खुद को आशा और आस्थावान बनाइए. जो जीवन में आशा, आस्था से भरा है, उसकी नजर आज पर नहीं कल पर होती है. बच्चों आज से अधिक कल हैं, इसलिए उनमें गहरे सब्र, स्नेह और विश्वास का निवेश कीजिए.
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‘डियर जिंदगी’ के एक साल के सफर के दौरान हम निरंतर तनाव, डिप्रेशन और आत्महत्या पर बात कर रहे हैं. किसी भी चीज़ पर बात करने का मतलब है, हम उससे बाहर आना चाहते हैं, लेकिन क्या हर विषय पर यह बात लागू होती है! बहुत हद तक. लेकिन तनाव और डिप्रेशन एक ऐसी चीज़ है, जिससे घिरने के बाद अक्सर यह अहसास कम निरंतर धीमा पड़ता जाता है कि इससे निकलने का रास्ता कितना सुगम है. जैसे ही हम तनाव की चपेट में आते हैं, सबसे पहले हमें यह एहसाास पकड़ता है कि हमारा मूल्य समाज और अपनों के लिए कम है. उन्हें हमारी जरूरत नहीं. हमारे रहने से दूसरों को क्या फर्क पड़ता है. यह तनाव की रेंज में आने की बुनियादी पहचान है. इससे इस बात का इशारा मिलता है कि तनाव ने अपना असर शुरू कर दिया है.
अक्सर हम यह मानकर चलते हैं कि तनाव एक मानिसक गतिविधि है, जिसका असर हमारे दिमाग पर अधिक होता है, शरीर पर कम. लेकिन कोरा भ्रम है. बल्कि उल्टा है. तनाव आता मन के रास्ते है, ठहरता दिमाग में है, लेकिन शरीर इस दुर्घटना का सबसे बड़ा शिकार बनता है. दिन पहले एक सुपरिचित डॉक्टर ने मुझे बताया था कि इन दिनों आंखों से लेकर पेट, शरीर की अधिकांश बीमारियों का कारण तनाव से शुरू होता है. तनाव सही समय पर पहचान करने पर ही संभव है कि इससे आसानी से निपटा जा सके, ऐसा होने पर जरा सी चूक भी जीवन तबाह कर सकती है.
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डॉक्टर का तो कहना है कि इन दिनों महिलाओं में पैरेंटिंग के तनाव के कारण सबसे अधिक समस्या उनके थायराइड बढ़ने के रूप में सामने आ रही है. थायराइड के मूल में तनाव, अत्यधिक चिंता और किसी काल्पिनक यानी अपनी बुनी हुई दुनिया में भटकते रहना है. कुल मिलाकर ऐसे सवालों के जंगल में उलझे रहना है, जिनका असल में कोई अस्तित्व नहीं है.
आज हम अभिभवकों से जुड़े कुछ सवाल, उनके हल पर संवाद करते हैं.
सबसे बड़ा सवाल : इन दिनों माता-पिता का सबसे बड़ा तनाव है, बच्चे का उनके मन के अनुसार प्रदर्शन नहीं कर पाना. इसे लेकर लगभग 80 प्रतिशत माता-पिता बल्कि मां बहुत ज्यादा परेशान रहती हैं. वह चाहती हैं कि उनका बच्चा दूसरे बच्चों के मुकाबले तेज़ हो. उसके नंबर लगभग सौ प्रतिशत आएं. वह स्कूल के साथ दूसरे खेल, काम में भी उतना ही स्मार्ट हो, जितना पड़ोसी, मौसी, चाचा और रिश्तेदार के बच्चे हैं. पहली नजर में इस सवाल को स्वीकार करना ही मुश्किल है! क्योंकि यह सीधे अहंकार पर चोट करता है, लेकिन तनाव की जड़ में अपेक्षा का पेड़ ही गहरा बसा हुआ है.
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समाधान :
1. हमारा बच्चा जैसा भी है, हमारा है. इस बात को गहराई से स्वीकार कीजिए. वह बहुत अधिक नंबर लाता है, ठीक है. लेकिन अगर इसका उलटा है तो ! यकीन मानिए इसमें भी कोई समस्या नहीं है. परवरिश की शिक्षा हमें ‘नर्सरी’ वाले से लेनी चाहिए. उसके पास सैकड़ों पेड़ पौधे होते हैं. जब आप उसके पास जाते हैं, वह सब पर सम भाव से काम करता हुआ मिलता है. सबको बराबरी का महत्व देते हुए वह ध्यान रखता है कि कौन सा पौधा किस काम में ज्यादा अच्छे से उपयोगी है. वह ‘कमजोर’ पौधों को लेकर तनाव में नहीं रहता. वह नियति को स्वीकार करने की शिक्षा बेहद सरलता से देता है.
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2. आपकी लाख कोशिश के बाद भी बच्चा पढ़ाई में कुछ खास नहीं है! माता जी इस बात को लेकर रात दिन एक किए रहती हैं. यह एकदम तनाव की खेती करने जैसा है. बच्चे के प्रदर्शन को हमने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ दिया है. इसलिए हमारी हालात पतली हो जाती है. अगर हम खुद स्कूल में बहुत ‘तेज़’ थे तो बच्चे को भी होना चाहिए और अगर नहीं थे तो बच्चे को तो टॉपर बनाना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए. इस मनोविकार को पहचानिए और सुधार कीजिए. समस्या बच्चे में नहीं आपके चिंतन में गहरी है. इसलिए अपने को करेक्ट करने की जरूरत है.
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3. बच्चे को जितना तुलना के भंवर में फंसाएंगे वह और आप खुद तनाव के दलदल में उतने ही धसते जाएंगे. इसलिए अपने मन की चाहतों और प्रतिष्ठा के अहंकार को संभालिए. यह आपको कहीं नहीं पहुंचाते, बस दौड़ा-दौडा़ कर थका देते हैं. इसलिए, दुनिया के महानतम वैज्ञानिक, लेखक और नेताओं से लेकर हर उस विधा के लोगों के बारे में पढि़ए जिनका आपने नाम सुना हो. इससे आपका बच्चों के स्वत: समय के साथ विकास करने के फलसफे पर यकीन बढ़ेगा.
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4. खुद को आशा और आस्थावान बनाइए. जो जीवन में आशा, आस्था से भरा है, उसकी नजर आज पर नहीं कल पर होती है. बच्चों आज से अधिक कल हैं, इसलिए उनमें गहरे सब्र, स्नेह और विश्वास का निवेश कीजिए.
5. यकीन रख्रिए परिणाम हमेशा निवेश के अनुसार मिलता है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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