डियर जिंदगी : विश्‍वास में कितना विश्‍वास…
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डियर जिंदगी : विश्‍वास में कितना विश्‍वास…

जिंदगी थोकभर लोगों के सहारे नहीं चलती. वह तो चुनिंदा लोगों के यकीन पर टिकी होती है.

डियर जिंदगी : विश्‍वास में कितना विश्‍वास…

उनका बचपन मिश्रि‍त यादों का पिटारा है. वैसे तो हमारा बचपन अलग-अलग तरह की यादों का गुलदस्‍ता ही होता है. लेकिन ‘डियर जिंदगी’ के पाठक, इंजीनियर छत्‍तीसगढ़ के बस्‍तर से रवि श्रीवास्‍तव लिखते हैं कि जिंदगी उनके प्रति कुछ ज्‍यादा ही क्रूर रही. उन्‍हें अपने हिस्‍से के स्‍नेह, प्रेम और आत्‍मीयता के लिए बहुत ज्‍यादा संघर्ष करना पड़ा. उन्‍हें सहज प्रेम से भी वंचित रखा गया. पिता बिजनेसमैन. घर से दूर हमेशा रहे.

घर में पिता की मौजूदगी होते भी नहीं रही. वह न रहते हुए भी अपने नियमों के कारण घर में रहते थे और जब कभी आते तो रहते हुए भी नहीं रहते.  तीन बच्‍चों में वह ‘बीच’ का था. पता नहीं कैसे उसे महसूस होता रहा कि स्‍नेह और लाड के मामले में भी वह मध्‍य में ही रह गया. उसके बाद का सफर थोड़ा मुश्किल हो गया. पिता ने बच्‍चों की शिक्षा में बहुत रुचि नहीं दिखाई. वह किसी तरह अपनी पढ़ाई करके शहर पहुंचे. इस बीच उनका साथ बहुत कम लोगों ने दिया. हम कह सकते हैं कि कुछ मित्रों को छोड़कर उन्‍हें अपने ही लोगों का स्‍नेह और साथ नहीं मिला. आज जबकि वह अच्‍छी कही जा सकने वाली नौकरी का हिस्‍सा हैं. पत्‍नी हैं, बच्‍चे हैं, लेकिन बचपन की ‘कठोर’ यादों ने उनके मन पर अतिक्रमण कर लिया है.

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वह आसानी से प्रेम को स्‍वीकार नहीं कर पाते. दूसरों के प्रति उनका मन संदेह युक्‍त है. दूसरों के प्रेम में भी वह संदेह खोजते रहते हैं. इस तरह मन के निरंतर संदेह के बीच टहलते रहने से उन संदेह, शंका से भरा रहता है. हम खुद को जैसे विचारों के बीच छोड़ते हैं, हम आगे चलकर वैसे ही विचार निर्मित करने लगते हैं. संदेह से भरा मन, संदेह और स्‍नेह से भरा मन स्‍नेह का ही उत्‍पादन करेगा. मन जैसा उत्‍पादन करेगा, हमारा चित्‍त और चिंतन उसी प्रकार का होता जाएगा.

रवि यह भूल रहे हैं कि उनको जिंदगी में कुछ तो भले लोग मिले. ऐसे लोग मिले, जिनने जिंदगी के हर कदम और मोड़ पर उनका साथ दिया. जिनको उनकी योग्‍यता से अधिक एक ऐसे मनुष्‍य पर यकीन रहा, जो उनका मित्र था. जिंदगी थोकभर लोगों के सहारे नहीं चलती. वह तो चुनिंदा लोगों के यकीन पर टिकी होती है.

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एक पेड़ कठिन धूप, मुश्किल तूफान, बारिश में किसके सहारे खड़ा रहता है. किसके भरोसे टिका रहता है. वह उन जड़ों के भरोसे ही तो है, जो उसे हर हाल में संभालने का हौसला रखती हैं. जडें दिखती नहीं लेकिन उनके बिना हमारी कल्‍पना संभव नहीं.

ऐसे लोग जो हमें स्‍नेह देते हैं, मुश्किल वक्‍त में हमारे साथी होते हैं. हमें उनसे मिलने वाली ऊर्जा को समाज में बांटने की जरूरत है. तभी तो ऐसे लोगों की संख्‍या बढ़ेगी. वरना, भले लोग हमेशा अल्‍पमत में ही रह जाएंगे.

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रवि श्रीवास्‍तव और उनके जैसे उन सभी से जिनकी जीवन ने भरपूर परीक्षा ली है, मेरा बस इतना अनुरोध है कि विश्‍वास में निवेश को बढ़ाइए. अगर आपको स्‍नेह किन्‍हीं कारणों से कम मिला तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम उसे और रिक्‍त बनाएं. किसी की मदद करना, किसी के काम आना, यह मनुष्‍यता और विश्‍वास का विकास करने, सहेजने की दिशा में छोटे-छोटे लेकिन बड़े कदम हैं, जिनकी इस समय सबसे अधिक कमी महसूस हो रही है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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