जीवन में बाहरी दुर्घटना से जितनी हानि होती है. उससे कहीं अधिक भीतरी संरचना की टूटन, मन के उन सारे भावों में उलझे रहने, झुलसते रहने से भी होती है, जो हमें संचालित करते हैं.
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हमारी जिंदगी में दूसरों का दखल वैसा ही होना चाहिए, जैसा सड़क पर चलते हुए एक वाहन का दूसरे वाहनों के प्रति होता है. दो वाहन एक-दूसरे को देख भी रहे हैं और नहीं भी देख रहे हैं.
दूसरे वाहन की गति, दिशा पर निरंतर नजर रखे हुए हैं लेकिन अपनी गाड़ी को अपने अनुसार नियंत्रित कर रहे हैं. दूसरे के अनुसार नहीं! आप ध्यान से देखें तो दुर्घटना तभी होती है, जब हम दूसरे पर अधिक ध्यान देने लगते हैं, अपने पर नियंत्रण खो देते हैं. कई बार ज़रा-ज़रा सी बात पर नाराज होने के साथ, बिना वजह की रेस में उलझ जाते हैं. इस बीच अगर दुर्घटना हो जाए तो नुकसान दूसरे का तो है ही, लेकिन आपको भी तो क्षति उठानी ही होती है.
तुलना का संसार भी कुछ ऐसा ही है. जब तक आपका व्यवहार दूसरों के साथ संतुलित है, मर्यादित है. उनके प्रति अनुचित व्यवहार, मनोभाव नहीं है, तब तक प्रतिस्पर्धा सही है, लेकिन जैसे ही आप अपने मन, जीवन का नियंत्रण दूसरे के हाथ में दे देते हैं, समस्या शुरू हो जाती है.
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अपने आज के इस पल की गहराई को महसूस किए और जिए बिना हम अपनी 'नजर' दूसरे पर केंद्रित कर देते हैं. कुछ वैसे हीजैसे अपनी गाड़ी चलाते हुए पूरी नजर दूसरे पर लगा देना. ऐसे में दुर्घटना की आशंका बढ़ती ही है, चाहे बाद में आरोप किसी पर भी थोपते रहिए.
जीवन में बाहरी दुर्घटना से जितनी हानि होती है. उससे कहीं अधिक भीतरी संरचना की टूटन, मन के उन सारे भावों में उलझे रहने, झुलसते रहने से भी होती है, जो हमें संचालित करते हैं. हम भीतर ही भीतर ऐसी बुनावटों मे उलझे रहते हैं, जिनका मनुष्य के लिए कोई महत्व नहीं. हमारी जो ऊर्जा संवेदना को उदार, एक-दूसरे की पूरक बनने में लगनी चाहिए, वह ईर्ष्या, तुलना की दीवारों में उलझकर रह जाती है.
अलबर्ट आइंस्टीन ने कितनी खूबसूरत बात कही है, 'हर कोई प्रतिभाशाली है, लेकिन मछली की क्षमता का अंदाजा उसके पेड़ पर चढ़ने की क्षमता से लगाएंगे तो संभव है कि वह पूरी जिंदगी खुद को बेवकूफ समझते हुए गुजार दे.' हमें खुद अपने बारे में, अपने दोस्तों, परिजनों और सहकर्मियों को इसी आइंस्टीन वाली नजर से देखने की जरूरत है. हम जिंदगी में जो कुछ भी हासिल करते हैं, वह दूसरों के पूरक होकर, दूसरों को अपने साथ शामिल करके ही बनते हैं.
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जिंदगी दूसरों की खुशियों को खुले दिल से स्वीकार करने, उनके जश्न में शामिल होने से ही 'डियर' बनाई जा सकती है. दूसरों के लिए जिसके मन में कोमल, उदार विचार नहीं हैं. वह कितने ही लक्ष्य हासिल कर ले, समाज के लिए हितकारी नहीं है. इसलिए, अपनी भावना, विचार दूसरों के आधार पर मत बदलिए. दूसरों को यह हक नहीं होना चाहिए कि वह आपके दिमाग पर राज करें.
समय के साथ खुद को बदलना एक अलग बात है और दूसरों के हिसाब से अपने व्यवहार, नजरिए को बदल देना बिल्कुल अलग चीज है. हमें इससे जितना संभव हो खुद को बचाना है.
संसार, समाज को बेहतर बनाए रखने की दिशा में सबसे बड़ा काम खुद को बेहतर, विनम्र और उदार बनाए रखना है. इसलिए तुलना के संसार में विचरने से दिमाग को जितना दूर रखेंगे, 'डियर जिंदगी' के उतने ही नजदीक पहुंचते जाएंगे.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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