबोध से भीगे मन तेजी से आत्‍महत्‍या की ओर बढ़ रहे हैं. बाहर से सफल, सुखी दिखने वाले मन के भीतर उमड़-घुमड़ रहे डिप्रेशन और अकेलेपन को समझना सहज नहीं.

डियर जिंदगी : आत्‍महत्‍या 'रास्‍ता' नहीं, सजा है…

आत्‍महत्‍या. भारत से लेकर अमेरिका तक यह संकट सबसे अधिक तीव्रता से जीवन की ओर बढ़ रहा है. एक समय था जब देश में आत्‍महत्‍या का चुनाव ऐसे लोगों द्वारा किया जा रहा था, जिनके पास आर्थिक साधन नहीं थे. जिन्‍हें कोई रास्‍ता नहीं दीख रहा था. किसान बहुत हद तक इसी श्रेणी में आते हैं. लेकिन इधर बीते पांच बरस में दुनिया में जितनी तेजी से तकनीक, गैजेट्स और बात करने की सुविधा बढ़ी है. उतनी ही तेजी से जीवन के प्रति निर्ममता भी बढ़ी है.

भारत की बात समझने के लिए थोड़ा अमेरिका की ओर भी चलिए. क्‍योंकि हमारा समाज उनके समाज की ओर कुछ ज्‍यादा ही ललचाई नजरों से देखता रहता है. न्‍यूयार्क टाइम्‍स की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘अमेरिका में 2016 में दस साल से अधिक के 45,000 नागरिकों ने आत्‍महत्‍या की. आत्‍महत्‍या के मामले बेहद तेजी से बढ़ रहे हैं. 1999 के मुकाबले इन आंकड़ों में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. यह दुनिया के सबसे संपन्‍न समाज की अंदरूनी, मानसिक बीमारियों की ओर संकेत कर रही है.’

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भारत भी इस खतरे की ओर बहुत तेजी से बढ़ रहा है. क्‍या कारण है कि उस समाज में जहां ‘गप्प’ की समृद्ध परंपरा रही है. संवाद, उत्‍सव की कोई कमी नहीं. संतोष को जहां एक गुण की तरह स्‍वीकार किया गया हो. हर विवाद के लिए कानून से पहले समाज, मित्र, परिवार निजी स्‍तर पर बातचीत के लिए प्रस्‍तुत रहते हों, वहां कौन-सा ऐसा संकट अचानक गहरा जाता है कि हमारे आपके बीच बैठा अच्‍छा भला, स्‍वस्‍थ, संपन्‍न व्‍यक्‍ति कभी फांसी के फंदे, कभी जहर, कभी ट्रेन की पटरियों तो कभी छत की मुंडेर से जीवन को अलविदा कहता नजर आता है.

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ऐसा क्‍या है, जिसे दोस्‍त, मित्र, परिवार पढ़ने में असमर्थ हुए जा रहे हैं. मन के भीतर ऐसा कौन-सा रोग घर कर जाता है, जिसे अपनों से ही कहने में इतनी लज्‍जा घेर लेती है कि हम जीवन की जगह मत्‍यु को चुन लेते हैं.

अगर आप इस समाज में अकेले नहीं हैं. अपने परिवार, पड़ोस, समाज से सरोकार रखते हैं. तो थोड़ा ठहरिए. संभलिए. परिवार, दोस्‍त और सबसे जरूरी पड़ोसी से संवाद कीजिए. एक-दूसरे से बात कीजिए, प्‍लीज!

आइए, आत्‍महत्‍या की ओर भयंकर तीव्रता से बढ़ रहे समाज के कुछ कारणों पर बात करते हैं. इन कारणों से होकर ही इस पर काबू पाया जा सकता है…

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1. मित्रों की संख्‍या ‘जीरो’. मोबाइल में एक ऐसा नंबर खोजना मुश्किल, जिससे बात करते समय ‘टेप’ होने का डर न रहे. दुख, मन की तड़प कहना तो दूर, मन का सुख साझा करने वाले ही नहीं हैं. दोस्‍तों से न मिलना, परिवार में बातचीत की कमी खतरनाक संकेत है. जैसे ही हम चीजों को साझा करना बंद करते हैं, मन की बीमारी का रास्‍ता खोल देते हैं. आपसे, अपनों से कोई भी गलती क्‍यों न हो गई हो. उसे सुधारना, उस पर काबू करना एकदम संभव है. क्‍योंकि समय आपका मित्र है. समय की नदी सारा कचरा अपनी कोख में समा लेती है. इसलिए समय पर भरोसा रखें. लोग क्‍या कहेंगे, जैसी बातें एकदम निरर्थक हैं.

2. लोग हमेशा कुछ कहेंगे, इसलिए उनका सामना कीजिए. झूठी प्रतिष्‍ठा और सम्‍मान के अंधकार से बाहर निकलिए. वहां जीवन का दम घुटता है. 

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3. जीवन बर्दाश्‍त करने, समय की कड़ी धूप को सहने का नाम है. हारने का नहीं. शिक्षा, संवाद और कला, साहित्‍य की कमी हमें रूखा, कठोर बना रही है. हम दुख, पीड़ा और एक-दूसरे को बर्दाश्‍त करने की क्षमता से दूर होते जा रहे हैं.

4. तनाव, दुखी, अपराधबोध से भीगे मन तेजी से आत्‍महत्‍या की ओर बढ़ रहे हैं. बाहर से सफल, सुखी दिखने वाले मन के भीतर उमड़-घुमड़ रहे डिप्रेशन और अकेलेपन को समझना सहज नहीं. इसके लिए सूक्ष्‍मता, गहराई से प्रयास करने होंगे. तभी अपनों की अकाल मृत्‍यु को रोकना संभव होगा.

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5. आत्‍महत्‍या करने से कुछ पीछे नहीं छूटता. बल्‍कि सारे अप्रिय, कड़वे-अनसुलझे सवाल ताउम्र उनका दमन करते हैं, जिनसे सबसे अधिक प्रेम किया गया था. आत्‍महत्‍या उनके प्रति अपराध है, जिनसे सबसे अधिक स्‍नेह का वादा था.

(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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