डियर जिंदगी : खुशी तुम कहां हो...
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डियर जिंदगी : खुशी तुम कहां हो...

निजी बातचीत में जो शब्‍द दिनभर में सबसे ज्‍यादा इस्‍तेमाल किए जाते हैं, 'खुशी' उनमें से एक है. हम किसी न किसी रूप में इसका इस्‍तेमाल करते ही हैं.

दूसरे की खुशी के वक्‍त हम कितने खुश होते हैं, इससे ही हमारी खुशी की गुणवत्‍ता जाहिर होती है.

खुशी जिसे हम इन दिनों हैप्‍पीनेस के नाम से अधिक जानते हैं. यह कितनी जरूरी और भ्रामक है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मध्‍यप्रदेश में तो इस नाम का एक मंत्रालय ही बना दिया गया है. यह अलग बात है कि मंत्रालय अब तक यह नहीं पता लगा सका कि राज्‍य में लोग क्‍यों दुखी, नाराज हैं. क्‍या कोई मंत्रालय हमारी खुशी की सही रिपोर्ट दे सकता है. असंभव. बातचीत में जो शब्‍द दिनभर में सबसे ज्‍यादा इस्‍तेमाल किए जाते हैं, 'खुशी' उनमें से एक है. हम किसी न किसी रूप में इसका इस्‍तेमाल करते ही हैं. हम खुश होते हैं, या उसकी तलाश में होते हैं. कभी उसकी उम्‍मीद, नहीं तो उसकी टूटी आस के साथ.

'जीवन संवाद' की एक वर्कशॉप में मुझसे एक बार पूछा गया था कि मैं सबसे ज्‍यादा खुश कब होता हूं. संवाद के सूत्रधार ने कहा कि यह कठिन सवाल है. मैंने कहा, शायद नहीं. क्‍योंकि मैं सबसे ज्‍यादा खुश होने के मौके आसानी से तलाश लेता हूं. मैं तब सबसे ज्‍यादा खुश होता हूं, जब मैं दूसरे की खुशी में शामिल होता हूं. यह कुछ और नहीं बस अभ्‍यास की बात है.

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कई बार मुझसे मेरे साथियों ने कहा कि जब कभी वह मुझसे अपने प्रमोशन, ऑफर लेटर साझा करते हैं, तो उनको लगता है कि मैं उनसे भी ज्‍यादा खुश हूं. जब कोई मुझे बताता है कि उसने कुछ ऐसा किया है, जो मैं बहुत दिनों से करने की योजना बना रहा था, तो मैं बहुत खुश होता हूं. कोई मुझसे कहता है कि मैं विदेश,देश घूम आया तो मैं जल्‍दी से उसके पास पहुंच जाता हूं, उसके संस्‍मरण सुनने. इस तरह मैं कोशिश करता हूं कि मैं लोगों की उन चीजों में शामिल रहूं, जिनमें वह खुशी महसूस करते हैं. यह एक किस्‍म की जीवनशैली है, जो मुझे आज से कई दशकों पहले मेरे बचपन में ही मेरे अजीज फूल सिंह ने दी थी.

फूल सिंह मेरा बड़ा करीबी मित्र था. वह टीवी पर विक्रम-बेताल के दिनों की बात है. हमारे घर में टीवी नहीं था. फूल सिंह के घर था. लेकिन वह घर में परदेशी था, वह अपने चाचा-चाची के साथ रहता था. मैं कई बार यूं ही कह देता... तुम्‍हारे घर तो टीवी है! एक दिन उसने कहा, तुम्‍हारे पास तो सबकुछ है, भाई. तुम माता-पिता के साथ रहते हो. वह तुम्‍हें बहुत प्रेम करते हैं. तुम्‍हारे आसपास स्‍नेह है. लेकिन मेरे घर में टीवी के अलावा कुछ नहीं है. जिसका तुम कभी जिक्र करो.

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मैं तो हमेशा तुम्‍हारे हिस्‍से के प्रेम से खुश रहता हूं. तुम मेरे टीवी से खुश रहो, भाई! बाद के बरसों में मैंने फूलसिंह को बहुत खोजा, वह मिला नहीं कहीं. लेकिन उसका जीवन दर्शन हमेशा मेरे साथ रहा. मैं दोस्‍तों की खुशि‍यों से खुश होता गया. हर उस खबर पर जो दोस्‍तों, परिचितों के जीवन में सुकून घोलती हैं.

दूसरे की खुशी के वक्‍त हम कितने खुश होते हैं, इससे ही हमारी खुशी की गुणवत्‍ता जाहिर होती है. खुशी बेहद आंतरिक मामला है. हम जिन चीजों की तलाश में रहते हैं, अक्‍सर उनके मिलने तक उसकी खुशी से मुक्‍त हो जाते हैं. ऐसा इसलिए क्‍योंकि इस दौरान हम उसके लिए जो जतन करते हैं, उन्‍हीं से हमें असली खुशी हासिल हो जाती है. परिणाम हमारी जिंदगी में बहुत मायने रखता है, लेकिन वह सबकुछ नहीं है. ठीक बैंक बैलेंस की तरह. जैसे पैसा बहुत कुछ है, लेकिन वह सबकुछ नहीं है. एक सीमा के बाद धन में वह शक्ति नहीं रह जाती कि वह हमें प्रभावित कर सके. हम दूसरी चीजों के माध्‍यम से संतुष्टि की तलाश में तभी निकलते हैं, जब हम कुछ स्‍थायी चाहते हैं. अपनी चाहतों का विस्‍तार चाहते हैं.

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जीवन में ऐसी खुशी चाहते हैं, जो दूसरों को खुश कर सके. जिसका दायरा बड़ा हो. अगर हमने कुछ ऐसा हासिल किया है, जो केवल मुझ तक सीमित है, तो कभी मेरी खुशी में दूसरों की हिस्‍सेदारी असीमित नहीं होगी. अगर मैं अपनी प्रसन्‍नता में दूसरों की निरंतर भागीदारी चाहता हूं, तो मुझे यह तय करना ही होगा कि मेरे लक्ष्‍य, मेरे चिंतन में दूसरे की हिस्‍सेदारी रहे.

(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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